हिंदू शरणार्थियों के मानवीय अस्तित्व का पहला सूर्योदय है नागरिकता कानून
पाकिस्तान बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता संशोधन कानून ने दिया खुशी का पहला मौका लेकिन विरोध आंदोलन के चलते इजहार से परहेज।
संजय मिश्र, बोको (असम)। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक ओर जहां आंदोलन चल रहा है, दूसरी ओर लाखों ऐसे लोग भी है, जिन्हें यह कानून देवदूत से कम नजर नहीं आ रहा है। शरणार्थी बस्ती में दयनीय हालत में डर के साये में जी रहे पाकिस्तान-बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों की यह आबादी इस नए कानून में आधी सदी से भी ज्यादा समय बाद अंधेरे सुरंग में फंसी अपनी नागरिकता का सूर्योदय मान रही है।
विभाजन और विस्थापन की पीड़ा का आईना है शरणार्थी कैंप
विभाजन और विस्थापन की पीड़ादायक विरासत के साथ रोजाना शरणार्थी जीवन की संघर्षपूर्ण चुनौती से रूबरू होने वाले इन लोगों के लिए नागरिकता कानून उनकी जिंदगी में खुशी का सबसे बड़ा मौका है। वहीं विरोध आंदोलन की कोई बड़ी खबर इन लोगों और इनके परिवारजनों को सहमा रही है। छय गांव के निकट बामुनिया गांव के चौधरीपारा हिंदू शरणार्थी कैंप में तमाम लोगों की निगाहें टेलीविजन पर नागरिकता कानून के आंदोलन और उससे जुड़ी खबरों की ओर ही लगी है।
कैंप में खुशी की जगह खामोशी क्यों
इस कैंप में रह रहे 110 परिवारों के अधिकांश सदस्यों का नाम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में शामिल नहीं हुआ है। इस कैंप में 1964 और 1968 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू परिवार है। नए कानून के मुताबिक दिसंबर 2014 तक आए सभी गैर- मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता मिलेगी। नागरिकता कानून इन सब को भारतीय पहचान देगी, फिर कैंप में खुशी की जगह खामोशी क्यों है?
खुशी का इजहार करना उचित नहीं
60 वर्षीय श्यामपद चक्रवर्ती और उनका 20 वर्षीय बेटा केशव ही नहीं, उनके दरवाजे पर इकट्ठे तमाम लोग पहले तो इस सवाल को टाल देते है, फिर भरोसा दिलाने पर कहते है, कि 'नागरिकता कानून से बड़ी खुशी हमारे जीवन में और कुछ नहीं हो सकती है, लेकिन असम के स्थानीय लोगों के साथ उनके दशकों पूर्व सौहार्द्रपूर्ण रिश्ते है और उन्होंने हमें आश्रय दिया है। आज वे कानून को लेकर दुखी है, तो हमारा खुशी का इजहार करना उचित नहीं है।'
यदि नागरिकता नहीं मिली, तो हमारे बच्चे कहां जाएंगे
कैंप में तमाम दूसरे लोगों ने भी ऐसी ही राय जाहिर की। साथ ही इसको लेकर वह संशकित दिखे, कि विरोध आंदोलन के चलते अगर कानून में कोई बदलाव हुआ, तो फिर उनके बच्चों का भविष्य क्या होगा। वह सब भारत के अलावा भला कहां जाएंगे। श्यामपद पांच साल की उम्र में अपनी मां और भाई-बहनों के साथ पूर्वी पाकिस्तान के तिलहट से आए थे। अभी उनके परिवार में छह सदस्य है, लेकिन उनकी पत्नी बसंती के अलावा किसी का नाम एनआरसी में नहीं है। उत्तम कुमार देव भी तिलहट से बचपन में विस्थापित होकर आए। उनके पिता तो रास्ते में ही गुजर गए। मां ने उन्हें बड़ी मुश्किल से यहां लाकर पाला पोसा। वे कहते है कि यहां आए सभी परिवारों की एक पीढ़ी खत्म हो रही है और हम भी जीवन के अंतिम पड़ाव पर है। यदि किसी कारण से नागरिकता नहीं मिली, तो हमारे बच्चे कहां जाएंगे। यह सोच कर हर व्यक्ति की रूह कांप उठती है।
खुशियों का हमसे छत्तीस का रिश्ता
शरणार्थी जीवन में मुश्किलों का जिक्र करते हुए पाकिस्तान के मेमन सिंह जिले से आई 56 साल की धाकेश्वरी वर्मन कहती है, कि बचपन से आज तक संघर्ष और पीड़ा के अलावा हम सबने कुछ जिया ही नहीं। खुशियों का हमसे जैसे छत्तीस का रिश्ता हो। देर से ही सही नागरिकता कानून में खुशी का यह पहला मौका दिया है।
एनआरसी में नाम नहीं, पूरा जीवन दो जून की रोटी के संघर्ष में बीत गया
अविवाहित वर्मन छह महीने की थी, तो उनकी मां भारत लेकर आई। अब वे अकेली बची है और उनका नाम भी एनआरसी में नहीं है। विवाह नहीं करने के सवाल पर वह कहती है, कि पूरा जीवन दो जून की रोटी के संघर्ष में ही बीत गया और पिता थे नहीं, ऐसे में उनकी शादी भला कौन करता। मेहनत मजदूरी कर जीवन बसर करने वाली बर्मन यह सवाल भी दागती है, कि बताइए अब भारत और इस कैंप के अलावा उनका दूसरा जहां कहां होगा।
शरणार्थी परिवारों की हालत जर्जर
65 साल के निमाइल हजम और 70 साल के जाघव दाल समेत कैंप में चक्रवर्ती के घर के सामने जुटे दर्जन भर से ज्यादा लोगों ने कहा कि शरणार्थी परिवारों की हालत जर्जर है। एक दिन कोई हजीरा ( दिहाड़ी) न करे, तो खाना नहीं मिलेगा। जिंदगी के भीतर संघर्ष से हर पल रूबरू होने वाले हिंदू शरणार्थियों की दस्तांन जाहिर करती है कि नागरिकता कानून का सही मायने में ऐसे शरणार्थी कैंपों में रहने वाले लोगों के लिए उनके मानवीय अस्तित्व का पहला वास्तविक सूर्योदय है।