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चीन को खटक रहा भारत का डरबूक-श्योक रोड, अक्साई चीन पर नजर रखने का बना वैकल्पिक मार्ग

मुश्किल और निर्जन इलाकों से गुजरती इस अहम सड़क का प्रबंधन करना भी बीआरओ के लिए आसान काम नहीं है।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Fri, 14 Aug 2020 08:15 PM (IST)Updated: Fri, 14 Aug 2020 08:15 PM (IST)
चीन को खटक रहा भारत का डरबूक-श्योक रोड, अक्साई चीन पर नजर रखने का बना वैकल्पिक मार्ग
चीन को खटक रहा भारत का डरबूक-श्योक रोड, अक्साई चीन पर नजर रखने का बना वैकल्पिक मार्ग

संजय मिश्र, नई दिल्ली। कूटनीति ही नहीं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि डरबूक-श्योक रोड रणनीतिक वजहों से बार-बार चीन की आंखों में खटक रहा है। पूर्वी लद्दाख में डीएस-डीबीओ रोड के नाम से चर्चित इस सड़क ने भारतीय सेनाओं को चीन की चुनौती का जवाब देने के लिए रणनीतिक बढ़त दी है। हर मौसम के लिहाज से सदाबहार इस सड़क की रणनीतिक अहमियत के मद्देनजर ही चीनी सेना पूर्वी लद्दाख के इलाकों में एलएसी पर शरारतपूर्ण अतिक्रमण से बाज नहीं आ रही है।

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डरबूक-श्योक रोड से चीन की बढ़ी बेचैनी

डरबूक-श्योक रोड से चीन की बढ़ी बेचैनी की वजह इससे जुड़े तीन अहम रणनीतिक मोर्चे हैं जो भारतीय सेनाओं को चीन के साथ पाकिस्तान पर सतर्क निगाह रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेह से शुरू होकर करीब 220 किलोमीटर लंबी यह सड़क डरबूक और श्योक वैली को जोड़ते हुए चीन से लगी एलएसी के करीब तक जाती है। पैंगोंग लेक इलाके और गलवन घाटी को जोड़ती यह सड़क भारत को अक्साई चीन के क्षेत्र में भी सीधे निगाह रखने का जरिया बनी है, जो दुनिया के सबसे ऊंची दौलत बेग एयर स्ट्रिप को भी जोड़ती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनाए गए इस एयर स्टि्रप को भारत ने 1962 में चीन से युद्ध के समय चालू किया। हालांकि, उसके बाद 2008 तक यह एयर स्ट्रिप पूरी तरह बंद ही रहा था। डीएस-डीबीओ रोड के निर्माण की प्रगति के साथ ही 2013 में भारत ने अपना सबसे बड़ा परिहवन विमान सी-130जे को यहां उतार इस एयर स्ट्रिप को नई जिंदगी दी।

भारतीय सेनाओं को एलएसी पर अपनी मजबूती बढ़ाने में दोहरे संपर्क का मिला फायदा

भारतीय सेनाओं को एलएसी पर अपनी मजबूती बढ़ाने में इस दोहरे संपर्क का फायदा मिला है। डीएस-डीबीओ रोड की तीसरी रणनीतिक अहमियत है कि यह सबसे कठिन सैन्य मोर्चे सियाचिन ग्लेशियर तक पहुंचने का वैकल्पिक मार्ग बन गई है। सामरिक मामलों के विशेषज्ञ रिटायर मेजर जनरल जेकेएस परिहार डीएस-डीबीओ रोड ने अक्साई चीन, सियाचिन और दौलत बेग ओल्डी में भारत को रणनीतिक मजबूती दी है। इस सड़क के जरिये हमारी सेना अपने टैंक, मिलिट्री वाहन से लेकर सारे सैन्य साजो-सामान एलएसी के बेहद निकट तक पहुंचाने में सक्षम हो गई है। मेजर जनरल परिहार के अनुसार मोर्चे पर सेनाओं की अधिक संख्या की जरूरत को देखते हुए इस सड़क के बन जाने की वजह से सेना डरबूक-श्योक में अपना सैन्य बेस भी बना सकती है।

दुर्गम इलाकों से गुजरती इस सड़क का निर्माण बीआरओ के लिए बड़ी उपलब्धि

दुनिया के सबसे दुर्गम इलाकों से गुजरती इस सड़क का निर्माण बीआरओ के लिए किसी अंतरिक्ष मिशन से कम नहीं रहा। सन 2000 में शुरू हुए निर्माण के बाद श्योक और दौलत बेग ओल्डी को जोड़ने वाले 220 किलोमीटर लंबे हिस्से का काम 2019 में पूरा हुआ। 

हर मौसम में आवागमन के लिए कारगर

सड़क निर्माण की इस यात्रा में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने अपनी पेशेवर क्षमता और इंजीनियरिंग कौशल की अद्भुत मिसालें भी बनाई। इस सड़क के बनने के बाद लेह से दौलत बेग ओल्डी का सफर अब केवल छह घंटे का हो गया है। जबकि पहले इसी सफर के लिए कम से कम दो दिन लगते थे। दुर्गम पहाड़ी इलाके, ग्लेसियर और बर्फीली नदियों-झीलों के बीच से गुजरती इस सड़क को बीआरओ ने ऐसी तकनीक से बनाया है जो हर मौसम में आवागमन के लिए कारगर है। ऐसे इलाकों से सड़क बनाने में बीआरओ ने बेहद मुश्किल हालातों का सामना किया। ठंढ़ के मौसम में -55 डिग्री तापमान जैसे इलाकों में काम करना असंभव था और बीआरओ के पास हर साल केवल कुछ महीने मई से नवंबर तक का ही समय अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए होता था।

निर्जन इलाकों से गुजरती सड़क का प्रबंधन करना बीआरओ के लिए आसान काम नहीं

इस सड़क के निर्माण की कुल लागत करीब 1220 करोड रुपये आयी। मुश्किल और निर्जन इलाकों से गुजरती इस अहम सड़क का प्रबंधन करना भी बीआरओ के लिए आसान काम नहीं है। सड़क के 23वें किमी से 150वें किमी के हिस्से जिसमें पूर्वी काराकोरम तक के इलाके में बड़ी संख्या में ग्लेशियर और बर्फीली झीलें हैं। इसकी वजह से कई बार बर्फ की चट्टानें पिघलने और बादल फटने की घटनाएं भी होती हैं। वैसे इस सड़क की कई अनोखी बातें भी हैं जो इंजीनियरिंग के लिहाज से नजीर हैं। अनगिनत नदी-नालों से गुजरती इस सड़क पर 37 पुल हैं, जिसमें एक की लंबाई 1.4 किलोमीटर है। दिलचस्प यह है कि दुर्गम इलाके में भी इस पुल का निर्माण 14 महीने में ही पूरा कर लिया गया।


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