CBI अब भी पिंजरे में बंद ‘तोता’ है, जानें- क्या है हकीकत और कैसे बनी ये स्थिति
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ की स्थापना 1941 में अंग्रेजों ने की थी। उम्मीद की जाती है कि सीबीआइ, एफबीआइ की तर्ज पर काम करे। आजादी के बाद गिरती चली गई इसकी साख।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। सीबीआइ, देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी। इस एजेंसी को राष्ट्रीय स्तर के बड़े मामलों की जांच के लिए जाना जाता है। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में सीबीआइ की कार्यशैली और उसके मिसयूज को लेकर लगातार सवाल खड़े होते रहे हैं। केन्द्र में सरकार चाहे कोई भी हो, उस पर सीबीआइ का राजनीतिक मिसयूज करने के आरोप लगते रहे हैं। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट भी सीबीआइ को पिंजरे में बंद ‘तोता’ कह चुकी है। अब मुंबई की एक विशेष सीबीआइ अदालत ने फिर सीबीआइ को लेकर सवाल खड़े किए हैं।
मुंबई की सीबीआइ अदालत ने कहा है कि गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख, उनकी पत्नी कौसर बी और सके सहयोगी तुलसीराम प्रजापति की कथित फर्जी मुठभेड़ की जांच सीबीआइ पूर्व नियोजित और पूर्व निर्धारित थ्योरी के आधार पर कर रही थी। इसका उद्देश्य केस में नेताओं को फंसाना था। विशेष सीबीआइ जज एसजे शर्मा ने 21 दिसंबर को अपने 350 पन्नों के आदेश में यह टिप्पणी की थी। इस टिप्पणी से साफ है कि सीबीआइ अब भी पिंजरे में बंद तोता है।
इन दिनों सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के विवाद की वजह से सीबीआइ सुर्खियों में है। इन विवादों ने सीबीआइ की साख तो खराब की ही है, साथ ही इसकी अंदरूनी कलहें और उसकी स्वायत्ता को लेकर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। ऐसे में आपके लिए भी ये जानना जरूरी है कि क्या सीबीआइ हमेशा से पिंजरे में बंद तोता रही है? अगर ऐसा नहीं है तो सीबीआइ के मिसयूज की हकीकत क्या है और कबसे ऐसी स्थिति बनी?
इन दो राज्यों ने सीबीआइ पर लगाई रोक
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिस्थापना अधिनियम 1976 की धारा 6 द्वारा राज्य के क्षेत्राधिकार में सीबीआइ द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग पर रोक लगा दी है। मतलब सीबीआइ इन राज्यों में केंद्रीय अधिकारियों, सरकारी उपक्रमों और निजी व्यक्तियों की जांच सीधे नहीं कर सकती। सीबीआइ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत भी इन राज्यों में कोई कदम नहीं उठा सकती है। इससे सीबीआइ के मिसयूज को लेकर और सवाल खड़े होने लगे हैं। मालूम हो कि ममता की तृणमूल पार्टी के नेता शारदा, नारदा आदि विभिन्न घोटालों में फंसे हैं। आंध्र प्रदेश के विवादास्पद व्यवसायी सतीश बाबू साना भी सीबीआइ के रडार पर हैं। तेदेपा के एक अन्य सांसद व व्यवसायी सीएम रमेश भी एक प्रकरण में फंसे हुए हैं।
कांग्रेस ब्यूर ऑफ इन्वेस्टीगेशन या भाजपा ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन
यूपीए सरकार के दौरान भाजपा सीबीआइ को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन कहती थी। कोयला घोटाले में भाजपा ने सीबीआइ पर केंद्र की यूपीए सरकार के इशारे पर काम करने का न केवल आरोप लगाया, बल्कि सदन से लेकर सड़क तक जमकर हल्ला बोला व विरोध-प्रदर्शन किया था। केंद्र में सत्ता बदलने के बाद अब कांग्रेस, भाजपा सरकार पर सीबीआइ का राजनीतिक मिसयूज करने का आरोप लगा रही है। अब कांग्रेस, सीबीआइ को भाजपा ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन कह रही है। भाजपा के कर्नाटक के दिग्गज नेता येद्दियुरप्पा 2011 में खनन कंपनियों से पैसा लेने के दोषी पाए गए थे। अब सीबीआइ ने उन्हें दोष मुक्त कर दिया है। ये वो कुछ बड़ी वजहें हैं, जिससे सीबीआइ की साख लगातार गिरी है।
सपा-बसपा के खिलाफ सीबीआइ जांच
सबसे बड़ा राज्य होने के कारण उत्तर प्रदेश राजनीतिक दृष्टि से केंद्रीय राजनीति के लिए भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां सपा और बसपा का गढ़ है। ऐसे में हमेशा से केंद्र की सरकार दोनों पार्टियों को अपने राजनीतिक हित के लिए दबाती रही है। सीबीआइ सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और बसपा प्रमुख मायावती के खिलाफ लंबे समय से अलग-अलग आरोपों में जांच करती रही है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि सपा व बसपा सुप्रीमों लंबे समय से सीबीआइ के लपेटे में रहे हैं। यही वजह है कि दोनों पार्टियां हमेशा आरोप लगाती हैं कि सीबीआइ का इस्तेमाल उन्हें डराने और राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है, चाहे केंद्र में सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की।
भविष्य संवारने में जुट गए अधिकारी
आम राय है कि सीबीआइ का प्रत्येक सरकार में राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल होता रहा है। ऐसे में भ्रष्टाचार से लड़ने की सीबीआइ की ईमानदार छवि पर सवाल भी खड़े होत रहे हैं। वहीं राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता में आने के बाद विरोधियों को डराने के लिए सीबीआई को अधिकाधिक शक्तियां देने का सिलसिला शुरू कर दिया। ऐसे में सीबीआइ अधिकारी भी जांच एजेंसी की साख बचाने की जगह अपना भविष्य संवारने में जुट गए। उनका मकसद सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक लाभ लेने का हो गया। बहुत से अधिकारी इसमें कामयाब भी रहे, जिससे ये स्थाई परिपाटी बन गई।
सीबीआइ को एफबीआइ बनाने की है जरूरत
सीबीआइ के कामकाज पर उठ रहे सवालों को देखते हुए वर्ष 2011 में संसदीय स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। इसमें कहा गया था कि सीबीआइ को प्रवर्तन संबंधी जिम्मेदारी दी जाए। सीबीआइ में राजनीतिक हस्तक्षेप रोकने के लिए इसे स्वतंत्र और स्वायत्त किया जाए। साथ ही एक नए केंद्रीय आसूचना और अन्वेषण ब्यूरो अधिनियम बनाकर सीबीआइ को जांच और अभियोजन चलाने की शक्ति दी जाए। साथ ही सीबीआइ को अमेरीकन एजेंसी एफबीआइ जैसा दर्जा दिया जाए। तभी सीबीआइ का राजनीतिक दुष्प्रयोग थमेगा।
अंग्रेजों के जमाने में बनी थी सीबीआइ
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ की नींव आजादी से पहले अंग्रेजों ने रखी थी। इसकी स्थापना 1941 में ‘विशेष पुलिस प्रतिष्ठान’ के तौर पर हुई थी। विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का काम दूसरे विश्व युद्ध में युद्ध और आपूर्ति विभाग में लेनदेन में घूसखोरी और भ्रष्टाचार की जांच करना था। विशेष पुलिस प्रतिष्टान का सुपरविजन युद्ध विभाग के पास होता था। हालांकि दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होते ही सरकारी विभागों में घूसखोरी और भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ गया, जिसे रोकने के लिए एक केंद्रीय जांच एजेंसी की जरूरत महसूस की गई। लिहाजा 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम लागू कर इसे केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इसके बाद इसका कार्य क्षेत्र बढ़ाकर केंद्र सरकार के सभी विभागों के साथ संघ राज्यों क्षेत्रों तक हो गया। इसके बाद राज्य सरकारों की सहमति से राज्यों में जांच पड़ताल का अधिकार भी विशेष पुलिस प्रतिष्ठान को मिल गया। 1 अप्रैल 1963 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का नाम बदलकर Central Bureau of Investigation (CBI) कर दिया गया।
इंदिरा गांधी के समय शुरू हुआ सीबीआइ का राजनीतिकरण
सीबीआइ के पूर्व निदेशक एनके सिंह ने एक मीडिया साक्षात्कार में कहा था कि एजेंसी का राजनीतिकरण इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में शुरू हुआ था। उनका कहना था कि उनसे पहले के प्रधानमंत्री आम तौर पर जांच एजेंसी के कामकाज में दखल नहीं देते थे। उन्हीं के कार्यकाल में डी सेन नाम के अधिकारी छह साल तक सीबीआइ निदेशक पद पर रहे थे। जब वीपी सिंह ने कांग्रेस और राजीव गांधी का साथ छोड़ा तो उसके तुरंत बाद कैरेबियी देश सेंट किट्स में एक फर्जी बैंक खाता खोलकर उसमें बेशुमार पैसे जमा कराए गए। बाद में कहा गया कि वो रकम वीपी सिंह के पुत्र के नाम पर जमा की गई है। इस केस में सरकार ने कई बार राजनीतिक दखलअंदाजी की थी। एनके सिंह के अनुसार जब उन्होंने सरकार की बात नहीं मानी तो उनका तबादला कर सीबीआइ से बाहर कर दिया गया था। इसके बाद छह महीने में ही सेंट किट्स मामला खत्म हो गया। एनके सिंह के अनुसार ऐसा ही कुछ बोपोर्स केस में भी हुआ था जब ओतावियो क्वात्रोची को न केवल देश से बाहर जाने दिया गया, बल्कि लंदन में सील उसका बैंक खाता भी खोल दिया गया था। बिहार में बॉबी नाम की नर्स का बहुचर्चित मर्डर केस भी राजनीतिक हस्तक्षेप का बड़ा उदाहरण है।
विजय माल्या के वकील ने भी सीबीआइ पर लगाए गंभीर आरोप
शराब कारोबारी विजय माल्या के वीकल ने भी दिसंबर-2017 में ब्रिटेन की अदालत में प्रत्यर्पण मामले की सुनवाई के दौरान सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पर निशाना साधते हुए दोनों एजेंसियों पर राजनीति से प्रेरित होकर काम करने का आरोप लगाया गया था। वकील ने कहा था दोनों एजेंसियों का राजनीति से प्रेरित होने का लंबा इतिहास है।
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