बुंदेलखंड में उखड़े पांव को जमाना बसपा को पड़ रहा भारी
भाजपा के विकास, रोजगार देने और पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने जैसी योजनाओं पर अमल बसपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है।
सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। बुंदेलखंड में बीते लोकसभा और विधानसभा की चुनावी जंग में बसपा के उखड़े पांव अभी तक जम नहीं पा जम रहे हैं। हतोत्साहित कार्यकर्ताओं में जोश भरने और पार्टी की रणनीति को सुदूर तक पहुंचाने वाले नेताओं का अभाव उसकेआड़े आ रहा है। बाहर से भेजे गये पार्टी के नेता यहां की सियासी जमीन पर कारगर नहीं हो पा रहे हैं। दूसरी ओर, राज्य की सत्तारुढ़ भाजपा ने बुंदेलखंड में पूरी ताकत झोंक दी है।
भाजपा के विकास, रोजगार देने और पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने जैसी योजनाओं पर अमल बसपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है। परंपरागत कुछ जातियों को छोड़कर पिछले चुनाव में बसपा से छिटकी जातियों को पार्टी के साथ जोड़ना भारी पड़ रहा है। सपा और बसपा के साथ आने को लेकर कुछ आस जरूर जगी है। लेकिन भाजपा ने बुंदेलखंड में विकास कार्य कराने में आक्रामक तेवर अपनाया है, जो विपक्षी दलों पर भारी पड़ेगा।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी बुंदेलखंड को लेकर बहुत संजीदा है। डिफेंस कारीडोर बनाने की प्रक्रिया को तेज करने के लिए बुंदेलखंड में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन और झांसी की सांसद व केंद्रीय मंत्री उमा भारती के साथ यहां बैठक की गई। बताया गया कि बुंदेलखंड के लोगों को रोजी रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकार पुख्ता बंदोबस्त कर रही है। यहां तकरीबन 20 हजार करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा।
बुंदेलखंड बसपा का प्रमुख गढ़ रहा है, जिसके बूते पार्टी सूबे की सियासत में ताकतवर होती रही है। पिछले चुनावों में पार्टी की हार जरूर हुई, लेकिन वह दूसरे नंबर ही रही। यहां की सबसे बड़ी समस्या पेयजल की रही है, जिले लेकर हर साल लखनऊ और दिल्ली तक में हाहाकार मचता है। रोजी रोजगार न होने से यहां के लोगों का पलायन नियति बन चुकी है। राज्य की योगी सरकार ने इस बार यहां अपने सियासी पांव को और मजबूती से जमाने के लिए कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती है। वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अब समय नहीं बचा है।
बसपा के प्रमुख व दिग्गज नेता रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बृजलाल खाबरी ने पार्टी का दामन छोड़कर कांग्रेस का हाथ पकड़ लिया है। इन नेताओं के चलते बुंदेलखंड को राजनीतिक बल मिलता था, लेकिन उनके जाने के बाद से पार्टी नेता विहीन हो चुकी है। संगठन को मजबूत बनाने की दृष्टि से कुछ लोगों को भेजा तो गया है, लेकिन वे लोग प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं। बसपा के दलित मतदाताओं में से एक जाति विशेष को छोड़ ज्यादातर छिटक कर भाजपा के साथ जुड़ गये थे। बसपा के लिए उन्हें वापस लाना आसान नहीं होगा।