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त्रिपुरा में भाजपा-माकपा के बीच होगी सीधी लड़ाई

पूर्ण राज्य का दर्जा पाने के 45 सालों में से 35 सालों तक त्रिपुरा में काबिज रही माकपा के लिए इस बार नई स्थिति है।

By Monika MinalEdited By: Published: Fri, 19 Jan 2018 12:09 PM (IST)Updated: Fri, 19 Jan 2018 12:33 PM (IST)
त्रिपुरा में भाजपा-माकपा के बीच होगी सीधी लड़ाई
त्रिपुरा में भाजपा-माकपा के बीच होगी सीधी लड़ाई

नई दिल्ली (नीलू रंजन)। चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा और माकपा के बीच सीधी लड़ाई का बिगुल बज गया है। पूर्ण राज्य का दर्जा पाने के 45 सालों में से 35 सालों तक त्रिपुरा में काबिज रही माकपा के लिए इस बार नई स्थिति है। उसका मुकाबला सीधे तौर पर भाजपा के साथ है। वहीं कांग्रेस मुक्त का नारा देती रही भाजपा इस बार वाम मुक्त त्रिपुरा की राह पर है। अगर त्रिपुरा हाथ से निकला तो वामपंथियों के पास सिर्फ केरल बचेगा।

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त्रिपुरा में मुख्य मुकाबला हमेशा कांग्रेस और माकपा के बीच रहा है। लेकिन शुरुआती पांच साल और 1988 से 1993 में गठबंधन सरकार को छोड़ दें, तो माकपा हमेशा बढ़त बनाने में सफल रही है। यही नहीं, मानिक सरकार के 20 सालों की सरकार के दौरान माकपा की सीटों की संख्या भी बढ़ती रही है। 2013 के विधानसभा चुनाव में माकपा राज्य की 60 में से 49 सीटें जीतने में सफल रही थी और एक सीट उसकी सहयोगी भाकपा ने जीती थी। लेकिन माकपा की जीत के इन आंकड़ों के पीछे ही उसकी कमजोरियों भी दिख रही थी।

2013 में कांग्रेस महज 10 सीटें जीतने में सफल रही थी, लेकिन सच्चाई का दूसरा पहलू यह भी है कि उसके 22 उम्मीदवार 1500 से कम वोटों से पराजित हुए थे। माकपा की धुर विरोधी चार आदिवासी पार्टियां भी मैदान में थी। जाहिर है कांग्रेस यदि आदिवासी पार्टियों को साथ लाने में सफल होती, तो नतीजा उल्टा हो सकता था। यह अलग बात है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद उसके छह विधायक पार्टी छोड़कर तृणमूल में शामिल हो गए, जो पिछले साल अगस्त में भाजपा की शरण में आ गए। इस तरह कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस दोनों हाशिये पर आ गए हैं। भाजपा ने माकपा के आदिवासी विरोधी छवि की कमजोरी को पकड़ा और इसे अपनी सबसे बड़ी ताकत बना ली।

आदिवासियों के अंतिम राजा का 71 साल बाद पहली बार पूरे त्रिपुरा में जन्मदिन मनाना हो या फिर अगरतला हवाईअड्डे का नाम अंतिम राजा के नाम पर करने की। आदिवासियों से जुड़े मुद्दे उठाकर भाजपा उनके बीच पैठ बनाने में सफल रही।

हालात यह हो गया है कि आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग करने वाली आइपीएफटी को अपनी मांग छोड़कर भाजपा के साथ गठबंधन करने की घोषणा करनी पड़ी। इसी तरह तीन अन्य छोटे-छोटे आदिवासी दलों से भी गठबंधन की बातचीत अंतिम दौर में है। त्रिपुरा में 20 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, जबकि 20 अन्य सीटों पर उसके वोट निर्णायक साबित होते हैं।

राज्य में गरीबी और बेरोजगारी को लेकर माकपा के मुखर विरोधी युवा वर्ग को भी भाजपा अपने खेमे में जोड़ रही है। इसी तरह अभी तक चौथे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन पाने वाले सरकारी कर्मचारियों से भाजपा ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया है। 25 लाख मतदाता वाले त्रिपुरा में सरकारी कर्मचारियों और पेंशनधारियों की संख्या 2.5 लाख है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भाजपा के लिए यहां तुरुप का इक्का साबित हो सकते हैं। त्रिपुरा की आबादी का एक तिहाई नाथ संप्रदाय से जुड़ी है। देखना यह है कि तमाम समीकरणों को अपने पक्ष में करती दिख रही भाजपा वामपंथ की धरती पर कमल खिलाने में कामयाब हो पाती है या नहीं। यह उसके लिए इन चुनावों में सबसे बड़ी परीक्षा है।

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