Congress Crisis: देश विरोध की भावना भड़काने का प्रयास, कांग्रेस की कमजोरी से मजबूत होती भाजपा
राहुल गांधी ने लंदन जाकर फिर वही सब कहा है जिसे वह निरंतर कहते आ रहे हैं। कभी किसी रैली में कभी कांग्रेस के आंतरिक कार्यक्रम में तो कभी दुनिया के चुनिंदा अर्थशास्त्रियों के साथ तथाकथित साक्षात्कार में लेकिन इस बार वह इन सबसे कई कदम आगे बढ़ गए।
हर्ष वर्धन त्रिपाठी। राहुल गांधी देश को विभाजित करने वाली भावनाएं भड़काने और आग लगाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं और इसमें क्यों बारंबार असफल हो रहे हैं, इसे समझने के लिए पुराने संदर्भो को समझना होगा। दरअसल, कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद की कुर्सी पर औपचारिक तौर पर अभी तक कोई बैठ नहीं सका है। भले ही सोनिया गांधी ने यह कहा हो कि वही अध्यक्ष हैं और सच भी यही है कि कांग्रेस पार्टी की पूरी गतिविधियों को सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही अंजाम दे रहे हैं। ये दोनों जहां चाहते हैं, वहां प्रियंका गांधी वाड्रा की भी मदद लेते रहते हैं। यही सच है और सार्वजनिक भी है, लेकिन यह सब छिपा रहस्य भी है। छिपा रहस्य इसलिए कि हर कोई जानता है कि राहुल गांधी की औपचारिक तौर पर अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के लिए ही सारी रणनीति बनाई-बिगाड़ी जा रही है, लेकिन इन सबके बीच कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर बिना कुर्सी पर बैठे कांग्रेस की अध्यक्षता कर रहे राहुल गांधी क्या कर रहे हैं, इस पर देश में चर्चा अति आवश्यक है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री चुने गए। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 2014 के चुनावों की तुलना में वर्ष 2019 में लोकसभा की 21 अधिक सीटों पर सफलता मिली। देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी के 303 सदस्य लोकसभा में भेज दिए। पिछले तीन दशकों में गठबंधन की राजनीति के दौर में ऐसा पहली बार हुआ जब वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिली थीं। यानी वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब देश की जनता ने किसी एक राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत दिया।
भाजपा अध्यक्ष में निरंतर परिवर्तन : यहां यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने और फिर 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के दौरान भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष भी बदला। वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने राजनाथ सिंह के नेतृत्व में लड़ा। उससे एक वर्ष पहले ही नितिन गडकरी 2010-13 तक तीन वर्षो के लिए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे थे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष से मोदी सरकार में गृह मंत्री बने और अध्यक्ष पद अमित शाह ने संभाला। वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने लड़ा और 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद लंबे समय तक यह कयास लगता रहा कि अब अमित शाह अध्यक्ष रहेंगे या सरकार में जाएंगे। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि भारतीय जनता पार्टी में लगातार दो कार्यकाल से अधिक अध्यक्ष की कुर्सी किसी एक नेता के हवाले करने का अपवाद ही रहा है।
अमित शाह वर्ष 2014-17 और 2017-20, दो कार्यकाल भाजपा अध्यक्ष के तौर पर पूरा कर चुके थे और वह भी अपवाद नहीं साबित हुए। भारतीय जनता पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा के तौर पर अपना नया अध्यक्ष चुना लिया। अमित शाह केंद्र सरकार में गृह मंत्री हैं। सवालों के घेरे में कांग्रेस की कार्यशैली : अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का प्रभाव देखिए। वर्ष 2014 के चुनाव में सोनिया गांधी की अगुआई में कांग्रेस पार्टी को केवल 44 सीटें मिलीं और वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव जब राहुल गांधी की अगुआई में लड़ा गया तो कांग्रेस को 52 सीटें मिलीं यानी राहुल गांधी की अगुआई में आठ अधिक सांसद कांग्रेस के लोकसभा में पहुंच गए। इसके बावजूद यह संख्या इतनी छोटी थी कि राहुल गांधी लोकसभा में नेता सदन बनने का साहस नहीं जुटा पाए। राहुल गांधी के संदर्भ में यह केवल कम संख्या का मसला नहीं है।
दरअसल, सार्वजनिक तौर पर यह तथ्य सबको पता है कि राहुल गांधी लगातार संसद सत्रों में उपस्थिति दर्ज नहीं करा सकते हैं, यही वजह है कि विपक्ष के नेता के तौर पर सदन में उन्होंने स्वयं को नहीं चुना। गांधियों के संबंध में स्वयं को नहीं चुना, यही अंतिम सत्य है। इसी ‘स्वयं को नहीं चुना और चुन लिया’, के बीच कांग्रेस पार्टी 2014 से 2019 बुरी तरह लटकती रही है। वर्ष 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए कहा था, ‘मैं भी नहीं और दूसरा गांधी भी नहीं।’ इससे पहली नजर में लगा कि राहुल समझ गए हैं कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर बुरी तरह असफल होने के बाद अब उन्हें अध्यक्ष पद का मोह छोड़ना ही होगा, लेकिन जब उन्होंने ‘मैं भी नहीं और कोई गांधी नहीं’ की शर्त जोड़ दी तो समझ आया कि प्रियंका को किसी भी सूरत में सोनिया और राहुल अध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं हैं। शायद यही वजह रही होगी कि दादी की नाक और इंदिरा गांधी से दूसरी कई समानताएं खोजकर लाने वाली हर कोशिश के बावजूद प्रियंका को सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद नहीं सौंपा। पुत्रमोह का यह एक और सामान्य उदाहरण है। अब नए-पुराने सभी नेताओं को थका देने के बाद सोनिया गांधी ने फिर से कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी ही ‘सदा सर्वदा योग्य हैं’, की धारणा को मजबूती से पुनस्र्थापित कर दिया है।
अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी मिलकर निजी संपत्ति की तरह चल रही कांग्रेस पार्टी के कर्मचारियों का मनोबल तोड़कर कांग्रेस कंपनी का सीईओ अपनी मनमर्जी का बनाने का दबाव बना सकते हैं, लेकिन देश की जनता किसी पार्टी की जागीर तो है नहीं और न ही किसी भी पार्टी की कर्मचारी। भारत के नागरिक, भारतवर्ष की समृद्ध, जीवंत लोकतांत्रिक परंपरा से पुष्पित, पल्लवित हैं, इसीलिए समय-समय पर निजी कंपनी के भाव वाले नेताओं को लोकतांत्रिक तौर पर दुरुस्त करते रहते हैं। जनता के इस दुरुस्तीकरण से कोई भी पार्टी बची नहीं है। किसी भी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत न देना ही दरअसल जनता की तरफ से किए जा रहे लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण अभियान की शुरुआत थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी गठबंधनों की सरकार बनाती मस्त रही और कांग्रेस को निजी कंपनी की तरह ही चलाती रही। दूसरी ओर गठबंधन के जरिये ही सत्ता में आई अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी जनता के लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण अभियान को समझते हुए जनता का भरोसा जीतने के लिए हर संभव बदलाव पार्टी में कर रही थी।
कुल मिलाकर राहुल गांधी एक नेता के तौर पर असफल हो चुके हैं। कांग्रेस पार्टी लगभग गर्त में है। निजी कंपनी के तौर पर काम कर रही कांग्रेस पार्टी के कर्मचारियों का मनोबल बुरी तरह टूटा हुआ है। समर्थ कांग्रेसी अब भाजपाई बन चुके हैं या किसी क्षेत्रीय दल तक में जाने से परहेज नहीं कर रहे हैं। नेता, नीति और कार्यक्रम से कांग्रेस पार्टी में जान फूंकने की सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कोई भी रणनीति जनता में भरोसा नहीं पैदा कर पा रही है। इसीलिए अब राहुल गांधी आत्मघाती मुद्रा में हैं। विश्व मंचों पर देश की बदनामी करके भारतीयों का आत्मविश्वास कमजोर करना चाहते हैं। कांग्रेस से ही निकले क्षेत्रीय दलों का साथ राहुल गांधी को इसलिए मिल रहा है, क्योंकि क्षत्रपों को लगता है कि जिस तरह से भारतवर्ष एक साथ खड़ा हो रहा है, राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर प्रतिक्रिया दे रहा है, उनका स्थान कम होता जाएगा, लेकिन राहुल गांधी और क्षत्रप एक बार फिर बुरी तरह असफल होते दिख रहे हैं।
केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी के निरंतर हो रहे पराभव के बीच यदि आज से लगभग डेढ़ दशक पीछे जाएं तो नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जनता का भरोसा पूरी तरह जीतकर स्वयं को एक सशक्त नेता के तौर पर स्थापित कर चुके थे। सच यही था कि वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया शाइनिंग’ जैसे अभियान समय से पहले का नारा बन गए और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में शानदार निर्णय लेने वाली सरकार हार गई, लेकिन यहां यह तथ्य भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारतीय जनता पार्टी को 138 और कांग्रेस 145 ही सीटें मिलीं थीं। दोनों दलों के बीच केवल सात लोकसभा सीटों का अंतर था।
गठबंधन की सरकार फिर से कांग्रेस को मिल गई और कांग्रेस सत्ता का तंत्र चलाने की उस्ताद थी, इसलिए उसने सरकार बना ली और उसे अहसास ही नहीं रहा कि कांग्रेस पर जनता का भरोसा लगातार गिरता जा रहा है। वर्ष 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के मोह ने कांग्रेस को फिर से सत्ता में ला दिया और कमाल की बात यह थी कि फिर से कांग्रेस को सत्ता गठबंधन से ही मिल सकी। वर्ष 2012 के बाद नरेन्द्र मोदी ने गांधीनगर से दिल्ली की मजबूत दावेदारी पेश करना शुरू कर दिया था। लंबे समय से असमंजस में पड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी उस समय तक यह लग गया था कि भाजपा का नेतृत्व कमजोर हो जाने के अलावा और कोई वजह नहीं है कि कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आए।
देश में राष्ट्रीय विमर्श की मजबूती पिछली सदी के अंतिम दशक में सशक्त रूप में दिखने लगी थी। इसके बावजूद 10 वर्षो तक कांग्रेस का गठजोड़ के जरिये सत्ता में आ जाना सबको चौंका रहा था। संघ और भाजपा की हिचक टूटी तो देश ने पूर्ण बहुमत की सरकार वर्ष 2014 में और फिर उससे भी प्रचंड बहुमत की भाजपा की सरकार वर्ष 2019 में बना दी। बीते कई दशकों की विश्व की सबसे बड़ी त्रसदी कोविड हो या चीन की भारतीय सीमा में कब्जे की कोशिश, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने प्रमाणित किया कि समर्थ, सशक्त भारत का स्व जाग्रत हो चुका है।
इसमें संदेह नहीं कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में विश्व मंचों पर भारत की प्रामाणिकता बढ़ी है। विश्व की हर समस्या के समाधान में भारत अग्रणी भूमिका में है। आतंकवाद से लेकर पर्यावरण की चुनौती से निपटने में हर देश भारत को आशा भरी नजरों से देख रहा है। दुनिया की आर्थिक अव्यवस्था को व्यवस्थित करने का जिम्मा भी भारत के कंधों पर है। विश्व अर्थव्यवस्था की कमियों को दूर कर उसे सुधारने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की तरफ हर कोई टकटकी लगाकर देख रहा है। स्व जाग्रत होने की वजह से भारतीय नागरिकों को भारत के संदर्भ में हुआ यह सुखद परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिख रहा है।
[वरिष्ठ पत्रकार]