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Ayodhya Case: मालिकाना हक पर मुस्लिम पक्ष की दलील, निर्मोही अखाड़ा सेवादार है मालिक नहीं

कानून की निगाह में ट्रस्टी और सेवादार में अंतर है। सेवादार मालिक नहीं होता। निर्मोही अखाड़ा सिर्फ सेवादार है वह मालिक नहीं है।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Wed, 11 Sep 2019 10:48 PM (IST)Updated: Wed, 11 Sep 2019 10:48 PM (IST)
Ayodhya Case: मालिकाना हक पर मुस्लिम पक्ष की दलील, निर्मोही अखाड़ा सेवादार है मालिक नहीं
Ayodhya Case: मालिकाना हक पर मुस्लिम पक्ष की दलील, निर्मोही अखाड़ा सेवादार है मालिक नहीं

माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या राम जन्मभूमि पर मालिकाना हक के मुकदमें में बुधवार को मुस्लिम पक्ष ने दलील दी कि जन्मस्थान पर मूर्ति रखकर दावा जरूर किया जा रहा है, लेकिन कानूनी रूप से वहां हक मुस्लिम पक्ष का है। मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने कहा कि हिंदू पक्ष को साबित करना होगा कि 22-23 दिसंबर 1949 (जब अंदर मूर्तियां रखी गईं थी) के पहले उनका वहां क्या अधिकार था।

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निर्मोही अखाड़ा बाहर राम चबूतरे पर पूजा किया करता था उसने कभी अंदर अधिकार का दावा नहीं किया था। 22-23 दिसंबर की रात हुई गलती के कारण वे अंदर अधिकार का दावा कर रहे हैें। मुस्लिम पक्ष की बहस गुरुवार को भी जारी रहेगी।

राजीव धवन ने निर्मोही अखाड़ा के मुकदमें की कानूनी कमजोरियां उजागर करते हुए कोर्ट से कहा कि उनका मुकदमा स्वीकार करने लायक नहीं है। हिंदुओं के दावे का विरोध करते हुए धवन ने कानून की निगाह में एक बार हुई गलती के लगातार जारी रहने और उस लगातार जारी गलती से अधिकार सृजित होने की अवधारणा का विरोध करते हुए कोर्ट के समक्ष पूर्व के विभिन्न फैसले रखे।

वास्तविक कब्जे और कानूनी कब्जे में अंतर है

राजीव धवन ने कहा कि वास्तविक कब्जे और कानूनी कब्जे में बड़ा अंतर है। कानून की निगाह में अगर कोई गलती (दुष्कृति) होती है तो उससे जो हानि होती है उसका हर्जाना मिलता है। उन्होंने कहा कि मौजूदा मामला वास्तविक कब्जे का है। 22-23 दिसंबर 1949 की रात एक दुष्कृति हुई। इसके बाद 5 जनवरी 1950 का मजिस्ट्रेट का आदेश है (मजिस्ट्रेट ने वहां यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था)।

मजिस्ट्रेट के आदेश से दुष्कृति कानून में हर्जाना मिलने का अधिकार खत्म हो गया। इन दलीलों पर जस्टिस एसए बोबडे ने कहा कि आपका कहना है कि कोर्ट को दुष्कृति के कानून पर विचार करना चाहिए न कि प्रभावित पार्टी को पहुंची पीड़ा पर।

साबित करना पड़ेगा कि 22-23 दिसंबर 1949 से पहले इनका क्या अधिकार था

धवन ने कहा कि मौजूदा मामले में 22-23 दिसंबर 1949 को एक गलती हुई। जो कि 5 जनवरी 1950 को मजिस्ट्रेट का आदेश होने के बाद भी लगातार चलती रही और उसके आधार पर अधिकार सृजित होने लगे। ऐसा नहीं हो सकता। इसके आधार पर अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता। उसे आधार बनाकर मजिस्ट्रेट से यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें उस जगह का अधिकार दे दिया जाए। उन्हें पहले साबित करना होगा कि 22-23 दिसंबर की रात से पहले इनका क्या अधिकार था।

मजिस्ट्रेट सिर्फ कानून के प्रति कर्तव्य निर्वहन करता है

इन दलीलों पर जस्टिस अशोक भूषण ने कहा कि हिंदू शुरू से उस जगह के उपयोग (पूजा) का दावा करते रहे हैं। धवन ने आगे बहस जारी रखते हुए कहा कि मजिस्ट्रेट को गलती जारी रखने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। मजिस्ट्रेट पर मुकदमा नहीं हो सकता। मजिस्ट्रेट सिर्फ कानून के प्रति कर्तव्य निर्वहन करता है। इसलिए इसे लगातार जारी रहने वाली गलती नहीं कहा जाएगा और इस आधार पर उनका मुकदमा समय बाधित नहीं माना जाएगा।

ट्रस्टी और सेवादार में अंतर है

धवन ने कहा कि कानून की निगाह में ट्रस्टी और सेवादार में अंतर है। सेवादार मालिक नहीं होता। निर्मोही अखाड़ा सिर्फ सेवादार है वह मालिक नहीं है। इसलिए उसकी अपील में अन्य चीजों पर जताया गया हक सही नहीं है अन्य चीजें उसकी नहीं मानी जाएंगी। निर्मोही बाहर राम चबूतरे पर पूजा करते थे उन्होंने अंदर कभी हक नहीं जताया सिर्फ 22-23 दिसंबर की रात की घटना के बाद से वह अंदर दावा कर रहे हैं।


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