सख्त कानून बनने तक जारी रहेगा मुफ्त और लुभावने वादों का खेल, चुनाव आयोग के हाथ हैं बंधे
चुनावों में राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त वस्तुएं या सेवाएं देने के वादे भले ही चुनावी निष्पक्षता की जड़ें हिला रहे हैं लेकिन इन्हें रोकने में चुनाव आयोग के हाथ बंधे हैं।
अरविंद पांडेय, नई दिल्ली। चुनावों में राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त वस्तुएं या सेवाएं देने के वादे भले ही चुनावी निष्पक्षता की जड़ें हिला रहे हैं, लेकिन इन्हें रोकने में चुनाव आयोग के हाथ बंधे हैं। फिलहाल घोषणा पत्र से जुड़ी कुछ जानकारियों को मांगने के अलावा उसके पास इन पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। यही वजह है कि चुनावों की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त में चीजें या सेवाएं देने के वादों की झड़ी लगा दी जाती है। पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है, जिनमें मुफ्त स्कूटर, मोबाइल फोन से लेकर नकदी तक देने के वादे किए गए हैं। जानकारों का कहना है कि सख्त कानून बनने तक इस तरह के वादों का खेल जारी रहेगा।
चुनाव आयोग के पास फिलहाल इन पर अंकुश लगाने का अधिकार नहीं
मतदाताओं को लुभाने के इस खेल में कोई एक नहीं, बल्कि कमोबेश सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। यह खेल भी कोई नया नहीं है। राजनीतिक दल लंबे समय से इसे आजमा रहे हैं। इसकी गूंज पहली बार तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में सुनवाई दी थी जब एक राजनीतिक दल ने मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त में कलर टीवी और साड़ी आदि देने का वादा किया था। बाद में यह पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां कोर्ट ने भी माना कि इस तरह के वादे चुनावों की निष्पक्षता को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन लोक प्रतिनिधित्व कानून के तहत घोषणा पत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी शुचिता बरकरार रखने के लिए चुनाव आयोग से कहा था कि वह राजनीतिक दलों से यह पूछ सकता है कि घोषणा पत्र में किए गए वादों को वे कैसे पूरा करेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सिर्फ घोषणा पत्र से जुड़ी जानकारी मांगने का हक
मतदाताओं को मुफ्त चीजों का लालच देकर वोट हथियाने के खेल में राजनीतिक दल कितने लिप्त हैं इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जुलाई, 2013 के इस आदेश के अमल के लिए चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों की जो बैठक बुलाई उसमें अधिकांश राजनीतिक दलों ने ऐसे कदमों का कड़ा विरोध किया। बावजूद इसके चुनाव आयोग ने वर्ष 2015 में राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे घोषणा पत्र में किए गए वादों का स्त्रोत्र बताएं।
आयोग ने इस पर निगरानी रखने के लिए उप-निर्वाचन आयुक्त की अगुआई में एक कमेटी भी गठित कर रखी है जो राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में ऐसे मुफ्त और लुभावने वादों को चिह्नित करते हैं और उसका स्त्रोत पूछते हैं। हालांकि यह आयोग की एक औपचारिकता भर है और राजनीतिक दल इससे वाकिफ भी है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत के मुताबिक, चुनावों में मुफ्त वादों के इस खेल को यदि रोकना है तो इसके लिए सख्त कानून बनाया जाना चाहिए। राजनीतिक दल इस तरह के कदमों पर कितने तैयार होंगे, यह अलग बात है।