राजनीति के एक बार फिर चाणक्य साबित हुए शाह
देश में भारतीय जनता पार्टी की बंपर जीत में अमित शाह का बड़ा योगदान है। उन्होंने फिर से साबित कर दिया है कि वह भारतीय राजनीति के चाणक्य हैं।
प्रशांत मिश्र। भाजपा के चाणक्य अमित शाह को समझना है तो एक दो प्रसंग जानना जरूरी हैं- शिवसेना के साथ पिछले दो ढाई वर्षों से तनातनी थी, हर क्षण महसूस होता था कि वर्षों पुराना यह दोस्त दुश्मन से भी ज्यादा कड़वा है। इसी बीच लोकसभा चुनाव की आहट शुरू हुई, शाह ने ट्वीट कर जानकारी दी कि वह मुंबई जा रहे हैं और वहां शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात करेंगे। पार्टी में लोग अचरज में थे कि आखिर एकबारगी यह कार्यक्रम बना कैसे। महाराष्ट्र इकाई में हड़कंप था क्योंकि उन्हें कोई अता-पता नहीं था कि क्या इस बाबत शाह और ठाकरे की कोई बातचीत हुई भी है या नहीं। बहरहाल, शाह मुंबई पहुंचे, ठाकरे के घर गए और एक डेढ़ घंटे में ही यह तय हो गया कि दोनों दोस्त एक दूसरे का हाथ थामकर ही मैदान मे उतरेंगे। नतीजा आज सामने है।
इस जोड़ी ने फिर से महाराष्ट्र फतह कर लिया। यह नमूना था कि शाह अगर सफल हैं तो यह उनकी क्षमता है कि वह रिस्क भी लेने से नहीं घबराते और तत्काल फैसला लेने की योग्यता भी रखते हैं। एक और प्रसंग देखिए- पूरे देश में सदस्यता अभियान की तेज शुरुआत होती है। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा सदस्यों की संख्या चार गुना हो जाती है तो वहां के मुख्यमंत्री और राजग सहयोगी चंद्रबाबू नायडू परोक्ष रूप से शाह के सामने यह सवाल उठाते हैं। जाहिर है कि वह भाजपा की बढ़ती ताकत से परेशान हैं। शाह बेबाकी से यह बताने से नहीं चूकते कि भाजपा अलग दल है और वह अपनी शक्ति बढ़ाएगा। दोस्ती और सहयोग अलग है और पार्टी का विस्तार अलग।
पार्टी अध्यक्ष के तौर पर शाह के लगभग पांच साल पूरे हो गए हैं और इन वर्षों में ऐसे प्रसंग सैकड़ों की संख्या में होंगे। दरअसल, यही गुण हैं जो उन्हें वर्तमान राजनीति का अजेय चाणक्य बनाते हैं। यह भी जानना जरूरी है कि शाह ऐसे बिरले नेताओं में शुमार हैं जिनके ड्राइंग रूम में चाणक्य की फोटो मिलेगी। वह खुद बचपन से शतरंज के शौकीन रहे हैं और गुजरात में रहते हुए यह प्रयास भी करते रहे कि बच्चों को शतरंज जरूर सिखाया जाए ताकि वह जीवन की कला भी सीख सकें। शायद उन्होंने इसे इतना आत्मसात कर लिया है कि अब वह खुद के लिए कठिन लक्ष्य तय करते हैं और फिर उन्हें तोड़ते हैं। उनका मुकाबला खुद से होता है। वरना कोई कारण नहीं था कि 2014 में 282 सीटों के भारी भरकम लक्ष्य को भेदकर वह 300 पार का लक्ष्य तय करते और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चमत्कारिक व्यक्तित्व और कौशल के जरिये उसे भी पूरा कर देते।
दरअसल, शाह कुछ ऐसे गिने-चुने लोगों मे शुमार हैं जो व्यक्ति को भी पहचानते हैं और अवसर को भी। वह मानते हैं कि नए प्रतीक गढ़े जा सकते हैं। गांधी परिवार से अमेठी का छिनना, गुना में सिंधिया परिवार का हारना, भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की विवादित छवि के सामने प्रखर्र हिंदुत्व की प्रतीक प्रज्ञा ठाकुर को उतारकर जिताना आदि भाजपा के लिए संभव हुआ है तो उसके पीछे शाह की दूरदृष्टि ही है। आज आजमगढ़ से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने निरहुआ भले ही हार गए हों, लेकिन उन्हें केवल इसलिए उम्मीदवार नहीं बनाया गया था कि वह लोकप्रिय भोजपुरी गायक हैं। एक-डेढ़ साल तक अलग-अलग स्थानों पर पहले उनकी परख हुई और फिर मैदान में उतारा गया। सार यह है कि शाह कामचलाऊ प्रवृत्ति में विश्वास नहीं करते। हर फैसले के पीछे कड़ी मशक्कत और रणनीति होती है। आज अक्सर मोदी-शाह की जोड़ी का जिक्र होता है तो इसके पीछे भी कारण हैं। दोनों प्रखर्र हिंदुत्व के प्रतीक हैं और कर्मयोगी भी। दोनों की आपसी समझ और सामंजस्य इतनी सटीक है कि आंखों- आखों में बातें हो सकती हैं। दोनों ऐसे कर्मयोगी हैं जो न सिर्फ अपने मैदान में 24 घंटे डटे होते हैं बल्कि टीम का चुनाव भी उसी मापदंड पर करते हैं। उनकी टीम के सदस्यों को भी उसी कड़े मापदंड पर खरा उतरना होता है।
शाह की टीम के अहम सदस्य और महासचिव भूपेंद्र यादव के अनुसार, ‘अमित शाह जी का जीवन एक संगठनसेवी कर्मठ पार्टी कार्यकर्ता का है। अहमदाबाद के एक बूथ प्रभारी के रूप में संगठन कार्य करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष तक का सफर तय किया है। उनके नेतृत्व में भाजपा के सांगठनिक विस्तार को एक नया आयाम मिला है। अध्यक्ष के रूप में उनकी कार्यपद्धति किसी भी कार्यकर्ता के लिए अनुकरणीय है।’ यह बयान एक पार्टी कार्यकर्ता का है लेकिन सच्चाई यह है कि शाह से मिलने वाला गैर-राजनीतिक व्यक्ति भी इसे महसूस कर सकता है।
लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप