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राफेल सौदे को लेकर लगे सभी आरोप बेबुनियाद, रिलायंस डिफेंस का दावा

डसो के साथ हुए समझौते में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स के स्थान पर रिलायंस को वरीयता मिलने के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं है।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sat, 11 Aug 2018 09:11 PM (IST)Updated: Sun, 12 Aug 2018 12:20 AM (IST)
राफेल सौदे को लेकर लगे सभी आरोप बेबुनियाद, रिलायंस डिफेंस का दावा
राफेल सौदे को लेकर लगे सभी आरोप बेबुनियाद, रिलायंस डिफेंस का दावा

नई दिल्ली, राष्ट्रीय ब्यूरो। राफेल डील को लेकर अनिल अंबानी समूह की कंपनी रिलायंस डिफेंस पर लगातार सरकार से लाभ पाने के आरोप लग रहे हैं। लेकिन रिलायंस डिफेंस ने इन सभी आरोपों को बेबुनियाद ठहराया है। कंपनी के सीईओ राजेश धींगरा ने राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख नितिन प्रधान के साथ हुई बातचीत में कहा कि इस सौदे में कंपनी का नाम बेवजह घसीटा जा रहा है। धींगरा ने कहा कि डसो के साथ हुए समझौते में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स के स्थान पर रिलायंस को वरीयता मिलने के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं है।

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पेश है बातचीत के प्रमुख अंश :-

रिलायंस को रक्षा मंत्रालय से 30000 करोड़ रुपये के सौदे का लाभ पहुंचाने का आरोप लग रहा है। कहा जा रहा है कि इसमें हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को दरकिनार किया गया। आपका क्या कहना है?

-रिलायंस डिफेंस या रिलायंस समूह की किसी भी कंपनी को 36 राफेल विमानों के संबंध में अभी तक रक्षा मंत्रालय से किसी तरह का कांट्रैक्ट नहीं मिला है। यह आरोप एकदम बेबुनियाद है। जहां तक एचएएल के मुकाबले हमें लाभ मिलने की बात है तो यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि जब 126 राफेल विमानों का सौदा हुआ था तब उसमें एचएएल को प्रोडक्शन एजेंसी के तौर पर मनोनीत किया गया था। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि उस सौदे में 108 जहाज भारत में ही बनने थे। लेकिन यह सौदा कभी परवान ही नहीं चढ़ पाया। जहां तक 36 राफेल विमानों की डील का सवाल है यह दो सरकारों के बीच का सौदा है। इसमें सभी विमान फ्रांस की डसो एविएशन भारत को निर्यात करेगी। चूंकि इस सौदे में भारत में विमान का निर्माण होना ही नहीं है लिहाजा किसी को प्रोडक्शन एजेंसी नियुक्त करने का भी सवाल नहीं उठता

यह भी कहा जा रहा है कि अंबानी समूह का सरकार के नजदीकी होने का लाभ आपकी कंपनी को मिल रहा है?

-देखिए कोई भी विदेशी कंपनी किस कंपनी को अपना वेंडर चुनती है इसमें रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है। यह स्थिति देश में 2005 से बनी हुई है। अब तक 50 घरेलू कंपनियों को विदेशी कंपनियां ऑफसेट (निर्यात में भागीदार) के तौर पर चुन चुकी है। हमारे लिए भी यही प्रक्ति्रया अपनायी गई है। दरअसल इस मामले में लोगों को गुमराह किया जा रहा है।

लेकिन रिलायंस को रक्षा क्षेत्र में तो कोई अनुभव नहीं था, बावजूद उसके आपकी कंपनी को चुना गया है?

-पहले तो आप यह समझिए कि हमें डसो ने अपना भागीदार बनाया और रिलायंस एयरोस्पेस के साथ एक संयुक्त उद्यम डसो रिलायंस एयरोस्पेस बनाया गया। इसमें 49 फीसद हिस्सेदारी डसो की है। यह कंपनी डसो के सिविल एयरक्त्राफ्ट फैल्कन के लिए पार्ट्स बनाती है। जैसा कि मैंने आपको बताया देश में 13 साल से आफसेट समझौते हो रहे हैं। पहले भी कभी अनुभव की बात नहीं आयी। टाटा, महिंद्रा जैसी कंपनियों को कांट्रेक्ट मिले। वे भी इस क्षेत्र में नई थीं। तो फिर हमारे लिए ही यह सवाल क्यों? और जहां तक अनुभव का सवाल है हमारी साझेदारी डसो के साथ है। उनके लोग हमारी कंपनी में काम करने आए हैं। डसो को तो इस क्षेत्र का लंबा अनुभव है। फिर यह सवाल उठाने का क्या अर्थ है? साथ ही जब देश में हमें जहाज बनाना ही नहीं है तो इस बात का अनुभव होने न होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। और देश में लड़ाकू विमान बनाने का अनुभव तो एचएएल के अलावा किसी और कंपनी को नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम देश में नई क्षमता विकसित ही नहीं करेंगे और अपनी रक्षा जरूरतों का 70 फीसदी हमेशा आयात ही करते रहेंगे।

रिलायंस पर सरकारी नियमों की अनदेखी का आरोप भी है। क्या डसो और रिलायंस एयरोस्पेस बिना डीआइपीपी और रक्षा मंत्रालय की मंजूरी के देश में रक्षा क्षेत्र संबंधी पार्ट्स बना सकते हैं?

-न तो डीआरएएल को किसी प्रकार की प्राथमिकता मिली है और न ही किसी नियम का उल्लंघन हुआ है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति के तहत ऑटोमैटिक मंजूरी वाले क्षेत्र में कोई भी विदेशी कंपनी तयशुदा सीमा में निवेश कर भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित कर सकती है। डीआइपीपी का प्रेस नोट संख्या 2 में डिफेंस प्रोडक्शन के लिए औद्योगिकी लाइसेंस की बात स्पष्ट रूप से कही गई है। डीआरएएल का जहां तक सवाल है उसे डिफेंस एयरक्त्राफ्ट का निर्माण ही नहीं करना है। इसलिए उसे ऐसे किसी लाइसेंस की आवश्यकता भी नहीं है। साथ ही ऑफसेट का दावा मुख्य वेंडर को करना होता है। इस मामले में यह दायित्व डसो का है। जब डसो यह दावा करेगी तो नियमों के मुताबिक उसे मंजूरी मिलेगी। डीआरएल की इसमें कोई भूमिका नहीं है।

क्या यह सच नहीं है कि राफेल सौदे की घोषणा के वक्त अनिल अंबानी भी पेरिस में थे?

- अनिल अंबानी कई और देशों समेत फ्रांस गए सीईओ फोरम का हिस्सा हैं। वह वहां इसलिए थे क्योंकि प्रधानमंत्री के दौरे के वक्त ही सीईओ फोरम की बैठक भी थी। उस वक्त वहां करीब 25 भारतीय कंपनियों के सीईओ उपस्थित थे। उनमें एचएएल के चेयरमैन भी शामिल हैं।


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