Move to Jagran APP

Russia Ukraine War: एक नए संकट की ओर बढ़ता विश्व, यूरोपीय संघ और यूक्रेन

रूस-यूक्रेन युद्ध को आरंभ हुए चार माह पूरे हो चुके हैं। यह युद्ध केवल रूस और यूक्रेन के बीच नहीं लड़ा जा रहा है बल्कि यह नई विश्व व्यवस्था में नए जियो-पालिटिकल और जियो-इकोनमिक हितों को लेकर लड़ा जा रहा युद्ध है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 30 Jun 2022 11:05 AM (IST)Updated: Thu, 30 Jun 2022 11:08 AM (IST)
Russia Ukraine War: एक नए संकट की ओर बढ़ता विश्व, यूरोपीय संघ और यूक्रेन
रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया है, जिससे दुनिया भर में महंगाई बढ़ रही है। फाइल

डा. रहीस सिंह। रूस-यूक्रेन युद्ध चार माह से जारी है। इतने दिनों में विश्व में क्या परिवर्तन हुआ? इसे कैसे देखा जाए? आगे और क्या हो सकता है, इसके आकलन भी अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति और उनके सलाहकार अपने अलग-अलग वक्तव्यों में यह कहते दिख रहे हैं कि लड़ाई अब ‘फियरफुल क्लाइमेक्स’ (डरावने अंत) में प्रवेश कर गई है। प्रश्न यह है कि यह डरावना अंत किसके संदर्भ में है- रूस अथवा यूक्रेन या फिर पूरे विश्व के संदर्भ में? सामान्यतया तो यह विषय यूक्रेन या रूस तक ही सीमित है, परंतु सही अर्थो में इसकी परिधियां बहुत व्यापक हैं। एक प्रश्न यह भी है कि यदि यूक्रेन हारता है, तो यह हार केवल यूक्रेन की होगी अथवा यूरोप और अमेरिका की भी? यही बात जीत के विषय में पूछी जा सकती है कि यह अकेले रूस की होगी या फिर चीन की भी। यदि चीन की भी हुई तो फिर इसका इंडो-पेसिफिक की भू-राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

loksabha election banner

दरअसल इस नई विश्व व्यवस्था के अगुआ लोगों ने यह सवाल कभी नहीं उठाया कि शीतयुद्ध के समाप्त हो जाने के बाद भी ‘नाटो’ क्यों बना हुआ है? यह सवाल भी नहीं उठाया कि अमेरिका में हुई 9/11 की आतंकी घटना के बाद अफगानिस्तान पर हमला हुआ, परंतु पाकिस्तान पर क्यों नहीं? एशिया से लेकर अफ्रीका व लातिन अमेरिका के भू-राजनीतिक खंडों पर ऐसी बहुत सी कथाओं के उदाहरण मिलेंगे, जिनमें विध्वंस के विशेष अभिप्राय शामिल होंगे। लेकिन विश्व व्यवस्था के नायकों ने इनकी परवाह नहीं की, जिसका परिणाम नए समूहों के उदय के रूप में देखने को मिला। ये नए समूह एक्सक्लूसिव समूह के रूप में सामने आए जो बड़े समूहों के मुकाबले कहीं अधिक रणनीतिक और एकजुट हैं। यह भी कहा जा सकता है कि दुनिया फिर से एकध्रुवीयता से बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ी। लेकिन बड़ी शक्तियों को यह स्वीकार्य नहीं है कि बहुध्रुवीयता अपने वास्तविक रूप में आए। अब इन्हें दो प्रकार से खत्म किया जा सकता था। इनमें प्रवेश लेकर और ऐसी परिस्थितियों को जन्म देकर जिनमें ये नए खतरे को महसूस करें और फिर से वाशिंगटन, मास्को या बीजिंग की ओर देखने लगें। यूक्रेन युद्ध इसी रणनीति का एक छोर है।

दरअसल यूक्रेन युद्ध एक तरह का शक्ति परीक्षण है। इसमें जहां रूस एक शक्ति बनने का प्रयास कर रहा है, वहीं अमेरिका वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी अभिलाषाओं को जिंदा रखने की कोशिश में है। यह नया नहीं है। गौर से देखें तो दुनिया करीब एक दशक से अधिक समय से शक्ति संतुलन के लिए एक छद्म युद्ध के दौर से गुजर रही थी। इसमें एक तरफ अमेरिका था और दूसरी तरफ चीन। इसने रूस को लगातार इस बात के लिए जागरूक किया कि वैश्विक शक्ति समीकरण में वह तो कहीं गायब होता जा रहा है। इसलिए पुतिन ने सीरिया में अमेरिका के खिलाफ मोर्चा लिया और विजयी रहे। उन्होंने यूक्रेन से क्रीमिया लेकर न केवल सेवास्तेपोल को सुरक्षित किया, बल्कि काला सागर में शक्ति संतुलन को रूस के पक्ष में किया जिसकी खास रणनीतिक उपादेयता है।

क्रीमिया और सीरिया में मिली सफलता के बाद पुतिन में पूर्वी यूरोप, दक्षिणी काकेशस और यूरेशिया तक रूसी नियंत्रण के विस्तार की महत्वाकांक्षा पनपने लगी। लेकिन यह तभी संभव था जब यूक्रेन रूस के नियंत्रण में आ जाए। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्लादिमीर पुतिन केवल सैन्य युद्ध ही नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि वे रूस के भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक हितों को उत्तर और दक्षिण में विस्तार देने की रणनीति भी अपना रहे हैं। अगर पुतिन की यह रणनीति सफल हो जाती है तो रूस के प्रभाव की परिधियां बैरेंट्स सागर से लेकर आर्कटिक महासागर तक विस्तृत हो जाएंगी, जिसमें पूर्वी यूरोप, दक्षिणी काकेशस, यूरेशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका का हिस्सा भी शामिल होगा। चूंकि पुतिन की इस मुहिम के विरुद्ध अमेरिका और उसके अहम सहयोगी रूस विरोधी खेमे के रूप में एकजुट हो गए, इसलिए बीजिंग-मास्को की बांडिंग और मजबूत हो गई। इससे भले ही तात्कालिक परिणाम केवल यूक्रेन की पराजय या जय तक सीमित दिख रहे हों, लेकिन वास्तव में ड्रैगन और पांडा (रूस की अर्थव्यवस्था को पांडा के रूप में पहचाना जाता है) का संयोग यानी ड्रैगनबियर कहीं अधिक खतरनाक साबित हो सकता है।

पराश्रित मानव पूंजी : आज के इस विश्व में फिलहाल सभी की निगाहें रूस-यूक्रेन युद्ध पर टिकी हुई हैं, लेकिन सही मायने में तो यह समय थोड़ा आगे बढ़कर देखने का है। सबसे अहम पक्ष तो शरणार्थियों के रूप में निर्मित हो रही पराश्रित मानव पूंजी का है जिसके नफा-नुकसान सीधे और सपाट नहीं हैं। इस संवेदनशील और पराश्रित मानवपूंजी में पिछले एक वर्ष में एक बहुत बड़ी संख्या जुड़ चुकी है जिसके लिए युद्ध के साथ-साथ खाद्य संकट, जलवायु सुरक्षा सहित बहुत से आंतरिक कारण जिम्मेदार रहे हैं। इसे लेकर यूएनएचसीआर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान कर रहा है कि सभी एकसाथ मिलकर मानव त्रसदी से निपटने और हिंसक टकरावों को सुलझाने के स्थाई समाधान तलाशें, लेकिन ऐसा तो हो नहीं रहा है। बल्कि विश्व के ये संभ्रांत देश नए टकरावों के लिए स्थितियों का निर्माण कर रहे हैं। ये स्थितियां उत्तरोत्तर विषम ही होंगी, क्योंकि आने वाले समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था नए संकट का सामना करेगी। अर्थशास्त्रियों ने भी अनुमान व्यक्त किया है कि रूस-यूक्रेन युद्ध वैश्विक अर्थव्यवस्था में नकारात्मक हलचल तेज करेगा। इसके कुछ उदाहरण तो अभी ही देखे जा सकते हैं। केन्या की राजधानी नैरोबी में पेट्रोल पंपों पर लंबी कतारें बता रही हैं कि इनका असर कहीं और पड़ने वाला है।

दरअसल तेल की निरंतर घटती आपूर्ति केवल सामान्य जनजीवन में परिवहन सुविधाओं को ही सहज नहीं बनाती है, बल्कि बाजार चक्र को भी प्रभावित करती है। मतलब यह कि तेल की महंगाई और कम आपूर्ति संपूर्ण जीवन पर प्रभाव डालेगी। ऐसी स्थितियां सामाजिक संघर्षो के नए उभारों को जन्म दे सकती हैं। तुर्की जैसे देश रूसी गेहूं की आपूर्ति प्रभावित होने के कारण ब्रेड की मांग से जूझ रहे हैं और इराक जैसी बेदम अर्थव्यवस्थाएं गेहूं के आसमान छूते दामों के कारण धराशायी होने के कगार पर हैं। पेरू की राजधानी लीमा महंगाई के खिलाफ नई चुनौतियों का सामना कर रही है। हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका आर्थिक और राजनीतिक संकटों की चपेट में है और यूरोप व अमेरिका सहित तमाम विकसित देशों में ट्रेड यूनियनों का आक्रामक दौर शुरू होता दिख रहा है। इसके बावजूद लड़ाई कहीं लड़ी जा रही है।

तेल और गैस का संकट : मजेदार बात यह है कि नैतिकता के इस पश्चिमी सहयोग (यूक्रेन को) में सही अर्थो में नैतिक कुछ नहीं है। यूरोपीय संघ कह रहा है कि हम रूस से तेल आयातों पर धीरे-धीरे प्रतिबंध लगाएंगे, लेकिन क्यों? अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियों का क्रियान्यवन नैतिकता की श्रेणी में तो नहीं आएगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे प्राकृतिक गैस के वैकल्पिक स्रोत ढूंढ ही नहीं पा रहे हैं। ऐसा कर भी नहीं सकते, क्योंकि इसकी सप्लाई पाइपलाइन के जरिए होती है। यही वजह है कि प्राकृतिक गैस के बहिष्कार पर चर्चा नहीं हो रही है। जर्मनी तर्क दे रहा है कि तत्काल गैस की आपूर्ति रुक जाने से नौकरियां चली जाएंगी। ध्यान रहे कि उसका उद्योग संघ कांच और धातु से जुड़े कारोबार बंद होने की चेतावनी दे रहा है, जबकि अर्थशास्त्री तो प्राकृतिक गैस और तेल के आयातों पर पूर्ण पाबंदी से यूरोप में मंदी आने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। चूंकि तेल एक वैश्विक उत्पाद है, इसलिए तेल की कीमतें हर किसी के लिए बढ़ेंगी जिसका मतलब होगा कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था का चक्र धीमा पड़ जाएगा। इसका असर कोविड महामारी से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। जो भी हो यूरोपीय संघ का रूसी तेल पर धीरे-धीरे प्रतिबंध लगाना एक जोखिम वाला जुआ है।

फिलहाल दुनिया एक नई और जटिल चुनौती का सामना कर रही है, जिसकी अनदेखी काफी भारी पड़ने वाली है। अच्छी बात यह है कि अभी तक भारत इस असर से काफी हद तक बचा हुआ है, लेकिन यदि ऐसा ही चलता रहा तो अर्थव्यवस्था पर इसका असर अवश्य पड़ेगा। इसलिए अमेरिका और यूरोप खुश हो सकते हैं कि वे इस युद्ध में रूस को नुकसान पहुंचाने में सफल रहे, लेकिन इनकी खुशी और पुतिन की खीझ के बीच का जो सच है वह डरावना है।

रूस-यूक्रेन युद्ध में एक विशेष बात यह दिख रही है कि वाशिंगटन पहली बार एक ऐसे शक्ति केंद्र के रूप में उभरा जो नेतृत्व की हैसियत में नहीं दिखा। रही बात यूरोपीय संघ की तो वह अमेरिका के साथ है और रूस के विरुद्ध भी, लेकिन तेल और गैस के मामले में वह नरम दिख रहा है। यह नरमी इसलिए है, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था के कई पहिए कहीं थम जाएं और चलती हुई जिंदगियों की रफ्तार धीमी न पड़ जाए।

एक बात और, यूरोपीय संघ बहुत ही बेसब्री के साथ यूक्रेन को अपने अंदर लाना चाहता है और यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को भी ऐसा लग रहा है कि यूरोपीय संघ में शामिल होते ही यूक्रेन (लेकिन सही अर्थो में जेलेंस्की की) की तकदीर बदल जाएगी। परंतु क्या यह सच है अथवा जेलेंस्की एक ऐसे राष्ट्राध्यक्ष साबित हो रहे हैं जो भू-राजनीतिक वास्तविकताओं की समझ नहीं रखते। बीते गुरुवार को यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए यूक्रेन उम्मीदवार बन गया। इसकी आधिकारिक घोषणा के बाद राष्ट्रपति जेलेंस्की ने ट्विटर पर लिखा कि यूक्रेन का भविष्य यूरोपीय संघ में है। इसी क्रम में यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष चाल्र्स मिशेल ने एक टिप्पणी में इसे एक ऐतिहासिक क्षण बताते हुए कहा, ‘हमारा भविष्य एक साथ है।

’ सवाल यह उठता है कि जो उनके साथ पहले से हैं, वे किस हाल में हैं? अगर वहां सबकुछ बेहतर है तो ‘ब्रेक्जिट’ क्यों हुआ? महामारी के दौरान यूरोपीय एकता क्यों नहीं दिखी। आखिर यूरोप के मजबूत देशों ने कमजोर देशों को बिना किसी सहायता के महामारी से जूझने के लिए क्यों छोड़ दिया था? यूरोपीय काउंसिल को तो यह भी बताना चाहिए कि जब ‘पिग्स’ (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, स्पेन) सहित कई अन्य यूरोपीय देश आर्थिक संकट से गुजर रहे थे, तब यह एकता कितनी काम आई थी।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.