तालिबान का अफगानिस्तान की सत्ता में आश्चर्यजनक वापसी को लेकर रूस के बदलते तेवर
अफगानिस्तान का भू-राजनीतिक इतिहास और तालिबान का अविश्वसनीय होना कुछ ऐसे कारक हैं कि रूस के लिए तालिबान सिंड्रोम से बाहर निकलना असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर दिखता है। माना जा रहा है कि रूस के रुख का भारत को भी इंतजार है।
डा. संदीप कुमार। तालिबान का अफगानिस्तान की सत्ता में आश्चर्यजनक ढंग से वापसी हुई है। यह अपने आप में पश्चिमी देशों की सर्वोच्चतावादी मानसिकता को बड़ा झटका है। पश्चिमी देशों की इस हार ने रूस के लिए चुनौती के साथ-साथ कई संभावनाओं को जन्म दिया है। रूस के लिए सबसे बड़ी चुनौती मध्य एशिया में आतंकवाद के प्रसार को रोकने के साथ तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन से बात करना भी है। खैर, बात अगर संभावनाओं के बारे में हो तो रूस के लिए इस बार तालिबान ने बातचीत का स्पेस बचा रखा है और दुश्मन की तरह व्यवहार करने से बच रहा है। इसका प्रमुख कारण है, रूस और तालिबान आज अमेरिका के खिलाफ साथ खड़े हैं।
अमेरिका ने अफगान समस्या का पिछले 20 वर्षो में सही निवारण नहीं किया। वह दक्षिण एशिया के देशों को नजरअंदाज करने के साथ ईरान और रूस जैसे देशों की भूमिका को भी दरकिनार करता रहा। यह कहीं न कहीं अमेरिका के अफगानिस्तान से वापसी में महत्वपूर्ण कारण बना, जिसकी आलोचना पूरी दुनिया में हो रही है। अमेरिका ने जाने-अनजाने पूरे दक्षिण एशिया के हालात को अस्थिर कर दिया है। जिस तरह से अफगानिस्तान की जेलों से आतंकवादी बाहर आ रहे हैं वे पूरी दुनिया के लिए भविष्य में खतरा बनकर उभरेंगे। दुनिया के देश इस बदली परिस्थिति में अफगानिस्तान संबंधित विदेश नीति का पुन: निर्धारण कर रहे हैं। भारत में भी कुछ लोग सरकार की चुप्पी को निशाना बना रहे हैं। जबकि उन्हें विदेश नीति संबंधित नीतियों में मर्यादा का पालन करना चाहिए।
इस क्षेत्र के अन्य घटनाक्रम को देखें तो चीन और पाकिस्तान ने तालिबान के साथ संबंधों को लेकर जो जल्दबाजी दिखाई है उससे उनकी मंशा स्पष्ट हो रही है। भारत और रूस के लिए यह घटनाक्रम विचलित करनेवाला जरूर है। ये दोनों देश आतंकवाद को लेकर एकमत रहे हैं। बदली परिस्थितियों में भारत की चिंता है कि कहीं कश्मीर में आतंकवाद न बढ़ जाए। वहीं रूस की चुनौती मध्य एशिया के देशों को आतंकवाद की आग से बचाने की है। एक दौर में रूस ने बबराक करमाल के नेतृत्व में अफगानिस्तान में सरकार का गठन किया था। तब अमेरिका-पाकिस्तान-चीन-सऊदी अरब ने रूस और उसके सहयोगियों के खिलाफ लड़ने के लिए तालिबान को हथियार और धन दिए थे। इस बार परिस्थितियां बदल सकती हैं।
रूस तालिबान को मान्यता देने की जल्दबाजी में नहीं है। वह पूरे घटनाक्रम को अपने नजरिये से समझने का प्रयास करने के साथ तालिबान के रुख का भी विश्लेषण कर रहा है। भारत भी कमोबेश अफगान संकट में ऐसी ही नीति का अनुकरण कर रहा है। भारत के लिए तत्काल चिंता अपने लोगों की सकुशल घर वापसी है। भारत के लिए किसी आतंकवादी संगठन द्वारा बनाई गई सरकार को मान्यता देना सहज नहीं है। अत: भारत भी अफगानिस्तान में तालिबान के रुख का विश्लेषण कर रहा है। पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना भारत के लिए अभी एक जटिल प्रकिया है। क्योंकि जब तालिबान पर अफगान लोग ही भरोसा नहीं कर रहे हैं तो दुनिया के देश क्या करेंगे। इस परिपेक्ष्य में भारत के लिए रूस और ईरान के साथ मिलकर अपने हितों को सुरक्षित करने का प्रयास ही एक महत्वपूर्ण विकल्प बचता है।
इसमें कोई संशय नहीं है कि आगे चलकर अफगानिस्तान में रूस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। इसका प्रमुख कारण है रूस का अफगानिस्तान में दस साल के युद्ध का अनुभव। वह अफगानिस्तान के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है। यही एक कारण है, जो तालिबान को रूस के प्रति अपने व्यवहार को बदलने पर मजबूर कर रहा है। तालिबान भले ही सत्ता पर काबिज हो गया है। पर उसे रूस की ताकत से खौफ भी है। वह समझता है कि अगर वह रूस के खिलाफ खड़ा हुआ तो उसे चीन और पाकिस्तान का भी सहयोग मिलना मुश्किल होगा। रूस ने अफगानिस्तान में बने रहने के लिए 15,000 से ज्यादा सैनिकों की कुर्बानी दी थी।
रूस अपने इस कटु अनुभव को ध्यान में रखते हुए पिछले कई महीनों से तालिबान को लेकर अपने सहयोगियों और अफगानिस्तान सरकार के साथ वार्ताओं का दौर जारी रखे हुए था। साथ ही वह तालिबान के बड़े नेताओं के भी संपर्क में था, ताकि अमेरिका की निकासी के बाद अफगानिस्तान में संघर्ष की स्थिति को खत्म किया जा सके। वह भारत और ईरान के साथ मिलकर लगातार इस प्रयास को आगे बढ़ने पर काम कर रहा था। बदले घटनाक्रम के मद्देनजर वह अब इसको तेज करने का प्रयास करेगा। रूस चाहेगा कि उसका दूतावास काबुल में बना रहे और तालिबान से बातचीत की संभावना भी बनी रहे। मालूम हो कि रूस ने अपनी सेनाओं को अफगान संकट में भेजने से साफ इन्कार किया है। साथ ही मध्य एशिया के देशों को अफगान शरणार्थियों को लेने से भी मना किया है। रूस नहीं चाहता है कि शरणार्थी के रूप में आतंकवादी मध्य एशिया के माध्यम से उस तक पहुंचें। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि मध्य एशिया के देशों को वह वीजा संबंधी कई तरह की रियायतें दे रखा है।
अगर पूरे घटनाक्रम और रूस के प्रयासों के परिप्रेक्ष्य में अफगान संकट को देखा जाए तो चुनौती बेशक बड़ी है। पर यहीं से भारत और ईरान जैसे देशों के लिए एक उम्मीद की किरण दिखाई देती है। जहां भारत अपने सामरिक हितों की भी पूíत कर सकता है और अफगान लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतर सकता है। अत: भारत में अफगान संकट को लेकर सरकार की चुप्पी को कमजोरी समझना मूर्खता है। कुछ लोगों द्वारा सरकार से बयान देने की मांग अनुचित है। उन लोगों को यह समझना होगा कि जिस संकट पर अपनी राय रखने के लिए दुनिया के ताकतवर देशों में कोई जल्दबाजी नहीं है तो भारत ही क्यों जल्दबाजी में कदम उठाए।
रूस और दुनिया के अन्य देश भी अमरुल्लाह सालेह और अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद के प्रयासों को देखना चाहते हैं। पंजशीर घाटी में इनके प्रयासों को नार्दर्न अलायंस के पुनरुथान के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि रूस तालिबान के साथ बातचीत की कोशिश कर रहा है। पर इसे यह नहीं समझना चाहिए कि उसने पूरी तरह तालिबान के पक्ष में अपना मन बना लिया है। रूस अफगानिस्तान के संदर्भ में संयम की नीति पर चल रहा है। अफगानिस्तान का भू-राजनीतिक इतिहास और तालिबान का अविश्वसनीय होना कुछ ऐसे कारक हैं कि रूस के लिए तालिबान सिंड्रोम से बाहर निकलना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है।
[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]