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Analysis: मालदीव में काम आई भारत की रणनीति, सोलिह की जीत की राह बनाई आसान

मालदीव के साथ भारत को बेहतर रिश्ते बनाने ही होंगे ताकि सामरिक रूप से अहम इस देश का झुकाव चीन की ओर न बढ़े।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 27 Sep 2018 10:47 AM (IST)Updated: Thu, 27 Sep 2018 10:48 AM (IST)
Analysis: मालदीव में काम आई भारत की रणनीति, सोलिह की जीत की राह बनाई आसान
Analysis: मालदीव में काम आई भारत की रणनीति, सोलिह की जीत की राह बनाई आसान

[अवधेश कुमार]। मालदीव के राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के साझा उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को मिली जीत कई मायनों में अहम है। चुनाव में सोलिह की जीत सुनिश्चित करने के लिए भारत की भूमिका भले ही खुलकर सामने न आई हो, लेकिन बीते दिनों भारत ने रणनीतिक रूप से ऐसे कई कदम उठाए थे, जिससे इस जीत की राह आसान बनती गई। मालदीव के साथ भारत को बेहतर रिश्ते बनाने ही होंगे, ताकि सामरिक रूप से अहम इस देश का झुकाव चीन की ओर न बढ़े।

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पड़ोसी द्वीपीय देश मालदीव सरकार के पिछले पांच वर्षों से भारत विरोधी कदमों को लेकर हालिया चिंता को वहां के चुनाव परिणामों ने कुछ हद तक दूर किया है। चुनाव परिणाम ज्यादातर लोगों के लिए आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता का कारण बने हैं तो इसलिए कि राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की पराजय की कल्पना इन्हें नहीं थी। लगातार भारत सरकार को आगाह किया जा रहा था कि यदि उसने हस्तक्षेप नहीं किया तो इस समुद्री देश पर चीन छा जाएगा। यह आशंका निराधार नहीं थी। किंतु मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह की राष्ट्रपति चुनाव में विजय ने मालदीव की स्थिति को 180 डिग्री पर लाकर खड़ा कर दिया है।

सोलिह तो भारत समर्थक हैं ही, उनको सहयोग करने वाले निर्वासित जीवन जी रहे पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद भी भारत के दोस्त हैं। जीत के बाद सोलिह को सबसे पहले बधाई देकर भारत ने जता दिया है कि उसकी कूटनीति ऊपर से जितनी निष्क्रिय दिख रही थी, उतनी थी नहीं। ऐसा ही श्रीलंका के मामले में भी हुआ था। वहां के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे खुलकर तो भारत विरोध नहीं करते थे, किंतु उनकी नीतियों में ऐसा दिखने लगा था। जब आम चुनाव में उनकी पराजय हुई तो उनकी पार्टी ने भारत पर ही इसका आरोप मढ़ दिया था।

वास्तव में श्रीलंकाई चुनाव परिणामों के कुछ समय बाद ही साफ हो गया था कि भारत ने परिपक्वता दिखाते हुए सतर्कता के साथ वहां भूमिका निभाई थी। भारत सामान्यत: किसी देश की राजनीति में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता, लेकिन कोई दूसरा देश वहां विरोध में सक्रिय हो और शासन प्रतिकूल नीतियां बनाने लगे तो जहां भी संभव है, मान्य अंतरराष्ट्रीय दायरों में भूमिका अपरिहार्य हो जाती है। भारत ने मालदीव में भी श्रीलंकाई रणनीति को दोहराया है।

मालदीव के साथ भारत का सदियों पुराना धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक और व्यावसायिक संबंध है। मालदीव में करीब 25 हजार भारतीय रह रहे हैं। शिक्षा, चिकित्सा और व्यापार के लिहाज से वहां भारत पसंदीदा देश है। यामीन के भारत विरोधी रवैये के बावजूद मालदीव के नागरिकों द्वारा उच्च शिक्षा और इलाज के लिए लॉन्ग टर्म वीजा की मांग बढ़ती गई। हालांकि मालदीव की स्थिति बिगड़ने पर मोहम्मद नशीद और गयूम दोनों ने भारत से सैनिक हस्तक्षेप की मांग कई बार की। कई दूसरे नेता भी ऐसा चाहते थे। भारत ने 30 वर्ष पूर्व वहां सैनिक हस्तक्षेप किया भी था।

मालदीव पर सबसे लंबे समय तक अपना एकाधिकारवादी शासन चलाने वाले अब्दुल गय्यूम के तख्ता पलट को भारत ने विफल कर उनको फिर से सत्ता सौंपी थी। इस बार स्थिति थोड़ी भिन्न थी। अब्दुल्ला यामीन ने चीन के साथ विशेष व्यापार समझौता करके इतनी छूट दे दी कि वह वहां आच्छादित होने लगा था। चीन क्या करता यह स्पष्ट नहीं था, किंतु पिछले फरवरी में जब यह संभावना पैदा हुई कि भारत वहां 1988 की तरह सैनिक हस्तक्षेप कर सकता है तो चीनी युद्धपोतों की हिंद महासागर में गतिविधियां बढ़ गईं। चीन का सीधा संदेश था कि मालदीव के मामले में भारत दखल देने की कोशिश न करे।

मालदीव के स्टेट इलेक्ट्रिसिटी कंपनी स्टेलको की ज्यादातर परियोजनाएं चीन की सहायता से चलने लगीं। यहां तक कि मालदीव के अधिकारियों ने पाकिस्तान के साथ स्टेल्को का करार कर दिया। यामीन की कृपा से चीन ने धीरे-धीरे वहां दबदबा हासिल कर लिया। मालदीव को बाहरी मदद का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन से मिलने लगा। चीन की इतनी व्यापक उपस्थिति तथा उसके रवैये को देखते हुए भारत के लिए सधे तरीके से कदम उठाना आवश्यक था। अंदर ही अंदर भारत वहां के प्रमुख विपक्षी नेताओं से संपर्क में था और यामीन के गैर-लोकतांत्रिक आचरण पर विश्व के प्रमुख देशों से भी संवाद कर रहा था। यामीन ने जिस तरह से वहां लोकतंत्र को कुचलने का क्रम जारी रखा, उससे देश के अंदर व बाहर स्थिति उनके खिलाफ जाती रही।

अब्दुल गयूम और मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद को बिना निष्पक्ष न्यायिक कार्रवाई के जेल में डाला गया। यामीन की पूरी कोशिश थी कि विपक्षविहीन स्थिति में चुनाव करा अपनी जीत सुनिश्चित की जाए। चीन और पाकिस्तान को यामीन के इन गैर-लोकतांत्रिक कदमों से कोई फर्क पड़ता नहीं था। भारत ने पहले आपातकाल लगाने का विरोध किया। आपातकाल बढ़ाने के फैसले पर भी ऐतराज जताया, लेकिन भाषा काफी संयमित थी। वहां के विपक्षी नेता एवं उनके समर्थक भारत से मुखर विरोध की अपेक्षा कर रहे थे। विदेश मंत्रालय की तरफ से जारी बयान में न केवल मुख्य न्यायाधीश सहित राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की मांग की गई, बल्कि यह भी कहा गया कि मालदीव में जैसी स्थिति बन रही है वह अब्दुल्ला यामीन की सरकार की कानून के दायरे में सरकार चलाने की मंशा पर प्रश्न उठाती है।

भारत ने प्रचारित किया कि मालदीव के वर्तमान शासन के तहत निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकता। भारत के प्रयासों से अमेरिका और ब्रिटेन ने बयान जारी कर दिया कि अगर निष्पक्ष चुनाव नहीं हुए तो मालदीव पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। भारत की इस कूटनीति तथा विश्व के प्रमुख देशों के बयानों से मालदीव के विपक्षी नेताओं का मनोबल बढ़ा। उन सबने गठबंधन करके यामीन के खिलाफ संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर सोलिह को उतारा।

भारत ने यामीन की छवि को कमजोर करने की रणनीति के तहत सुरक्षा परिषद की अस्थायी सीट चुनाव में मालदीव को हरवा दिया। हालांकि भारत ने मालदीव को मत देने का वादा किया, किंतु यह बिना शर्त नहीं रहा होगा। जब यामीन में बदलाव नहीं आया तो भारत ने वहां ऐसी स्थिति बनाई, ताकि ज्यादा से ज्यादा देश उसे मत न दें और मालदीव हार गया। इस परिणाम का भी मालदीव की जनता पर मनोवैज्ञानिक असर हुआ।

बहरहाल चुनाव परिणामों के बाद भारत ने अवश्य राहत की सांस ली है, किंतु जो कुछ यामीन ने कर दिया है उसे पूरी तरह पलटवाना होगा। सोलिह इसके लिए तैयार भी हैं। लंबे समय तक लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाले मोहम्मद नशीद की भी वापसी होगी। भारत को ऐसी स्थिति पैदा करनी होगी ताकि वह वहां ज्यादा शक्तिशाली बनें। इसलिए आगे बढ़कर जितनी मदद संभव है करनी चाहिए। यामीन के शासन को सीख के तौर पर लेकर सतर्कता और दृढ़ता के साथ मालदीव के प्रति नीति बनानी होगी। मालदीव के लोगों का जुड़ाव हमारे लिए बड़ी ताकत है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार] 


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