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ब्रह्म के अनुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है

वैदिक व्यवस्था के अंतर्गत मानव जीवन की सफलता हेतु चार आश्रमों की व्यवस्था की गई। जिनमें पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन मनुष्य करेगा। दूसरा आश्रम गृहस्थ जो पचास वर्ष की आयु होने तक रहेगा।

By Edited By: Published: Sat, 05 Jan 2013 11:28 AM (IST)Updated: Sat, 05 Jan 2013 11:28 AM (IST)
ब्रह्म के अनुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है

वैदिक व्यवस्था के अंतर्गत मानव जीवन की सफलता हेतु चार आश्रमों की व्यवस्था की गई। जिनमें पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन मनुष्य करेगा। दूसरा आश्रम गृहस्थ जो पचास वर्ष की आयु होने तक रहेगा। जिसमें व्यक्ति गृहस्थ धर्म के कार्यो को संपन्न करेगा। इसमें शादी, संतानोत्पत्ति, पालन-पोषण, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा तथा जीविकोपार्जन हेतु व्यवस्थाएं हैं। तृतीय आश्रम वानप्रस्थ का है जिसमें व्यक्ति घर रहते हुए समस्त कार्यो के प्रति निरासक्त रहता है। चतुर्थ आश्रम है संन्यास जिसमें वह वानप्रस्थी गृह का भी त्याग कर वैराग्य धारण करता है। साथ ही परमात्मा के प्रति समर्पित रहकर समाज के कार्य करता है।

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उपरोक्त सभी आश्रमों के मूल में ब्रह्मचर्य आश्रम ही है। यदि व्यक्ति का ब्रह्मचर्य आश्रम सफल हो गया तो जीवन भर के लिए वह सबल बन जाता है। जिस व्यक्ति ने पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया वह आगे की अवस्था में बल बुद्धि विवेक एवं आत्मा से अपने आपको कहीं भी निर्बल नहीं अनुभव कर सकता। उसकी शारीरिक, मानसिक परिपक्वता स्वत: ही आत्मविश्वास उत्पन्न कर उसके धर्म-पालन में उपयुक्त निर्देश करती है। वैदिक दर्शन में ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्व है। ब्रह्म के अनुकूल आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। महर्षि पतंजलि ने मनुष्य के चरित्र निर्माण के लिए यम-नियम नाम से जो व्यवस्था की है वह मानव चरित्र के स्तंभ हैं। ये हैं- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य। इस पंच यज्ञ के द्वारा व्यक्ति अपने चरित्र को उच्चकोटि का बना सकता है। इन पांचों में ब्रह्मचर्य सबका मुखिया है। ब्रह्मचर्य को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। इन तीनों को जीवन में एक साथ आचरण में लाने से मानव का जीवन सफल हो जाता है। इसका प्रथम चरण मानसिक ब्रह्मचर्य से प्रारंभ होता है। मन से काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार का चिंतन न करना ही मानसिक ब्रह्मचर्य है। प्रत्येक स्थिति में संयम एवं धैर्य को न खोना ही शारीरिक ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का तीसरा चरण है आध्यात्मिक। इस आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य से ही उपरोक्त दोनों मानसिक और शारीरिक ब्रह्मचर्य नियंत्रित होते हैं।

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