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मेरा खाना ही मेरी पहचान है..

पुरुष प्रधान समाज में किसी स्त्री के लिए अपनी पहचान बनाना वाकई तारीफ के काबिल है और यह कर दिखाया है रितु डालमिया ने। रेस्तरां 'दिवा' में उनसे हुई मुलाकात एक दिलचस्प अनुभव है। मन में कुछ कर गुजरने का जुनून हो, अपने काम में आनंद मिले, हर पल नया करने की चाह हो तो हर मुश्किल आसान हो सकती है। उनसे मिलकर यही जाना कि हर काम

By Edited By: Published: Mon, 02 Sep 2013 12:45 PM (IST)Updated: Mon, 02 Sep 2013 12:45 PM (IST)
मेरा खाना ही मेरी पहचान है..

पुरुष प्रधान समाज में किसी स्त्री के लिए अपनी पहचान बनाना वाकई तारीफ के काबिल है और यह कर दिखाया है रितु डालमिया ने। रेस्तरां 'दिवा' में उनसे हुई मुलाकात एक दिलचस्प अनुभव है। मन में कुछ कर गुजरने का जुनून हो, अपने काम में आनंद मिले, हर पल नया करने की चाह हो तो हर मुश्किल आसान हो सकती है। उनसे मिलकर यही जाना कि हर काम में पहले बाधाएं आती हैं, विफलता भी मिलती है, लेकिन मन में लगन और दृढ़ इच्छा हो तो राहें खुद खुल जाती हैं।

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शेफ बनने का ख्याल कैसे आया? इस क्षेत्र में आईं तो डर नहीं लगा?

सच कहूं तो स्त्री होना फायदेमंद रहा..। आज हमारी कंपनी में डेढ़-दो सौ लोगों में महिलाएं केवल तीन हैं। 1993 में मेरे पास एक बड़े होटल का शेफ था। सोचा, होटल का शेफ ठीक रहेगा, लेकिन मैं उसे कुछ करने को कहती तो वह मुझे देखता भी नहीं था। सोचता होगा कि 22 साल की लड़की मुझे ऑर्डर दे रही है। इसके बाद सोचा कि कभी किसी होटल का शेफ नहीं रखूंगी। अभी सारे शेफ पुरुष हैं। इसका बड़ा कारण है कि हमारे काम में टाइमिंग गड़बड़ है। एक स्त्री, जो एक होममेकर भी है, उसके लिए यह मुश्किल काम है। शनिवार, रविवार, होली, दिवाली जो किसी होममेकर के लिए पारिवारिक दिन होते हैं, हमारे सबसे व्यस्त प्रोफेशनल दिन होते हैं। इसमें परिवार के लिए कोई समय नहीं होता। मैं 16 की उम्र में पिता के साथ काम करने लगी थी। वह बार-बार मुझे इटली भेज देते थे। 10 वर्ष की उम्र में पहली बार वहां गई थी। लौटते हुए मैं रोने लगी थी कि मुझे घर नहीं जाना है। मुझे हमेशा लगता है कि मेरा इटली से कोई पुराना नाता है। पापा खाने के बहुत शौकीन थे। जब भी वह बाहर जाते, उनका सूटकेस खाने की चीजों से भरा होता था। पाक कला की किताबें भी होती थीं। 10 की उम्र से ही मैं कुकिंग में एक्सपेरिमेंट करने लगी थी, लेकिन तब इसे प्रोफेशनली नहीं सोचा था। मन में यह ख्याल था कि शेफ बनना है, लेकिन पापा को यह बात नहीं बताई, वैसे मां यह बात जानती थीं। मां ने हमेशा मेरा साथ दिया। 1993 में जब मैंने पहला रेस्तरां खोला तो नहीं सोचा था कि यह एक प्रोफेशन की शुरुआत है। मेरी बड़ी अ'छी दोस्त थी इटली में। जब हमारी मार्बल फैक्टरी बनी थी तो मशीनरी उसी ने सप्लाई की थी। वह बेहतरीन कुक भी थी, मैंने उससे इटैलियन खाने के बारे में बहुत कुछ सीखा। उसी ने कहा कि छोड़ो यह मार्बल बिजनेस, तुम एक अच्छी कुक हो, रेस्तरां खोलो।

मारवाड़ी परिवार का होना सकारात्मक था या नकारात्मक?

मैं छोटी थी तो लगता था कि मेरे पैरेंट्स रूढि़वादी हैं। हालांकि ऐसा नहीं था। उन्होंने कभी कुछ करने से हमें नहीं रोका। आज सोचती हूं तो लगता है कि यह मेरा सौभाग्य है कि मैं मारवाड़ी परिवार की हूं। मारवाड़ी खाने के बहुत शौकीन होते हैं। आज मेरे टॉप क्लाइंट्स मारवाड़ी हैं, क्योंकि मैं उनके स्वाद, पसंद व उनकी जरूरत को अच्छी तरह जानती हूं। पहले वे खाने पर खर्च नहीं करते थे, लेकिन अब करते हैं।

आपने पहला रेस्तरां लंदन में खोला। फिर दिल्ली कैसे आईं?

लंदन में शेफ का बहुत सम्मान है। दिल्ली में तो बावर्ची, डोमेस्टिक हेल्पर और शेफ सबकी हैसियत एक सी है। दिवा खोला तो एक ने मुझे ऑफर किया कि आप हमारे यहां काम करें, 25 हजार रुपये देंगे, रहने की जगह भी देंगे। लंदन में मैंने सीखा कि रेस्तरां कैसे चलाया जाता है। मुझे वहां का मौसम रास नहीं आया। बाद में जब रेस्तरां अच्छा चलने लगा तो मैं एक विजेता की तरह वहां से लौट आई।

..कभी यह ख्याल नहीं आया कि कुछ और करना चाहिए?

मैं दो काम ही कर सकती थी या तो पिता के साथ मार्बल बिजनेस में हाथ बंटाती या रेस्तरां चलाती। मैं उद्योगपति नहीं बनना चाहती थी, वह करना चाहती थी जो मेरा पैशन था। पहले मैंने सोचा था कि हाफ रेस्तरां और हाफ बुक शॉप खोलूंगी। बुक्स होंगी तो खूब पढ़ूंगी। बचपन में मेरी पॉकेटमनी किताबों पर खर्च होती थी। मैं सोचती थी कि बुकशॉप वाला सेकंडहैंड दाम पर किताबें खरीद ले तो मेरे पास कुछ पैसे बच जाएं और मैं नई किताबें ले लूं। मैं राइटर या डीजे हो सकती थी। मुझे लिखना पसंद है, इसे मैं एंजॉय करती हूं।

आप पिछले 20 साल से फूड इंडस्ट्री में हैं। भारतीयों की फूड हैबिट्स में क्या बड़े बदलाव महसूस किए आपने?

मैं अभी मेज्जलुना और दिवा के पुराने और नए मेन्यू देख रही थी। बदलाव देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गई कि मेन्यू कैसे प्रोग्रेस हो रहा है। खाने वालों की अपेक्षाएं बहुत बदल गई हैं। जब मैं शुरू में इटैलियन खाना सर्व करती थी तो लोगों को समझ नहीं आता था। दिवा में पहली बार ट्रफल्स लेकर आई तो सारा का सारा अकेले खाना पड़ा। आज हम सीजन में हर हफ्ते ट्रफल्स इंपोर्ट करते हैं। लोगों ने खर्च करना सीखा है।

आप इतनी यात्राएं करती हैं, आपकी कुजीन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

हर बार जब मैं बाहर जाती हूं, मुझे कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है। यात्राओं से मेरे जीवन में रोमांच और प्रेरणा है। यह जरूरी है वर्ना बिजनेस खत्म हो जाएगा। मैं इंतजार करती हूं कि कैसे बाहर भागूं और नया सीखूं। कैफे दिवा और लेटिट्यूड का मेन्यू देखें तो मैं पूरी तरह इटैलियन ही सर्व नहीं करती। दिवा में मलेशियन कढ़ी, सिंधी कढ़ी, लेबनीज बर्गर, वियतनामी स्प्रिंग रोल.. एक बार तो आलू-पेठे की सब्जी-कचौड़ी भी सर्व की। हर वह खाना जो मुझे पसंद है, मैं उसे सर्व करती हूं, भले ही वह कहीं का हो। मैंने इटैलियन में दुनिया के हर स्वाद का समावेश किया है।

आप रेस्तरां चला रही हैं, फूड प्रोग्राम्स करती हैं, किताबें लिखती हैं। इतने काम कैसे मैनेज करती हैं?

टीवी शोज साल में सिर्फ 15 दिन करती हूं। टीवी मैंने 2008 में शुरू किया था। यह सोचकर शुरू किया था कि लोगों में जागरूकता लानी चाहिए। मैंने चार एपिसोड पर हामी भरी, इनमें एक इटैलियन इन्ग्रीडिएंट्स पर था। चार से आठ, फिर 24 हुए.. इनकी संख्या बढ़ती गई, लेकिन सिर्फ 15 दिन। इससे 'यादा नहीं कर सकती, क्योंकि मेरी पहचान मेरे रेस्तरां से है, टीवी से नहीं। हां, लिखना मुझे पसंद है। मेरी दोस्त ने मुझे लिखने की सलाह दी। घर लौटकर मैं लिखती थी। रात में एक घंटे लिखना मेरे लिए सुकून का एक माध्यम भी है।

आपका काम कस्टमर बेस्ड है। यह दबाव रहता होगा कि कोई असंतुष्ट न लौटे?

मैं मानती हूं कि कस्टमर महत्वपूर्ण है, लेकिन वह हमेशा सही नहीं होता। सबसे महत्वपूर्ण बात परिश्रम का सम्मान करना है। अगर कस्टमर हमारे काम का सम्मान नहीं करता, वह हमारे प्रयासों, जज्बे और कठिन मेहनत की सराहना नहीं करता तो वह ठीक नहीं है। अगर वह मेरे रेस्तरां में आता है तो मेरी जिम्मेदारी है कि अपने स्तर पर उसे शिकायत का कोई मौका न दूं, लेकिन एक चीज उसे भी सीखनी चाहिए और वह है आत्मसम्मान, जो लोग रेस्तरां में सर्व कर रहे हैं, उन्हें भी सम्मान का हक है, उनके काम का भी सम्मान होना चाहिए।

अपनी पहचान बनाने का सुख क्या है?

मान लें, मैंने आपको खाना खिलाया, आपने पेमेंट की। आपको हमारा प्रयास इतना पसंद आया कि अगले दिन आपने मुझे फूलों के साथ एक छोटा सा 'थैंक यू' नोट भेजा, शायद मैं अटेंशन सीकर हूं, लेकिन मेरा सुख तो इसी में है न कि मैं जो मेहनत कर रही हूं, जिस जज्बे को जी रही हूं, उसका मुझे कोई रिवॉर्ड भी मिले। ऐसे कितने काम हैं, जिनमें तुरंत रिवॉर्ड मिलता है? मगर मेरा काम ऐसा है। मेरे खाने की तारीफ होती है तो यही मेरी सफलता है यही मेरी पहचान है।

जीवन में कोई कमी महसूस करती हैं?

नहीं। केवल एक इच्छा होती है कि कभी यूनिवर्सिटी लाइफ एंजॉय कर पाती। मैं जल्दी बड़ी हो गई। जीवन की शिक्षा मेरे पास है। यात्राएं मेरा स्कूल हैं। शायद समय होता तो मैं यूनिवर्सिटी भी जाती, केवल ज्ञान और रोमांच के लिए। 11-12वीं कक्षा में मेरी उपस्थिति इतनी कम थी कि परीक्षा में बैठने के लिए पिता को डोनेशन देना पड़ा। मैं छोटी उम्र में प्रोफेशनल दुनिया में आ गई। हो सकता है रिटायरमेंट के बाद पढ़ूं। कुछ करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे मनपसंद काम मिला। ऐसे कितने लोग हैं जो अपने काम से प्यार कर पाते हों या उन्हें ऐसा काम मिलता हो!

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