सेहत का संगीत
कसी भी चीज की डिग्री पा लेना तो आसान है, लेकिन उस फील्ड में महारत हासिल करने के साथ सेवाभाव का जज्बा होना बहुत मुश्किल है। इसी मुश्किल को आसान बनाया है अम्बा हॉस्पिटल की निदेशक डॉ. अनुराधा गुप्ता ने।
किसी भी चीज की डिग्री पा लेना तो आसान है, लेकिन उस फील्ड में महारत हासिल करने के साथ सेवाभाव का जज्बा होना बहुत मुश्किल है। इसी मुश्किल को आसान बनाया है अम्बा हॉस्पिटल की निदेशक डॉ. अनुराधा गुप्ता ने। उन्होंने जितने जतन से गाइनोकोलॉजिस्ट की पढ़ाई की, उतनी ही शिद्दत से संगीत में विशारद भी हासिल की। दिनभर हॉस्पिटल में मरीजों की सेवा के बाद वह प्रतिदिन शाम को समय देती हैं अपने संगीत के शौक को। अपने पेशे और शौक को साथ लेकर चलने वाली डॉ. अनुराधा ने जहां ट्रांसवैजिनल सोनोग्राफी से शहर को कराया है रूबरू, वहीं आईएमए की कल्चरल इवेंट में जीते हैं कई पुरस्कार।
संगीत है मेरी दवा
खैरागढ़ यूनिवर्सिटी से शास्त्रीय संगीत में विशारद करने वाली डॉ. अनुराधा प्रतिदिन शाम को घर पर उसका अभ्यास करती हैं। वह अच्छी स्पोर्ट्स पर्सन भी हैं और आईएमए के कार्यक्रमों में संगीत के साथ खेलकूद स्पर्धाओं में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रही हैं। वह कहती हैं, ''मुझे संगीत से बेहद प्यार है। संगीत की शरण में आने के बाद दिनभर की टेंशन दूर हो जाती है। संगीत मेरे लिए हर मर्ज की दवा है। मैं मरीजों के सामने हमेशा मुस्कुराता चेहरा लेकर जाने में विश्वास करती हूं और यह मुस्कुराहट मुझे संगीत से ही मिलती है। मुझे टेबिल टेनिस और बिलियर्ड खेलना भी बहुत पसंद है। मैंने घर पर बिलियर्ड की टेबिल लगाई है और पति के साथ उसे इंज्वॉय करती हूं।''
बिना ईश्वर कोई काम नहीं
1995 में उन्होंने अपने पति निखिल गुप्ता के साथ मिलकर अम्बा हॉस्पिटल की नींव रखी। वे कहती है,''16-17 साल हॉस्पिटल चलाने के बाद हमने यहां उन महिलाओं के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर प्रारंभ किया, जो कुछ कमियों के कारण मां बनने से वंचित थीं। हमने पहले बैच में 11 महिलाओं पर टेस्ट किया और सभी बच्चों की धड़कनें मिलने के बाद जो खुशी हासिल हुई शायद वह पहले कभी नहीं हुई। फिर भी मेरा मानना है कि हम तो सिर्फ अपनी मेहनत से 30 परसेंट काम करते हैं, बाकी 70 परसेंट काम ईश्वर की मर्जी पर निर्भर करता है।''
कंप्लीट ट्रीटमेंट का फार्मूला
अपने काम के लिए पूरी तरह समर्पित डॉ. अनुराधा कहती हैं, ''गाइनोकोलॉजिस्ट बनने का मतलब यह नहीं था कि बस मुझे एक चिकित्सक बनकर लोगों का इलाज करना है। मैं तो सेवाभाव के इरादे से इस क्षेत्र में आई थी और चाहती थी कि कुछ ऐसा किया जाए, जो जच्चा-बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद साबित हो। असल में होता क्या है कि गाइनोकोलॉजिस्ट इलाज करता है और अल्ट्रासाउंड दूसरी जगह होता है। इससे चिकित्सक को दूसरे के द्वारा बनाई रिपोर्ट देखकर ही फैसला करना होता है। मैंने खुद डाइग्नोस्टिक का काम शुरू किया। मैं कानपुर में पहली ऐसी गाइनोकोलॉजिस्ट थी, जो खुद ट्रांसवैजिनल सोनोग्राफी का काम भी करती है। इससे मुझे अपने पेशेंट की सही और पूरी जानकारी हो जाती है। मेरा एक ही लक्ष्य रहता है कि मेरा पेशेंट यहां खुशी-खुशी आए और दोगुनी खुशी से वापस जाए।''
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