National Sports Day Special: गांव-गांव में खेल की आई बहार, होनहार मचा रहे तहलका
National Sports Day Special भारत को ग्रामीण अंचल से दर्जनों एथलीट मिल रहे हैं जो विश्व पटल पर देश का नाम रोशन कर रहे हैं। कई गांव तो देश के लिए मिसाल बने हुए हैं जिसमें नाहरी गांव का नाम शामिल है।
नई दिल्ली, अभिषेक त्रिपाठी। बरो मुखिया, खांडरा, नाहरी, खुड्डन, नोगपोक काकचिंग, मीठापुर, शाहबाद...ये गांव नहीं प्रतिभाओं की खादानें हैं, जहां से ऐसे-ऐसे हीरे-जवाहरात निकलते हैं, जिनसे भारत माता का सिर दमकता है। हो सकता है कि इनमें से आपने कुछ के नाम सुने हों और कुछ नहीं, लेकिन जब मैं यहां पर जन्म लेने वाली हस्तियों के नाम बताऊंगा तो आपको सब समझ आ जाएगा।
असम के गोलाघाट जिले के छोटे से गांव बरो मुखिया में टूटी सड़कें और कीचड़ भरे रास्ते तो हैं, लेकिन इंटरनेट कनेक्शन नहीं है। फोन के सिग्नल भी काफी मुश्किल से आते हैं। मुक्केबाजी के अभ्यास की कोई व्यवस्था नहीं है, जिम भी नहीं है। हालांकि, मुक्केबाज लवलीना बोरगोहाई के टोक्यो ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद उनके घर तक पक्की सड़क भी बन गई। नए बिजली के खंभे भी लगाए जा रहे हैं और कह सकते हैं एक तरह से वहां विकास की बयार बह गई है।
इसी तरह खांडरा की बात करते हैं। यह वही गांव है जहां पर एथलेटिक्स में देश को पहला पदक दिलाने वाले भाला फेंक एथलीट नीरज चोपड़ा का जन्म हुआ। यहां से वह पानीपत के शिवाजी स्टेडियम गए और ओलिंपिक चैंपियन बनकर निकले। वह अब इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि सात सितंबर तक उनके पास समय नहीं है। जब से वह ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर भारत आए हैं तब से उनके सम्मान में लगातार समारोह हो रहे हैं।
इसी तरह अब नाहरी, पहलवान रवि दहिया, खुड्डन, पहलवान बजरंग पूनिया, नोगपोक काकचिंग, मीराबाई चानू, मीठापुर, पुरुष हाकी कप्तान मनप्रीत सिंह और शाहबाद महिला हाकी कप्तान रानी रामपाल के कारण प्रसिद्ध हुए हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं हैं कि देश के अधिकतर एथलीट गांव से निकल रहे हैं और उसके उन्हें भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) व कुछ राष्ट्रीय खेल संघों द्वारा नियुक्त कोच बेहतर तरीके से निखार रहे हैं।
भारत में कई ऐसे गांव हैं जहां के निवासियों ने कुश्ती, हाकी, तीरंदाजी, फुटबाल, मुक्केबाजी और कबड्डी जैसे खेलों को अपनी दिनचर्या बना लिया है। इसी को देखते हुए तमिलनाडु सहित कई राज्य सरकारों ने खेल गांव विकसित करने की तरफ कदम बढ़ाए हैं।
निजामपुर गांव है कबड्डी की राजधानी
दिल्ली के मुंडका विधानसभा क्षेत्र में स्थित निजामपुर गांव को कबड्डी की राजधानी कहा जाता है। यहां पर कबड्डी खिलाडियों की फौज निकली है। यही कारण है कि कई बार यहां पर चीनी नागरिकों ने रेकी की कोशिश भी की, जिससे उन्हें पता चले कि इस खेल में यहां के लोग कैसे आगे हैं। एशियन गेम्स में कबड्डी में सबसे ज्यादा पदक भारत ने जीते हैं। दिल्ली और हरियाणा के बहादुरगढ़ की सरहद पर बसे इस गांव में हर घर से एक खिलाड़ी निकलता है।
यहां पर रहने वालों का कहना है कि अगर किसी के दो बच्चे होते हैं तो यह पहले ही तय हो जाता है कि कौन कबड्डी खेलेगा और कौन नौकरी या व्यवसाय करेगा। प्रो कबड्डी लीग में इस गांव के सबसे ज्यादा खिलाड़ी खेले हैं। इसने कई द्रोणाचार्य, अर्जुन अवार्डी और भारतीय कप्तान दिए हैं। गांव के अंदर ही एक बड़ा और दो छोटे कबड्डी स्टेडियम हैं। यहां पर 10 के बच्चे से 35 साल युवक सुबह-शाम टी-शर्ट और शार्ट्स में अभ्यास करते दिखेंगे। यहां पर कबड्डी खेली नहीं, जी जाती है और यही कारण है कि इस अकेले गांव ने कबड्डी में भारत को दुनिया का सिरमौर बना रखने का बीड़ा उठा रखा है।
नाहरी गांव का पहलवानों ने बढ़ाया मान
हरियाणा के सोनीपत के नाहरी गांव से भी कई पहलवान निकले हैं, जिसमें सबसे ताजा नाम है टोक्यो ओलिंपिक के रजत पदक विजेता रवि दहिया का। नाहरी गांव के बाहर नदी के किनारे संन्यासी महात्मा हंसराज ने एक अखाड़ा बनाया है, जिसमें वह पहलवान तैयार करते हैं। हंसराज को पहलवानी का शुरू से ही शौक था, लेकिन उनके पशु व्यापारी पिता सूबे सिंह को उनका कुश्ती लड़ना अच्छा नहीं लगता था। वह इससे नाराज रहते थे। हंसराज दिल्ली जलबोर्ड में नौकरी करते थे।
कुश्ती के दौरान उनके घुटने में चोट लगने से उनके पैर का आपरेशन हुआ। इसके कारण उनकी पहलवानी छूट गई। इसके बाद उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर गांव के आर्यसमाज मंदिर में अखाड़ा खोलकर पहलवान तैयार करना शुरू किया। परिवार और गांव वालों के विरोध पर उन्होंने गांव के बाहर नहर किनारे अखाड़ा शुरू किया। बिना सुविधा के हंसराज ने छोटे बच्चों को अभ्यास कराना शुरू किया। इसमें जो बच्चा बेहतर करता तो उसे आगे के प्रशिक्षण के लिए अपने गुरु महाबली सतपाल के पास दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में भेज देते।
25 साल में हंसराज 22 ऐसे पहलवान तैयार कर चुके हैं जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचे हैं। इनमें ओलंपियन व अर्जुन अवार्डी अमित दहिया, अरुण पाराशर, अरुण दहिया, पवन दहिया और टोक्यो ओलिंपिक के रजत पदक विजेता रवि दहिया शामिल हैं। खास बात यह है कि उनके अखाड़े में कोई आधुनिक सुविधा नहीं है। पुरानी हाथ की चक्की के पत्थर के पाटों को तारों के सहारे पेड़ों पर बांधकर देसी जिम बनाया गया है।
पेंट के अलग-अलग साइज के खाली डिब्बों में कंक्रीट भरकर तार की सहायता से पेड़ पर लटकाकर खींचा जाता है। लकड़ी की मुदगर अन्य साजो-सामान को जिम के उपकरणों की तरह प्रयोग में लाया जाता है। उन्होंने जो पहल शुरू की थी वह अब नाहरी गांव में ही नहीं, बल्कि पड़ोसी गांव हलालपुर में भी फैल गई है। अब यहां पर हर व्यक्ति अपने बच्चे को पहलवान बनाना चाहता है। जो लोग महात्मा के अखाड़े में शिक्षा नहीं पा सकते वह किसी और अखाड़े में जाते हैं। यह गांव अब कुश्ती की नर्सरी में तब्दील हो गया है।