कर्तव्य पालन की निष्ठा व अनुराग ही कर्तव्य परायणता
अपने करने योग्य कार्य ही कर्तव्य है। कर्तव्य पालन के प्रति अशेष अनुराग एवं निष्ठा ही कर्तव्यपरायणता कहलाता है।
अपने करने योग्य कार्य ही कर्तव्य है। कर्तव्य पालन के प्रति अशेष अनुराग एवं निष्ठा ही कर्तव्यपरायणता कहलाता है। कर्तव्यपरायणता से ही जीवन आदर्श की ज्योति विकसित होती है। कर्तव्य का दूसरा नाम भगवान है। समय का दुरुपयोग न कर जो व्यक्ति कर्तव्य का संपादन करता है उस पर भगवान भी प्रसन्न होते हैं। निर्धारित लक्ष्य पर बिना किसी भेदभाव व द्वेष के चलना पड़ता है। साधना से सिद्धि हासिल होती है। जीवन में सिद्धि प्राप्त करने पर हर जगह श्रद्धा एवं सम्मान मिलती है और वह यश व धन का अधिकारी होता है। ओड़िया जाति के जीवन वेद कहलाने वाले भागवत में उल्लेख है कि कर्तव्य कर्म में गुण देता है एवं निषेध दोष उत्पन्न करता है। मानव जीवन के मानदंड है सर्वश्रेष्ठ कर्म कर्तव्य ही है। इसी में मानव जीवन का सार भी छिपा है। उत्कलमणि गोपबंधु दास की भाषा में मानव केवल जीवन नहीं है, वर्ष, महीना, दिन केवल कर्म करते हुए नर जीता है और यही उसके जीवन का मानदंड भी है। कर्तव्य पालन के महत्व के संबंध में पल्ली कवि नंदकिशोर कहते हैं दुख सुखमय कर्तव्य कर्म का साधन करने में मानव का शाश्वत मर्म है। व्यास कवि फकीर मोहन ने भी कहा है कि कर्तव्य पालन ही वास्तविक जीवन है। आलस्य समय आपेक्ष आत्मा का दहन है। इसी तरह उत्कल भारती कुंतला कुमारी ने भी अपने गीत में लिखा है कि कर्तव्य कर्म से विमुख न हो, कर्म करने से ही सुख उत्पन्न होगा। फल न पर कभी निराश न हो क्योंकि इससे कठिन परिस्थिति में दुगुना साहस मिलता है। कठोर कर्तव्य बोध के समक्ष ममता, स्नेह, मोह माया का कोई स्थान नहीं होता है। कर्तव्य ही मनुष्य को आदर्श एवं अनुशासित बनाता है। कर्तव्य के प्रति उपेक्षा करने पर चरम परिस्थिति उत्पन्न होती है एवं जीवन में हीनभावना आती एवं पीड़ा मिलती है। मनुष्य को यह आयुहीन कर देता है। हमारा परिवार, समाज, देश के लिए कई कर्तव्य हैं। अपने प्रति भी कर्तव्य की जरूरत है। कर्तव्य पालन से परम शांति मिलती है यह भागवत चेतना है। इस सोपान से मुंह मोड़ लेना उचित नहीं है।
- प्रफुल्ल चंद्र बारिक, प्रधानाध्यापक व्यासदेव हाईस्कूल, वेदव्यास। कर्तव्य का पालन हर मनुष्य का धर्म :
अपने साथ परिवार, समाज, देश व दुनिया के लिए हमारा अलग अलग कर्तव्य है। इसके पालन के लिए कोई समय नहीं होता है। हर पल हमारे पर कोई न कोई कर्तव्य करने का समय रहता है। हमें उस पल व कार्य की पहचान करते हुए उसका पालन करने के संबंध में भी निश्चय करना चाहिए। कर्तव्य आदर्श एवं संस्कार में निहित होता है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं होती है कि इस समय आपका क्या कर्तव्य है बल्कि खुद को यह सोचना चाहिए कि हमारा कर्तव्य अभी क्या है। मुझे इस परिस्थिति में कौन सा कदम उठाना चाहिए। व्यक्ति समय के अनुसार सोचता है एवं तभी उसके समक्ष कर्तव्य पालन का अवसर मौजूद रहता है। कर्तव्य पालन करने वाले व्यक्ति को जीवन में कभी निराश नहीं होना पड़ता और न ही इसके लिए कभी पछतावा ही होता है। कर्तव्य पालन नहीं करने वाले व्यक्ति बाद में पछताते हैं और कहते हैं कि यदि मैने उस समय ऐसा किया होता तो ऐसा दिन देखना नहीं पड़ता। महापुरुष भी पहले सामान्य व्यक्ति थे पर उन्होंने अपने जीवन आदर्श में कर्तव्य का चयन किया एवं आदर्श स्थापित किया। भगवान श्रीराम ने कर्तव्य का पालन करते हुए राजसी सुख त्याग कर वनवास को अपनाया। भाई लक्ष्मण व सीता ने भी उनके साथ कर्तव्य का पालन करते हुए आदर्श स्थापित किया। भरत ने भी उस समय की परिस्थिति को देखते हुए जो संकल्प लिया वह समाज में एक भाई के लिए किया गया त्याग युगों तक उदाहरण बन कर रहेगा। हर मनुष्य को अपने जीवन में ऐसा कर्म एवं कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए जिससें अपने साथ साथ समाज का कल्याण भी निहित हो। हर व्यक्ति को अपने कर्तव्य की पहचान करनी चाहिए एवं समाज में अपना आदर्श स्थापित करना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी भी उसे याद करें।
- शशधर साहू, खेल शिक्षक। कर्तव्य पालन मनुष्य के संस्कार पर निहित :
मनुष्य जिस परिवेश में पलता बढ़ता है एवं जिस तरह के संस्कार मिलते हैं उसी तरह से वह अपने कर्तव्य व इसके पालन के लिए अग्रसर होता है। साधु के साथ व सत्संग में रहकर महापुरुषों का संस्कार सीखने एवं उसका अनुसरण करने वाले का आचरण उसी तरह का होगा एवं वह अपना कर्तव्य भी उसी तरह से निर्धारित करेगा। समय आने पर वह अच्छे बुरे की पहचान करने के साथ ही अपने कर्तव्य का भी वैसा ही पालन करेगा जो समाज के कल्याणार्थ हो। यह सभी के लिए स्वीकार योग्य भी होगा। कर्तव्य पालन करने वाला व्यक्ति जटिल परिस्थिति में भी अपना संयम नहीं खो सकता है एवं इसके पालन में पीछे नहीं हो सकता है। ऋषि धौम्य के आश्रम में अरुण नाम का एक छोटा बालक अरुणि रहता था। वह गुरु के सबसे प्रिय शिष्यों में एक था। गुरु भी जानते थे कि उसे जो काम सौंपा जायेगा वह उसका पालन करेगा एवं कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटेगा। गुरु का स्नेह अरुणि को मिलने पर साथी उससे जलते थे। आश्रम के खेतों में अनाज उगाया जाता था एवं उसी से भरण पोषण होता था। एक दिन अरुण को खेत की निगरानी के लिए भेजा गया। अरुणि ने देखा कि खेत की मेढ़ टूटी हुई है। उसने मिट्टी डाल कर उसे रोकने का प्रयास किया पर यह संभव नहीं हुआ। अंत में अपने प्राण की परवाह किए बगैर अरुण खुद मेढ़ पर लेट गया। रात भर पानी के बीच वह ठंड में लेट कर पानी को रोके रहा। जब उसकी तलाश करते हुए गुरु धौम्य व शिष्य वहां पहुंचे तो यह दृश्य देख कर उन्हें आश्यर्च हुआ। अरुणि ने अपने कर्तव्य का पालन किया एवं युगों तक उसे याद किया जाएगा। आज हमें भी ऐसे उदाहरण पेश करने की जरूरत है।
- गिरीश चंद्र पंडा, संस्कृत शिक्षक।