वर्ष 2012 के बाद 2022 में एक बार फिर ममता दीदी रायसीना की रेस में उतरे प्रत्याशी को लेकर दिख रही मजबूर
जब नामांकन से पहले द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें फोन कर समर्थन मांगा था और उन्होंने पार्टी स्तर पर बात करने की दुहाई दे कर पलड़ा झाड़ने की कोशिश की थी। ममता के लिए बड़ी परेशानी तो आगामी माह आने वाली है जब द्रौपदी मुर्मू चुनाव प्रचार के लिए कोलकाता पहुंचेंगी।
कोलकाता, जयकृष्ण वाजपेयी। बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का राष्ट्रपति चुनाव में मजबूरी पीछा नहीं छोड़ रही है। वर्ष 2012 के बाद 2022 में एक बार फिर तृणमूल प्रमुख रायसीना की रेस में उतरे प्रत्याशी को लेकर मजबूर दिख रही हैं। भले ही उनकी यह मजबूरी उनके द्वारा प्रस्तावित विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को लेकर उतनी न हो, लेकिन भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की द्रौपदी मुर्मू को लेकर साफ दिख रही है। इसके दो प्रमुख कारण भी हैं। एक महिला तो दूसरी आदिवासी। ऐसे में कैसे विरोध किया जाए? यही वजह है कि जब तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व सांसद सौगत राय ने द्रौपदी मुर्मू को कमजोर प्रत्याशी बताया तो अगले ही दिन तृणमूल की ओर से सफाई दी गई कि पार्टी प्रमुख ने तो 2017 में ही मुमरू को राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव पीएम मोदी को दिया था। इस समय ऐसा लग रहा है कि ममता के सामने एक बार फिर 2012 जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है।
दरअसल वर्ष 2009 से कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)-2 की केंद्र सरकार में तृणमूल कांग्रेस भी शामिल थी। बंगाल में भी कांग्रेस के साथ मिलकर ममता गठबंधन की सरकार चला रही थीं। वर्ष 2012 में राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा हुई तो कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके बाद ममता विरोध में उतर गईं और समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर अलग से प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी। ममता ने कहा था कि प्रणब मुखर्जी के बजाय मीरा कुमार, गोपाल कृष्ण गांधी या एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बनें तो उन्हें खुशी होगी। प्रणब मुखर्जी बंगाल के ही थे, बावजूद इसके राजनीतिक मतभेद और विरोध के चलते वह उनकी उम्मीदवारी के विरुद्ध थीं। हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इस मुद्दे पर उन्होंने संप्रग से बाहर निकलने की भी बात कह दी थी। बाद में मुलायम सिंह यादव यू-टर्न लेते हुए कांग्रेस के साथ खड़े हो गए। तब ममता को यह अहसास हुआ कि एक बंगाली को देश का राष्ट्रपति बनने का मौका मिला है। अगर इसका विरोध किया तो इसका प्रदेश में गलत संदेश जाएगा और चुनावी नुकसान हो सकता है। चुनावी गणित को ध्यान में रखते हुए उन्होंने प्रणब का समर्थन किया।
एक दशक बाद एक बार फिर कुछ वैसी ही परिस्थिति तृणमूल प्रमुख के सामने है। इस बार चेहरा जरूर बदला हुआ है, लेकिन हालात कुछ वैसे ही हैं। इस बार उनके सामने एनडीए की आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू हैं, जो बंगाल के पड़ोसी राज्य ओडिशा से हैं। ऐसे में अगर तृणमूल की ओर से उनका थोड़ा भी विरोध हुआ तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ने के पूरे आसार हैं। पहला, ममता खुद महिला हैं। वहीं दूसरी ओर प्रदेश में अनुसूचित जाति/ जनजाति के वोटरों की संख्या काफी है। प्रदेश की आबादी का करीब 30 प्रतिशत इन्हीं वर्गो से है। इन वर्गो के लिए 12 लोकसभा और 84 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। इनमें से 2019 में एसटी की दो और एससी की पांच लोकसभा सीटें भाजपा के खाते में गई थीं।
उत्तर बंगाल की आठ में से सात सीटें, जंगलमहल के पांच जिलों पुरुलिया, बांकुड़ा, झाड़ग्राम, पश्चिम व पूर्व मेदिनीपुर की आठ सीटों में से पांच पर भाजपा को जीत मिली थी। इसके बाद ममता बनर्जी ने आदिवासियों के लिए अलग से विकास बोर्ड गठित करने से लेकर कई और योजनाएं चलाई थीं। उसका नतीजा रहा कि पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में एसी-एसटी के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 45 पर कब्जा जमाने में तृणमूल सफल रही। वहीं भाजपा के खाते में महज 39 सीटें ही आईं। यही नहीं, बीरभूम से लेकर हुगली और पूर्व व पश्चिम बर्धमान में भी आदिवासियों की आबादी है, इसलिए ममता की मजबूरी हो गई है और वह मुर्मू के खिलाफ कुछ भी कहने से बच रही हैं। यही कारण है कि वह स्वयं द्वारा प्रस्तावित विपक्ष के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के नामांकन में हाजिर नहीं हुई हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि अगर साथ दिखीं तो पूरे देश के मीडिया की नजर में आएंगी और आदिवासियों से लेकर महिलाओं तक को संदेश जाएगा कि तृणमूल प्रमुख महिला होते हुए भी एक महिला और वंचित वर्ग का विरोध कर रही हैं।
वैसे तो असहज स्थिति उसी दिन उत्पन्न हो गई थी, जब नामांकन से पहले द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें फोन कर समर्थन मांगा था और उन्होंने पार्टी स्तर पर बात करने की दुहाई दे कर पलड़ा झाड़ने की कोशिश की थी। ममता के लिए बड़ी परेशानी तो आगामी माह आने वाली है, जब मुमरू चुनाव प्रचार के लिए कोलकाता पहुंचेंगी और उनसे समर्थन मांगेंगी। उस समय उनका क्या रुख होगा, यह महत्वपूर्ण है।
[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बंगाल]