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'बम और बलिदान' के नए खून का आदर्श बनकर युवकों के सिरमौर हुए महर्षि अरविंद

स्वाधीनता स्वाभिमान और स्वशासन की भावना से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रांति की मशाल थामने वाले प्रखर युवा की आध्यात्मिक अनुभूति और साधना ने उन्हें योगी महर्षि अरविंद के रूप में विश्वविख्यात कर दिया। महर्षि अरविंद की साद्र्धशती यानी 159वीं जन्‍म जयंती पर विशेष...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 13 Aug 2022 02:19 PM (IST)Updated: Sat, 13 Aug 2022 02:19 PM (IST)
'बम और बलिदान' के नए खून का आदर्श बनकर युवकों के सिरमौर हुए महर्षि अरविंद
स्वाधीनता के आध्यात्मिक सर्जक महर्षि अरविंद की शार्धशती (150वीं जन्मजयंती) पर विशेष...

वाराणसी, डा.श्रुति मिश्रा। उद्भट क्रांतिकारी, प्रखर दार्शनिक, महान योगी, महर्षि अरविंद घोष का संपूर्ण साहित्य का मुख्य आधार मूलत: प्राचीन भारतीय संस्कृति और वैदिक वांग्मय ही रहा है, किंतु उनकी प्रत्येक कृति मानव जीवन के संपूर्ण पक्ष को अपनी समग्रता में अभिव्यक्त करती हुई मानव भविष्य की ओर संकेत करती है। 'दिव्य-जीवन', 'वेद रहस्य', 'गीता प्रबंध', 'सावित्री', 'उपनिषद्' तथा 'समग्र योग' में सनातन परंपरा का वैदिक वांग्मय के माध्यम से प्रस्तुतीकरण हुआ है तो वहीं 'मानव चक्र', 'शिक्षा पर', वंदे मातरम्', 'कारा काहिनी', 'धर्म और जातीयता' इत्यादि कृतियों के माध्यम से उन्होंने स्वातंत्र्य की तलाश में सन्नद्ध मानव जीवन के सामाजिक, बौद्धिक पक्षों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को रेखांकित किया है।

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15 अगस्त 1872 को कोननगर, पश्चिम बंगाल में जन्मे श्री अरविंद को वर्ष 1885 में 12वर्ष की आयु में उनके पिता डा. कृष्ण धन घोष ने अंगरेजी वातावरण में ढलने के लिए अध्ययन हेतु लंदन भेज दिया था। श्री अरविंद अध्ययन पूर्ण कर जब भारत आए तो अपने पिता की इच्छा के उलट भारतीय दर्शन और संस्कृति का अग्रगण्य ध्वजावाहक बनने की दिशा में अग्रसर हो गए। भारत आए तो बड़ौदा राज्य सेवा में नियक्त हुए तो यहीं से उन्होंने भारतीय दर्शन का विस्तृत अध्ययन करना आरंभ किया।

वो युग परतंत्र भारत का युग था और युवा अरविंद का लहू अंग्रेजी अत्याचारी शासकों के खिलाफ उबलता था। ऐसे में भारत के तत्कालीन राजनीतिक मानचित्र पर आजादी के लिए 'बम और बलिदान' के नए खून का आदर्श बनकर युवकों के सिरमौर हुए अरविंद। वर्ष 1908-09 में उन पर अलीपुर बम कांड का मुकदमा चला। अंतत:, उन्हें कारावास हुआ, लेकिन उसी बंदी अवस्था में उन्हें एक गहरी अनुभूति हुई कि उनकी नियति इन राजनीतिक गतिविधियों से इतर, अन्यत्र कहीं आध्यात्मिक क्रियाकलापों से जुड़ी हुई है। एक व्यापक क्रांतिकारी गतिविधियों का दौर चला जिसका उद्देश्य था चाहे प्राणों के बलिदान की कीमत पर ही सही पर राष्ट्र पर ज़ुल्मों की पराकाष्ठा लादने वालों को आतंकित कर राष्ट्र संबंधी स्वाभिमान और स्वशासन संबंधी मुद्दों को माने जाने के लिए उन्हें विवश करना है। उसी का परिणाम था कि उस दौर में क्रांति की व्यक्तिवादी अवधारणा ने अपनी जड़ें जमाईं। राजनीतिक उथल-पुथल के उस युग में जब भारतीय नेता स्वातंत्र्यपूर्व भारत में स्वशासन प्राप्त करने हेतु निरंतर संघर्षरत थे तब अरविंद ने स्पष्ट घोषणा की कि राजनीतिक रूप से सशक्त और स्वतंत्र बनने के लिए सबसे पहले हमें स्वयं को उदात्त, उन्मुक्त और नैतिक दृष्टि से सशक्त बनाने की आवश्यकता है।

यहां उनके अनुपम महाकाव्य 'सावित्री' का जिक्र बहुत जरूरी है। महाभारत के एक प्रसंग पर आधारित इस महाकाव्य का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। श्री अरविंद को इसका वर्तमान स्वरूप देने में कुल 24 वर्ष लगे फिर भी वह इसे पूर्ण नहीं कर सके। कहा जाता है कि अरविंद ने इसे 12 बार लिखा, क्योंकि जैसे-जैसे उनकी चेतना का विकास होता गया सावित्री क्रमश: परिष्कृत होती चली गई। उस दौर में क्रांति की ज्वाला जलाए रखने के लिए श्री अरविंद ने एक समाचार पत्र का संपादन भी किया। 'वंदे मातरम्Ó श्रीअरविंद द्वारा संपादित एक अंग्रेजी समाचार पत्र था जिसके माध्यम से वह निष्क्रिय प्रतिरोध पर अपने लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित किया करते थे जिसने लोगों की मन में परिवर्तन कर क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।

अरविंद, संभवत: विश्व के एकमात्र आध्यात्मिक दार्शनिक हैं जो मनुष्य का भविष्य इस संसार में ही देखते हैं। इस पृथ्वी पर ही दिव्य जीवन के चमत्कार को यथार्थ कर दिखाना ही उनका लक्ष्य था और यहीं से अरविंद के वृहद् दार्शनिक-आध्यात्मिक विचारों का सूत्रपात होता है और इसके बाद एक अविरल विचार श्रृंखला अपने ग्रंथों के माध्यम से मानव मात्र के दिशा-निर्देशन हेतु वे देते चले गए हैं। आज उसी महान आत्मा योगी अरविंद के आविर्भाव दिवस पर जब हम आजादी के अमृत महोत्सव को स्वतंत्रता दिवस के अत्यंत पावन अवसर पर पूर्णाहुति दे रहे हों तो ऐसे में महर्षि अरविंद का स्मरण अनिवार्य हो जाता है।

[वाराणसी, उत्तर प्रदेश]


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