बेचीं चुस्की नहीं मानी हार, फिर खड़ा किया कारोबार
आकाश राज सिंह, हाथरस : 1947 में आजादी तो मिली मगर अखंड भारत के विभाजन की विभीषिका ने सभी को झकझोर कर रख दिया था। बंटवारा होते ही भारत व पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया। इसके दो माह पूर्व से ही चारों ओर दंगे फैल गए थे। पाकिस्तान में मुस्लिमों ने हिंदुओं की संपत्तियों को लूटकर उनकी हत्याएं करनी शुरू कर दी थी। गांव तप्पी के गुलीचंद भाटिया अपने परिवार के साथ किसी तरह बन्नू छावनी पहुंचे। वहां से कड़ी सुरक्षा के बीच उन्हें पुलिस ने ट्रेन द्वारा अमृतसर पहुंचे। रिश्तेदारों के कहने पर किसी तरह हाथरस आए। फिर यहीं के होकर रह गए।
बंकर की तरह था बन्नू छावनी
गुलीचंद भाटिया के पुत्र निर्मल भाटिया बताते हैं कि बन्नू से बीस किलोमीटर दूर तप्पी गांव था। वहीं पर उनका जन्म पांच जुलाई 1935 को हुआ। वहां पर उनके पिताजी की 50 बीघा खेती थी। गांव में ही छठवीं तक पढ़ाई की। पिता अंगूर, आलू बुखारा, खुमानी, संतरे की खेती किया करते थे। तब हिंदू व मुस्लिम मिल-जुलकर रहते थे। सभी के बीच प्रेम व सौहार्द था।
मुस्लिम साथियों ने ही लेनी
चाही जान, तब छोड़ा गांव
निर्मल बताते हैं कि तीन मुस्लिम साथियों के साथ वह पहाड़ पर गए। वहां एक ने उन्हें धक्का देकर मारने का प्रयास किया। इसकी जानकारी पिता को होने पर उन्होंने ताऊ संतराम के पास बन्नू छावनी भेज दिया। बन्नू में चारों ओर पांच फीट चौड़ी और 15 फीट ऊंची दीवार थी। इसके आठ दरवाजों में चार-चार संतरी सुरक्षा में रहते थे।
अंग्रेज का सिर काट ले गया मुस्लिम किशोर
निर्मल बताते हैं कि मुस्लिम भले ही हिंदुओं से मिलकर रहते थे। कट्टरता उनमें कूट-कूटकर भरी थी। एक किशोर ने गोली मारकर जहाज को नीचे गिरा दिया। उसमें बैठे एक अंग्रेज का सिर कलम कर उसे रूमाल से बांध गांव ले गया। अंग्रेजों ने गांव की मस्जिद पर बम लगा गांव को खाली करने या उस किशोर को सुपुर्द करने की चेतावनी दी मगर किसी ने किशोर नहीं सौंपा।
काट दी थी 10 जुलाई को ट्रेन
निर्मल बताते हैं कि बन्नू पहुंचने के बाद दो दिन मिलिट्री के शिविर में रहे। दस जुलाई को जो ट्रेन निकली थी, उसे मुस्लिमों ने रोककर सभी यात्रियों को काट डाला, उनकी युवा महिलाओं को ले गए। इससे मिलिट्री भी डरी हुई थी। सुरक्षा के इंतजाम करने के बाद ही 12 जुलाई की ट्रेन से करीब एक हजार लोगों को अमृतसर भेजा। यहां गुरुद्वारे में पांच दिन रुके।
नेहरू ने कहा, अपने पैरों पर खड़े हो
ट्रेन से सभी शरणार्थी किसी तरह फिरोजपुर होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। यहां पर उन्हें दाल, चावल व तेल मिलता था। उससे भोजन बनाते। यहां ट्रेन से पं. जवाहरलाल नेहरू आए तो उन्हें खरहरी खाट पर बिठाया गया। उन्होंने कहा अपने पैरों पर खड़े हो, कब तक खैरात पर जीवन यापन करते रहोगे। उस समय डेढ़ हजार शरणार्थियों से मिलने के बाद चले गए। वहां तीन महीने रहे।
कमर पर पेटी रख बेची चुस्की
निर्मल बताते हैं कि चुस्की फैक्ट्री में काम मांगने पर उन्होंने पेटी थमा कर चुस्की बेचने को कहा। हाथरस सिटी स्टेशन पर दोपहर में 12 बजे ट्रेन में चुस्की बेची। बिके हुए सभी दस रुपये फैक्टरी मालिक को दिए तो उसने दो रुपये दिए। एक साल तक चुस्कियां बेचीं। 15 रुपये महीने कपड़े की दुकान पर पत्थर बाजार में नौकरी की। हीरालाल कालोनी में 12 रुपये महीने किराए के कमरे पर रहे।
साइकिल से बेचे कपड़े, खड़ा किया कारोबार
नौकरी से मन ऊबने पर साइकिल से कपड़े बेचने कैलोरा, वाहनपुर, हीरापुर, सलेमपुर, सिकंदराराऊ तक जाने लगे। पांच मई 1956 को बिछुआ गली निवासी लक्ष्मी से विवाह हुआ। पंजाबी मार्केट में भाई संतराम के साथ काम किया। बाद में अपनी अलग दुकान लेकर कपड़े का कारोबार खड़ा किया। परिवार में घनश्याम,विजय पुत्र व पूनम पुत्री हैं।
- निर्मल भाटिया, विभाजन विभीषिका के प्रत्यक्षदर्शी।