Move to Jagran APP

शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती से किसानों की आय दोगुनी करने में मिलेगी सफलता

गुजरात के आणंद में 16 दिसंबर को देश भर से कृषि कृषि विज्ञानी और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों का बड़ा जमावड़ा होने जा रहा है। यहां किसानों की खुशहाली का नया रास्ता निकालने पर मंथन और प्रशिक्षण कार्यक्रम होना है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 15 Dec 2021 11:23 AM (IST)Updated: Wed, 15 Dec 2021 11:23 AM (IST)
शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती से किसानों की आय दोगुनी करने में मिलेगी सफलता
केंद्र के साथ राज्य सरकारें भी शून्य लागत आधारित कृषि को बढ़ावा दें। फाइल

अजय शुक्ला। यह विरले क्षण ही होते हैं, जब कोई प्रधानमंत्री किसी सरकारी/ राजनीतिक कार्यक्रम के बीच में देश की सबसे निचली, किंतु अहम पंक्ति में खड़े अपने देशवासियों को न्योता देने लगे। यह संभव है जब प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति उसी पंक्ति से उठकर खड़ा हुआ जननायक हो। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में सरयू नहर परियोजना के लोकार्पण कार्यक्रम में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 16 दिसंबर को गुजरात के आणंद में होने जा रहे शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती संबंधी एक बड़े कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता दिया तो उनके चेहरे और मन के भाव पढ़ने वाले थे। वे किसी नवोन्मेषी छात्र की तरह उत्साहित थे।

prime article banner

गत माह प्रधानमंत्री ने जब तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की थी तो एक और अहम वादे के साथ नई राह पर चलने का एलान भी किया था। तब इस पर किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया, किंतु प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए आमंत्रण से स्पष्ट है कि किसानों की आय दोगुनी करने के साथ ही कई अन्य लक्ष्यों के संधान के लिए केंद्र सरकार शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती को बड़े हथियार के रूप में प्रयोग करने जा रही है। आणंद में देश भर से कृषि, कृषि विज्ञानी और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों का बड़ा जमावड़ा होने जा रहा है। यहां किसानों की खुशहाली का नया रास्ता निकालने पर मंथन और प्रशिक्षण कार्यक्रम होना है। प्रमुख रूप से चर्चा देश भर में शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती पर होनी है।

शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती छोटे किसानों के लिए एक बहु समस्या उन्मूलक तकनीक है। यह तकनीक जटिल नहीं है। आसान है। सभी किसानों की पहुंच में है। विशेष बात है कि यह किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाने के बजाय खेती की लागत शून्य करने वाली है। उत्पादन भी बेहतर मात्र और गुणवत्ता में होता है। महाराष्ट्र के कृषक, विज्ञानी और संत पद्मश्री सुभाष पालेकर ने इस तकनीक पर काफी काम किया है। उन्हें भारत में इस तकनीक का प्रणोता और प्रशिक्षक माना जाता है।

पिछले कई वर्षो से वह यह प्रयोग कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए मूलत: देसी गाय के गोमूत्र, देसी गाय के ही ताजा गोबर, गुड़, गन्ने के रस या फलों के सड़े हुए गूदे और पानी के मिश्रण सहित कुछ सहज उपलब्ध अवयवों को वैज्ञानिक पद्धति से मिलाकर एक घोल तैयार किया। इसे जीवामृत नाम दिया गया है। इसी तरह बीजामृत का भी फामरूला तैयार किया गया है। अलग-अलग पारिस्थिकी तंत्र के अनुकूल फसलों के लिए कुछ इसी प्रकार के सहायक फामरूले भी तैयार किए गए हैं। खेती ही नहीं बागवानी में भी यह सहायक है। देश के दक्षिण-पश्चिमी राज्यों ने इस तकनीक पर अमल कर खेती के क्षेत्र में क्रांति की एक नई गाथा लिखी है। उत्तर भारतीय राज्यों में भी इस तकनीक पर काम शुरू हुआ है, लेकिन अभी यह प्रारंभिक चरण में है। लोकभारती संगठन की पहल से यहां तीन-चार वर्षो में जो प्रयास हुए हैं उससे हजारों की संख्या में किसानों का प्रशिक्षण हुआ है। स्वयं पालेकर इसका प्रशिक्षण दे चुके हैं और बड़ी संख्या में प्रयोग के तौर पर मध्य उत्तर प्रदेश में किसान इस तकनीक पर आधारित खेती कर रहे हैं।

संप्रति गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल रहते हुए शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती पर काफी काम किया। सबसे पहले तो उन्होंने राजभवन के उद्यान में ही इसका प्रयोग किया। बाद में अन्य कृषकों को भी इस तकनीक में दक्ष बनाया। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में इस तकनीक को राज्य के संरक्षण में फलने-फूलने का मौका मिला और परिणाम उत्साहजनक मिले हैं। महाराष्ट्र में सुभाष पालेकर ने अपने स्तर पर प्रयोग किए। कुछ लोगों को जोड़ा। कर्नाटक में किसान संगठनों ने उन्हें अपने साथ विशेषज्ञ के तौर पर जोड़कर काम किया। केरल ने उनसे प्रेरणा लेकर करीब 25 हजार हेक्टेयर भूमि पर ‘सुभिक्षम सुरक्षितम-भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति’ से शून्य लागत आधारित खेती शुरू की है, जिसे कई चरणों में विस्तार मिल रहा है। आंध्र प्रदेश ने इस पर नियोजित ढंग से प्रयास किया है। आंध्र सरकार ने सुभाष पालेकर को बतौर सलाहकार जोड़कर पहले इसे पायलट परियोजना के रूप में शुरू किया है। मात्रत्मक और गुणात्मक उत्पादन देखकर इसे विस्तार दिया है। अब 2024 तक पूरे राज्य की कृषि को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक मुक्त बनाने का संकल्प लिया है। संयुक्त राष्ट्र ने शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती के इस माडल की सराहना की है।

सुभाष पालेकर ने शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती को आध्यात्मिक खेती की भी संज्ञा दी है। कारण, खेती की इस पद्धति में प्राकृतिक परिस्थितियों में खेती की जाती है। बाहर से कुछ खरीदने या खेत में डालने की जरूरत नहीं। जीवामृत के द्वारा केवल फसल चक्र के लिए हितैषी जीवाणुओं के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है, जो वर्षो से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से नष्ट होते जा रहे हैं। पालेकर का मानना है कि यह जीवाणु ही सूर्य की ऊष्मा और जमीन की नमी से फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्व मृदा से निकालकर उन्हें जड़ों और तने तक पहुंचाते हैं। यह खेती थोड़े बदलावों के साथ पूरे देश की जलवायु के लिए लाभकारी है। इसमें गोपालन की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

प्रधानमंत्री मोदी वार्षिक बजट में भी शून्य लागत आधारित खेती को बढ़ावा देने की बात कह चुके हैं। यदि केंद्र के साथ उत्तर भारत की सरकारें भी कृषि की इस विधा को संरक्षण प्रदान करती हैं और नियोजित प्रयास करती हैं तो न केवल किसानों की आय दोगुनी करने में सफलता मिलेगी, बल्कि पर्यावरण सुरक्षा, कम खर्चीली खेती होने के साथ गोपालन का काम भी लाभकारी बन सकता है। कृषि कानूनों की वापसी के बाद प्रधानमंत्री जिस प्रकार किसानों की आय दोगुनी करने के दूसरे प्रयासों के साथ नई शुरुआत के प्रति उत्साहित हैं, उसमें 16 दिसंबर को होने वाला यह आयोजन मील का पत्थर साबित हो सकता है।

प्राकृतिक खेती कई मानवीय-प्राकृतिक व्याधियों का एक साथ निराकरण करती है। गत कुछ वर्षो और विशेषकर कोरोना-पश्चात की परिस्थितियों ने यह बता दिया है कि हम प्रकृति के लिए अपनी अराजक गतिविधियों से परेशानी खड़ी करेंगे तो हम स्वयं भी अछूते नहीं रह सकते। इसलिए प्रकृति और मानव के संबंधों को पुनर्परिभाषित करने के साथ उसी अनुरूप वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। हम वायु और जल प्रदूषण की चर्चा तो करते हैं, लेकिन धरती के बाह्य आवरण के विषैले होने की उतनी चर्चा नहीं होती। हरित क्रांति के दौरान कृषि यंत्रों और रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन इसने धरती की कृषि योग्य उपजाऊ परत को विषैला कर दिया।

इस विष ने न केवल खेतों से मित्र कीटों और जीवाणुओं को नष्ट किया, बल्कि वर्षा ऋतु में यह विष बारिश के पानी के साथ बहकर बरसाती नालों और सहायक नदियों को दूषित करता है, जहां से यह गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों को प्रदूषित करता है। यानी यह जल प्रदूषण या नदी प्रदूषण का बड़ा कारण बनता है। कृषि यंत्रों के प्रयोग से गोवंश की उपयोगिता पर चोट पहुंची है। लोग केवल दूध भर के लिए गोपालन करने लगे, जबकि उसकी अन्य उपयोगिताओं का दोहन नहीं हो सका या जो होता था उस पर विराम लग गया। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादित वस्तुएं भी विषैली होने से अछूती नहीं रहीं। बीज, खाद, पानी की लागत बढ़ने और बाजार की उपेक्षा से किसान ऋण के जाल में फंसकर आत्महत्या तक कर रहे हैं। शून्य लागत प्राकृतिक खेती इन कई सारी समस्याओं के समाधान की ओर ले जाती है। इस पद्धति से खेती में प्रयोग होने वाली सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति करती है और बाजार से एक भी चीज नहीं खरीदनी पड़ती। यहां तक कि बीज भी।

प्राकृतिक खेती की अवधारणा इस मान्यता और प्रयोग पर आधारित है कि फसल के लिए कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रोजन, पानी और सौर ऊर्जा की आवश्यकता होती है और ये सब प्रकृति के भंडार से सहज उपलब्ध हैं। आवश्यकता केवल खेत में उस वातावरण के निर्माण की है जिससे इन चारों प्राकृतिक अवयवों का संयोजन किया जा सके।

शुरुआत में यह आशंका व्यक्त की गई थी कि प्राकृतिक खेती से उत्पादन कम मिलता है। यह कुछ हद तक सही है, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं। उदाहरण के लिए सीतापुर की बिसवां तहसील के किसान अशोक गुप्ता बताते हैं कि पिछले पांच वर्षो से आठ एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती कर अश्वगंधा, शतावर, कैमोगिल (ग्रीन टी) जैसे औषधीय पौधों के अलावा प्याज, लहसुन, चना, धनिया उगाते हैं। इस पद्धति से उगाई फसल के रसायनमुक्त, स्वाद और स्वास्थ्यवर्धक होने के कारण दोगुने से अधिक दाम मिलते हैं, जबकि लागत के नाम पर केवल श्रम और कुछ भी नहीं। लखनऊ में केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) में औषधीय फसलें हाथोंहाथ बिक जाती हैं। इस पद्धति में पानी भी साधारण की अपेक्षा 10 प्रतिशत मिलता है। जीवामृत के प्रयोग से धीरे-धीरे खेत में मित्र कीटों और जीवाणुओं की मात्र बढ़ती है जो मृदा में शिराओं का निर्माण करते हैं जिससे वर्षाजल शोषित होकर भूमि में पहुंचता और इसकी नमी से फसल को जीवन मिलता है।

उत्तर प्रदेश में शून्य लागत प्राकृतिक खेती के प्रचार-प्रसार और प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत संगठन लोकभारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बृजेंद्र पाल सिंह बताते हैं कि उन्होंने पांच-छह वर्षो से प्राकृतिक खेती पर काम करना शुरू किया। तब से उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है। शून्य लागत आधारित खेती पर चर्चा से इन किसानों की आशाओं-आकांक्षाओं को नई उमंग मिली है। इससे किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य भी पूरा होगा।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.