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फिल्‍मों के लिहाज से शानदार रहा 2019, हैशटैग से प्रेरित रही कुछ सफल फिल्‍में

वर्ष 2019 फिल्‍मों के लिहाज से काफी शानदार रहा है। बीते वर्षों से हैशटैग पर फिल्म बनने की जो शुरुआत हुई है उसकी कामयाबी से यह एक ट्रेंड बनता जा रहा है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 29 Dec 2019 05:32 PM (IST)Updated: Sun, 29 Dec 2019 11:59 PM (IST)
फिल्‍मों के लिहाज से शानदार रहा 2019, हैशटैग से प्रेरित रही कुछ सफल फिल्‍में
फिल्‍मों के लिहाज से शानदार रहा 2019, हैशटैग से प्रेरित रही कुछ सफल फिल्‍में

अनंत विजय। देश में आर्थिक मंदी पर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान का खूब मजाक बना था। रविशंकर प्रसाद ने तब कहा था कि जब एक दिन में फिल्में सौ करोड़ से अधिक कमा रही हैं तो मंदी कैसे हो सकता है। जब उनका यह बयान आया था तब उसका ना सिर्फ मजाक बना था, बल्कि विपक्ष समेत कई स्वतंत्र स्तंभकारों ने रविशंकर प्रसाद को घेरा था। टेलीविजन चैनलों पर बहस भी हुई थी। कई लोगों ने रवि बाबू के इस बयान को गंभीर मुद्दे को हल्के में लेनेवाला करार दिया था। बाद में इस मुद्दे पर सफाई आदि भी आई। लेकिन अब जो आंकड़ें आ रहे हैं वो इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि कम से कम हिंदी फिल्म उद्योग मंदी से प्रभावित नहीं है। रविशंकर प्रसाद भले ही मजाक में कह रहे हों, लेकिन अगर किसी सेक्टर में ग्रोथ 30 प्रतिशत से अधिक हो तो वहां मंदी जैसी बात तो नहीं ही कही जा सकती है। वर्ष 2019 में फिल्मों के कारोबार का आंकड़ा 4,000 करोड़ को पार कर गया है। एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष फिल्मों का कारोबार 4,350 करोड़ से ज्यादा का रहा जो पिछले वर्ष की तुलना में हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा है।

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इस वर्ष एक हिंदी फिल्म ‘वॉर’ ने 300 करोड़ से अधिक का बिजनेस किया, जबकि तीन हिंदी फिल्मों ने 200 करोड़ रुपये से ज्यादा और दो ने 200 करोड़ रुपये का कारोबार किया। इसके अलावा तीन फिल्में ऐसी रहीं जिनका कारोबार 150 करोड़ से अधिक रहा। इस लिहाज से देखें तो 2019 फिल्मों के कारोबार के लिहाज से अब तक का सबसे अधिक मुनाफा देने वाला वर्ष बन गया। ‘वॉर’ के बाद ‘कबीर सिंह’ ने 280 करोड़ से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई थी लेकिन बावजूद इसके दर्शकों ने इसको द किया। ‘कबीर सिंह’ तेलुगू फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ का हिंदी रीमेक है। इस फिल्म में शाहिद कपूर ने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है जिसको बहुत जल्दी गुस्सा आता है। सर्जन बनने के बाद भी वह शराब पीकर और ड्रग्स के डोज लेकर ऑपरेशन करता है।

महिलाओं के प्रति हिंसा उसके व्यवहार उसके काम-काज के दौरान दिखता है। यह वही दौर था जब ‘उरी’ और ‘केसरी’ जैसी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जोरदार कमाई कर रही थीं तो दूसरी तरफ ‘कबीर सिंह’ जैसी फिल्म को भी दर्शक हाथों हाथ ले रहे थे। कबीर सिंह के अलावा ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’ ने भी ढाई सौ करोड़ रुपये से अधिक का बिजनेस  किया। ‘हाउसफुल 4’ और ‘टोटल धमाल’ आदि भी कमाई में अव्वल रहीं। इस वर्ष हिंदी सिनेमा में एक और प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। वो है देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मों का जमकर कारोबार करना। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में राष्ट्रवाद को लेकर काफी बातें होने लगीं थीं। राष्ट्रवाद के पक्ष और विपक्ष में तर्क-कुतर्क भी हुए, हिंसा से लेकर आंदोलन भी हुए। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद कई बार ट्रेंड भी करता रहता है। राष्ट्रवाद का ये विमर्श अब भी अलग अलग रूपों में जारी है।

फिल्मकारों ने राष्ट्रवाद के इस विमर्श को अपनी फिल्मों का विषय बनाया और जमकर मुनाफा कमाया। अगर हम सिर्फ नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में बनी फिल्मों पर नजर डालते हैं तो ये पाते हैं कि इस दौर में तीन दर्जन ने अधिक फिल्में ऐसी बनीं जिसमें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के साथ-साथ भारत और भारतीयता को सकारात्मकता के साथ पेश करनेवाली फिल्मों ने जमकर कमाई की। ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’ का उदाहरण तो सबके सामने है ही। इसके अलावा अगर हम ‘नाम शबाना’ और ‘गाजी अटैक’ जैसी फिल्मों को भी लें तो उसने अच्छा मुनाफा कमाया। पहले ज्यादातर ‘लगान’ जैसी फिल्में बनती थीं जिसमें अंग्रेजों से गुलामी का बदला लिया जाता था और देशप्रेम की भावना को उभार कर निर्माता निर्देशक दर्शकों को सिनेमा तक खींच कर लाते थे, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थितियां बदलने लगीं। अब तो देश के गौरव को स्थापित करनेवाली फिल्में दर्शकों को पसंद आने लगीं।

दर्शकों को देश की सफलता की कहानी भी पसंद आने लगी। ‘मिशन मंगल’ की सफलता इसकी एक बानगी भर है। इसमें भारत की अंतरिक्ष में कामयाबी की गौरव गाथा है। राष्ट्रवाद की लहर से फिल्म उद्योग अछूता नहीं रहा। इस तरह की फिल्मों की सफलता से हिंदी फिल्मों से खान साम्राज्य के दबदबे में कमी भी आ गई है। आमिर खान की ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ फ्लॉप रही। शाहरुख खान की 2019 में कोई फिल्म आई नहीं। इसके पहले ‘जीरो’ को दर्शक नकार चुके हैं। ले देकर सलमान खान अब भी मैदान में डटे हुए हैं। इससे अलग कुछ ऐसे चेहरे हिंदी फिल्मों में स्थापित हुए जिसमें लोग अपने जैसी छवि देखते हैं। आयुष्मान खुराना से लेकर विकी कौशल जैसे अभिनेताओं ने अपनी अदाकारी से खुद को तो स्थापित किया ही, फिल्मों को भी सफल बनाया। इन सबसे अलग हटकर एक और तथ्य है जिसकी ओर फिल्मकारों ने ध्यान दिया और वो सफल रहे।

पिछले पांच वर्षों से फिल्मकारों ने खबरों पर फिल्में बनानी शुरू कर दी हैं। जिस खबर को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चली और उसका हैशटैग ट्रेंड करने लगा उन खबरों पर फिल्म बनी। नोएडा में आरुषि तलवार हत्याकांड पर मेघना गुलजार ने ‘तलवार’ फिल्म बनाई। इसी तरह से लखनऊ में हुए एनकाउंटर और फिर परिवार का मुठभेड़ में मारे गए अपने लड़के का शव लेने से इन्कार कर देने की घटना चर्चा का विषय बनी थी। उस समय इस खबर को पूरे देश में एक मिसाल के तौर पर देखा गया था। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने इस घटना को केंद्र में रखकर फिल्म ‘मुल्क’ का निर्माण किया। यह फिल्म दर्शकों को खूब पसंद आई। अनुभव ने ही उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो बहनों की मौत और उनके शव पेड़ पर लटके मिलने की बेहद चर्चित खबर को केंद्र में रखकर ‘आर्टिकल 15’ बनाई।

इस खबर की भी देश-विदेश में चर्चा हुई थी। सीबीआइ जांच तक हुई थी। कई दिनों तक न्यूज चैनलों पर पेड़ से लटकी दो लड़कियों की तस्वीरों पर चर्चा की गई थी। इसी तरह से अलीगढ़ के एक समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी पर ‘अलीगढ़’ के नाम से फिल्म बनी। मेघना गुलजार अब ‘छपाक’ लेकर आ रही हैं जो एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी की कहानी है। इसमें दीपिका पादुकोण केंद्रीय भूमिका में हैं। हैशटैग पर फिल्म बनने की जो शुरुआत कुछ वर्ष पहले हुई थी वह 2019 में आकर और मजबूत हुई और अब इसने एक ट्रेंड का रूप ले लिया है। कुछ फिल्मकार इसको फिल्मों में यथार्थवादी कहानियों की वापसी के तौर पर देखते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की कहानियों से दर्शकों को उन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है जो खबरों से नहीं मिल पाता है।

फिल्मों में खबरों को फिक्शनलाइज करके दिखाया जाता है जिससे उनको ये छूट रहती है कि वो अपने हिसाब से खबर को उसके अंजाम तक पहुंचा सकें। इस प्रवृत्ति को फिल्म ‘मुल्क’ से लेकर ‘तलवार’ तक में देखा जा सकता है। इस तरह की फिल्मों के निर्देशकों को ये छूट भी मिल जाती है कि खबर को लेकर जन भावना के साथ अपनी फिल्म के क्लाइमेक्स को पहुंचा दे या फिर निर्देशक अपनी विचारधारा के हिसाब से दर्शकों को ज्ञान दे। लेकिन जनभावना अगर छूटती है तो फिल्म की सफलता संदिग्ध हो जाती है जिसका उदाहरण ‘अलीगढ़’ फिल्म की असफलता में देखा जा सकता है। ‘तलवार’ में मेघना ने लगभग जन भावना के अनुरूप ही फिल्म का क्लाइमेक्स रचा। वर्ष 2019 को हम फिल्मों के इतिहास में कारोबार के लिहाज से अब तक के सबसे सफलतम वर्ष में रख सकते हैं। इस वर्ष को फिल्मों के अधिक लोकतांत्रिक होने के वर्ष के रूप में भी याद किया जा सकता है। 


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