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World Environment Day : प्रकृति जो सबक देती है, वह किताबों में नहीं मिल सकता

प्रकृति में उपचारात्मक गुण है जो सानिध्य में आते ही राहत देती है। यदि इन दिनों बाहर कम निकल पाने के कारण तनाव हो रहा है तो इसका भी एक ठोस कारण है।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Thu, 04 Jun 2020 02:54 PM (IST)Updated: Thu, 04 Jun 2020 02:54 PM (IST)
World Environment Day : प्रकृति जो सबक देती है, वह किताबों में नहीं मिल सकता

नई दिल्ली [सीमा झा]। प्रकृति के खुले आंगन को शायद ही कभी इस तरह याद किया गया होगा। प्रकृति के साथ अपने रिश्‍ते को बेहतर करने का यह अहसास कितना खास है। हम खुश हैं कि प्रदूषण कम हो रहा है।

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केरल में गर्भवती हथिनी की मौत ने बेशक हमें आहत किया है पर क्‍या प्रकृि‍ति और पशु पक्षियों को लेकर हमारी चिंता आगे भी रहेगी या पहले जैसी उदासीनता का हो जाएगी शिकार? ऐसे सवालों को सुलझाना है तो यह बेहतर समय है कि हम अपनी आदतों और सोच को बदलें। क्या करें? इस बारे में विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर इनका विश्लेषण भी किया जा सकता है। 

पहाड़ की विराटता के आगे अपनी सूक्ष्मता का आभास विचलित नहीं करता। यह सुख देता है। ऊंचे दरख्तों के पास बस खड़े हो जाएं, जीवन सरल लगने लगता है। बहती नदी के किनारे बैठिए, वह जैसे बहाव में रहने का संदेश देती है। सागर की मौजें मन के आवेगों की तरह ही तो हैं, जो एक अलग संदेश देती हैं। जाने-माने कवि अज्ञेय ने अपनी कविता में बयां किया- 'कहा सागर ने- चुप रहो।

मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूं, अपनी मर्यादा तुम सहो।' यानी प्रकृति जो सबक देती है, वह किताबों में नहीं मिल सकता। वरिष्ठ मनोचिकित्सक और हीलिंग थेरेपी की विशेषज्ञ डॉक्टर चांदनी टग्नैत के अनुसार, प्रकृति में उपचारात्मक गुण है, जो सानिध्य में आते ही राहत देती है। यदि इन दिनों बाहर कम निकल पाने के कारण तनाव हो रहा है तो इसका भी एक ठोस कारण है।

चांदनी टग्नैत कहती हैं, 'आप कुछ दिन दफ्तर नहीं जाते और जब इसके लिए बाहर निकलते हैं तो अचानक हील यानी तरोताजा महसूस करते हैं। यह दफ्तर जाने की वजह से नहीं बल्कि इस दौरान प्रकृति से सीधे संपर्क में आने के कारण होता है। जब-जब यह संपर्क टूटता है, मन ही नहीं शारीरिक परेशानियां भी पैदा होती हैं।’

ऐसी खुशी और कहां

कुदरत का स्पर्श सहज और सुलभ है। वाट्सएप या सोशल मीडिया पर मिला सुंदर वर्चुअल गुलाब या सुंदर नजारों या यात्राओं की तस्वीरें वह एहसास नहीं दे सकतीं जो चंद पलों में घर में लगे आंगन में बढ़ते-फूलते पौधे दे जाते हैं। मोटापा, अवसाद आदि जैसी समस्‍याएं यदि इस दौर में तेजी से बढ़ रही हैं तो इसका एक बड़ा कारण इंडोर यानी चारदीवारी के भीतर ज्यादा समय बिताना है। 

बेशक कोरोना संकट के कारण घर में रहना मजबूरी है पर क्या आप आमतौर पर बाहर जाने की खुशी को दूसरी चीजों से कम आंकते हैं? यदि हां, तो आप अकेले नहीं। इस विषय पर कनाडा की ट्रेंट यूनिवर्सिटी की मनोविज्ञान विषय की प्रोफेसर लिसा निस्बत ने शोध किया। वे कहती हैं, 'यह सच है, लोग खुली हवा में निकलने की खुशी से अधिक शॉपिंग या टीवी से मिलने वाली खुशी को आंकते हैं। हालांकि बदली परिस्‍थितियों में अब वे इस सोच को बदल रहे हैं और अपनी आदतों को भी।’ 

भागमभाग में भुला बैठे सच

आलीशान जीवन, रहन-सहन, तौर तरीके तब बेमतलब के मालूम होने लगे हैं, जब खुद जीवन पर संकट महसूस होने लगा है। ज्‍यादातर लोगों को ब्रांडेड कपड़े, गाडिय़ां, महंगे साजो-सामान अब कीमती नहीं लग रहे। अब तो रोज एहसास हो रहा है कि एक जोड़ी कपड़े और चंद बुनियादी जरूरतों के सामान ही काफी हैं जिंदगी के लिए। शिक्षिका नीलांजना कहती हैं, 'अब अक्सर ग्लानि महसूस होती है कि भागमभाग में कितनी बड़ी भूल कर बैठे थे हम। प्रकृति का बेइंतहा दोहन किया।

अब जब लंबे लॉकडाउन के कारण प्रकृति खुद ब खुद प्रदूषणमुक्त़ होने लगीं तो हम जान गए कि हमारी बिसात क्या है।‘ यहां मनोचिकित्सक चांदनी टग्नैत कहती हैं, 'एक चीज तय है हम विचार बदलेंगे तो वे चीजें आपके पास अपने आप आएंगी जो जरूरी हैं। विचार बदलने के लिए आदत डालनी होगी, अन्यथा इच्छाएं आसानी से हमें नियंत्रित करती रहेंगी।’

जब 'पंचतत्व’ से टूटता है जुड़ाव

प्रकृति में उपचारात्मक गुण हैं, जो हमारे मन को पल में राहत दे सकती है। इसका पूर्वाभास साइरस द ग्रेट को 2500 साल पहले ही हो गया था। तभी उन्‍होंने पर्सिया की व्यस्त राजधानी के लोगों को सुकून देने के लिए बड़े-बड़े बाग बनवाए थे। आकाश, जल, हवा, अग्नि और पृथ्वी। इन पांच तत्वों से पूरा ब्रह्मांड बना है, इसी का अंश हमारे भीतर भी है।

प्रकृति से लगातार संपर्क बना रहे तो वह जुड़ाव मन और शरीर पर पडऩा स्वाभाविक है। जैसे डॉक्टर चांदनी टग्नैत के अनुसार, 'यदि आपका पृथ्वी तत्व से संपर्क कम है। आप इसे महसूस नहीं करते। नंगे पांव नहीं रह पाते, मन अस्थिर रहता है और यह अस्थिरता जीवन के हर पक्ष में महसूस होती है।

पैनिक अटैक और घबराहट, पेट की समस्या का इससे संबंध है। वहीं, राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान, पुणे की निदेशक डॉक्टर के सत्या लक्ष्‍मी कहती हैं, 'पंच तत्व थेरेपी प्राकृतिक चिकित्सा का अभिन्न अंग है, जो हमारी प्राचीन पद्धति है पर यह आधुनिक इंसान की बड़ी धरोहर है। व्‍यक्‍ति को सकारात्मक ऊर्जा से भरने की इसमें अपार क्षमता है।’

सूक्ष्म जीव से भयभीत नहीं, सतर्क रहें

यदि आप सूक्ष्म जीवों से भयभीत हैं तो इस भय को मन से निकाल दें। ये सूक्ष्मजीव भी प्रकृति का हिस्सा हैं और जीवन प्रक्रिया में शामिल हैं जैसे हम हैं। हम पानी पीएं, सांस लें या खाना खाएं, तमाम सारे बैक्‍टीरिया यानी जीवाणु साथ होते हैं। पाचन क्रिया तो बिना सूक्ष्‍म जीवों के संभव ही नहीं। वायरस यानी विषाणु के कारण यह आपदा है, पर हमें यह नहीं लगना चाहिए कि यह जीवन का अंत है। प्रकृति हमारा घर है। यहां महफूज रहने के लिए हमें इसके साथ अधिक से अधिक जुड़ाव पैदा करना है। (प्रो. (डॉ.) के सत्या लक्ष्मी, निदेशक, राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा, संस्थान, पुणे)   

शोध की बात

अनथक दिमाग को मिले आराम

अमेरिका की उटाह यूनिवर्सिर्टी के मनोवैज्ञानिक डेविड स्ट्रेंयर के मुताबिक, यदि आप बहुत सारे कार्यों के बारे में एक साथ सोचते हैं या करते हैं तो दिमाग दुर्घटना का शिकार हो सकता है। दुर्भाग्य से यह आज के दौर का सच है। वे कहते हैं, ‘दिमाग बस तीन पौंड की अनथक मशीन है लेकिन यह भी थक सकता है। पर यदि हम धीरे चलना सीख जाएं और प्रकृति के सानिध्य में रहें तो दिमाग की ऊर्जा वापस लौटती रहेगी।’ उनके मुताबिक, खुले प्रांगण में, हरियाली में ‘प्रोफ्रंटल ब्रेन’ जो दिमाग का कमांड सेंटर है वह आराम करने लगता है। उस वक्त यह उस मशीन की तरह होता है, जिसका हम बहुत बार प्रयोग कर चुके होते हैं।

‘श्‍मशानी वैराग’ के न हो जाएं शिकार

यदि आप इस समय प्रकृति का गुणगान और इसे अब आगे से उसे नुकसान न पहुंचाने के खुद से बड़े वादे कर रहे हैं। मन कई संकल्पों से भर गया है तो संभव है कि आप 'श्‍मशानी वैराग’ के शिकार हो जाएं यानी चीजों के खोते ही कुछ दिन के विलाप के बाद दोबारा पहले वाले ढर्रे पर लौटने की मनोदशा। जैसे, किसी की मौत के बाद हम खूब रोते हैं। कुछ दिन तक मन में सुविचारों का वास होता है लेकिन जल्दी ही आप वापस गलतियां करने लग जाते हैं। संभव है इस बार भी यही हो।

स्थिति सामान्य होने के बाद बहाने तलाशना शुरू कर दें कि मुझे बहुत काम है, इन चीजों के लिए समय नहीं है। दरअसल, हमारी स्मरण शक्ति बहुत छोटी अवधि की होती है। जल्दी भूल जाते हैं हम, जब तक कि खुद को बार-बार याद न दिलाया जाए। यह काम मुश्किल लग रहा है तो आपको किसी गुरु, मेंटर की मदद लेनी चाहिए। (डॉ. चांदनी टग्नैत, मनोचिकित्सक, थेरेपिस्ट)

घर पर प्रकृति का सानिध्य पाने का तरीका-

- आंगन, बॉलकनी आदि में पौधे लगाना ही काफी नहीं, उनसे लगाव पैदा करें।

- बागवानी की जगह नहीं तो खिड़की से बाहर आसमान को निहारें। इस दौरान विचारों को तटस्थ भाव से महसूस करें।

- एक बाल्टी या टब में पानी लें। उसमें थोड़ा नमक डालकर दस से बीस मिनट तक पैर डालकर जल तत्व को अपने भीतर महसूस करें।

- पानी पीने या भोजन ग्रहण करते समय उस पूरी प्रक्रिया को महसूस करें। केवल उस पल में रहें।

- खाली जमीन यानी मिटटी अथवा घास पर नंगे पांव चलने का अभ्यास करें और सकारात्मक ऊर्जा के मन में संचार को आंखें बंद कर महसूस करें।

हैशटेग फॉर नेचर अभियान

यूनाइटेड नेशंस एनवॉयर्नमेंट प्रोग्राम ने टि्वटर पर हैशटेग फॉर नेचर अभियान चलाया है। इसके मंच पर दुनियाभर से प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। लोग प्रकृति प्रेम और इस आपदा से मिले सबक के साथ आगे प्रकृति संरक्षण के लिए क्या करेंगे, इस बारे में अपनी योजना बता रहे हैं। बॉलीवुड अभिनेत्री दिया मिर्जा ने भी ट्वीट कर अपनी बात शेयर की, 'कोविड 19 के इस दौर ने सीख दी कि जीवन को अधिक से अधिक सामान्य बनाया जाए। चीजों की बर्बादी कम से कम करना है और हर दिन इसके तरीके तलाशने हैं।‘

कुदरत और हम

- यदि आप इसलिए उदास हैं कि सूरज आपकी जिंदगी में नहीं रहा तो आपके आंसू सितारों को देखने से रोक देंगे। (रवींद्रनाथ टैगोर)

- क्या आपने नोटिस किया कि फूल इस पल या जीवन के प्रति कितने समर्पित हैं! 

(एकार्ट तोले, दार्शनिक लेखक, जर्मनी)

- अपना चेहरा सूर्य के प्रकाश की तरफ रखिए, आपको कोई परछाई नहीं दिखायी देगी। 

(हेलन केलर, लेखिका, अमेरिका) 

पतझड़ एक दूसरे वसंत की तरह है, जब सभी पत्‍तियां फूल बन जाती हें। (अल्बर्ट कामू, दार्शनिक, फ्रांस) 

- ये मत भूलें कि धरती आपके पैरों को महसूस कर खुश होती है और हवा आपके बालों से खेलना चाहती है।  

(खलील जिब्रान, लेखक, लेबनान) 


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