World Animal Day 2020 : पशुओं को बचाने की देश के किशोरों-युवाओं की मुहिम
वर्ष 1925 में जर्मनी के हेनरिक जिमरमैन ने पहली बार वर्ल्ड एनिमेल डे मनाया था। वे मैन ऐंड डॉग नाम से एक मैगजीन का प्रकाशन करते थे ताकि पशुओं के प्रति समाज में जागरूकता लाई जा सके उनके कल्याण के बारे में सोचा जा सके।
अंशु सिंह। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण अकेले भारत में अनेक जंगली जानवर विलुप्तप्राय जीव की श्रेणी में पहुंच गए हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन की वजह से भी कई जंगली जीवों पर अस्तित्व के संकट का खतरा मंडरा रहा है। दूसरी ओर,स्ट्रे डॉग्स या सड़क पर रहने वाले पशुओं का जीवन भी कम मुश्किलों भरा नहीं है। आए दिन सड़क दुर्घटनाओं में उनकी मौत या हिंसा का शिकार होने की खबरें देखने-सुनने को मिलती हैं। ऐसे में देश के किशोरों-युवाओं ने उनकी तकलीफ को समझा है और वे आगे बढ़कर उपलब्ध करा रहे हैं उन्हें भोजन से लेकर आश्रय तक...
संकट के समय इंसानों के बारे में तो सभी सोचते हैं,लेकिन जानवरों को भी मदद की जरूरत होती है। उनके साथ भी हादसे होते हैं। उन्हें भूख लगती है। उस पर किसी का अधिक ध्यान नहीं जाता। ऐसे में भोपाल की चांदनी ने स्ट्रीट एवं स्ट्रे एनिमल्स के लिए‘काइंडनेस: द यूनिवर्सिल लैंग्वेज ऑफ लव’ नाम से एक पहल की है। इसके तहत वे जानवरों का टीकाकरण कराने से लेकर उन्हें भोजन आदि देती हैं। चांदनी बताती हैं,‘हमने अलग-अलग शहरों में ‘वॉटर बाउल’ अभियान चलाया हुआ है, जिसमें लोगों से अपने घर के बाहर बर्तन में पानी भरकर रखने की अपील की जाती है। हमारी कोशिश लोगों के भ्रम को तोड़ना है कि सड़क पर रहने वाले कुत्ते सिर्फ इंसानों को काटते हैं। जबकि कोई नुकसान तभी पहुंचाता है,जब उसे गलत तरीके से छेड़ा जाता है।’पशु कार्यकर्ताओं के अनुसार,नि:संदेह समाज में जागरूकता एवं संवेदनशीलता की कमी है। लेकिन लोगों को अगर बताया जाए कि ये पशु किस तरह उनके इलाके,मोहल्ले, सोसायटी आदि की सुरक्षा और चूहों आदि से बचाव करते हैं,तो मुमकिन है कि वे मदद के लिए आगे आएंगे। कहने का मतलब है कि एनिमल-ह्यूमन संघर्ष को प्यार से सुलझाया जा सकता है।
कॉलेज कैंपस में शेल्टर होम
हर बच्चे की भांति तेलंगाना के जबी खान को भी बचपन से पशुओं से प्रेम रहा है। 13 साल के थे, जब उन्हें सड़क पर कुत्ते का एक बच्चा मिला और वह उसे लेकर अपने घर आ गए। जबी बताते हैं,‘वह ठीक से खाना नहीं खा रहा था। हम उसे वेटरिनरी डॉक्टर के पास लेकर गए। वहां पता चला कि उसके साथ सब ठीक नहीं है। उसे वापस घर लेकर आ गए। लेकिन अगली सुबह उसने हरकत करनी बंद कर दी थी। इस घटना ने मुझे अंदर तक आहत कर दिया और फिर मैंने इनके लिए कुछ करने का फैसला लिया।’जबी ने काफी रिसर्च किए, जिससे उन्हें मालूम पड़ा कि कैसे उपेक्षा के कारण लाखों जानवर तकलीफ में जीते रहते हैं और अंतत: उनकी मौत हो जाती है। उन्होंने स्वयंसेवी संगठनों के साथ वॉलंटियरिंग शुरू किया।
जब 16 वर्ष के हुए, तो घर के करीब किराये पर जानवरों के लिए एक शेल्टर होम लिया। अगले दो वर्षों तक उसे चलाया। लेकिन फिर उनका दाखिला इंजीनियिरंग कॉलेज में हो गया और पढ़ाई के साथ शेल्टर होम को मैनेज करना मुश्किल होने लगा। जबी बताते हैं, ‘मैं परेशान था कि क्या करूं? तभी खयाल आया कि क्यों न कॉलेज में ही शेल्टर होम शुरू किया जाए? मैंने चेयरमैन सर से बात की। उन्हें समझाया कि कैसे शैक्षणिक संस्थानों में स्टूडेंट्स की बुद्धिमत्ता के विकास पर तो काफी जोर दिया जाता है, लेकिन उनके दिल में पशुओं के प्रति संवदेना जाग्रत नहीं कर पाते। वे मेरे विचारों से सहमत हो गए और कॉलेज कैंपस के एक कोने में शेल्टर होम के लिए जगह मुहैया करा दी। इस तरह, केजी रेड्डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी विश्व का पहला शिक्षण संस्थान बना जहां स्टूडेंट्स ही इन लावारिस पशुओं, कुत्तों की देखभाल करते हैं।’
माइक्रोचिप से पशुओं की रक्षा
पिछले साल ही इंजीनियरिंग पूरी करने वाले जबी के अनुसार,वे एक सस्टेनेबल मॉडल तैयार करने में कामयाब रहे हैं। कॉलेज में एक अनूठी योजना शुरू की गई है, जिसके तहत एनिमिल एक्टिविज्म से जुड़े युवाओं के लिए नि:शुल्क एक सीट उपलब्ध कराने के साथ उन्हें चार लाख रुपये की स्कॉलरशिप भी प्रदान की जाएगी। इसके बदले उन्हें शेल्टर होम के पशुओं की जिम्मेदारी लेनी होगी। जबी ने तेलंगाना सरकार के साथ मिलकर एक एनिमल सैंक्चुअरी भी शुरू किया है, जहां कुत्तों के साथ अन्य पशुओं की भी देखभाल की जाएगी। वे चाहते हैं कि इस समस्या का जड़ से समाधान निकाला जाए। जबी कहते हैं,‘जब तक एक जवाबदेही तय नहीं की जाएगी, तो लोग यूं ही पशुओं को सड़क पर छोड़ते रहेंगे। इस क्रम को तोड़ना जरूरी है,इसलिए हम कानून के साथ कुछ इनोवेटिव आइडियाज पर काम कर रहे हैं। जैसे, हम तेलंगाना के पशुपालन विभाग के सहयोग से प्रत्येक पालतू पशु में माइक्रोचिप लगाने का काम कर रहे हैं। इसमें पशुओं के शरीर में माइक्रोचिप इंजेक्ट किया जाता है, जिस पर एक यूनीक आइडेंटिफिकेशन नंबर होता है। यह ओनर का आधार या पैन कार्ड नंबर हो सकता है।’पालतू पशुओं के कारोबारियों से लेकर पेट ओनर्स को यह चिप लगवानी होगी। वेटरिनरी डॉक्टर उन्हीं पशुओं को देखेंगे, जिनमें माइक्रोचिप लगा होगा। इससे एक डाटा बेस तैयार करने में मदद मिलेगी और दोषी व्यक्तियों की पहचान आसान होगी, ताकि उन्हें रेड फ्लैग दिया जा सके। जबी के अनुसार, हम सभी पेट थेरेपी की महत्ता को जानते हैं। इसी के तहत जेल के कैदियों के साथ एक कार्यक्रम शुरू करने की योजना है,जहां हरेक कैदी को हफ्ते में दो दिन एक पशु की देखभाल करनी होगी। इससे जब वे बाहर आएंगे, तो उनमें दया की भावना अधिक होगी। हम कैंसर अस्पतालों, स्कूलों में भी इस तरह के कार्यक्रम शुरू करने पर विचार कर रहे हैं।
देसी ब्रीड के प्रति लोगों का रवैया असंवेदनशील
बीते आठ-नौ वर्षों से एनिमल एक्टिविज्म से जुड़ी नोएडा की तरुणिमा को भी बचपन से ही पशुओं से लगाव रहा है। जब कॉलेज पहुंचीं, तो वहीं करीब में एक एनिमल शेल्टर था जहां वे सप्ताहांत पर जाया करती थीं। स्वेच्छा से जो हो सकता था,करती थीं। उसी दौरान उन्हें पशुओं के साथ होने वाली हिंसा व अन्य मुश्किलों की जानकारी मिली। उसके बाद उन्होंने अन्य संगठनों के साथ काम करना शुरू कर दिया। तरुणिमा बताती हैं,‘मैं अपने स्तर से हर संभव मदद करने की कोशिश करती हूं। चाहे किसी घायल पशु को वेटरिनरी चिकित्सक के पास ले जाना हो या उन्हें खाना देना हो। इसके अलावा, पशुओं के एडॉप्शन में भी मदद करती हूं।’ लॉयर होने के साथ ही सामाजिक क्षेत्र में गहरी रुचि रखने वाली तरुणिमा की मानें, तो हमारे यहां देसी ब्रीड के कुत्तों को लेकर समाज का नजरिया सकारात्मक नहीं है।
लोग महंगे विदेशी कुत्ते खरीद कर घरों में तो रखते हैं, लेकिन सड़क पर रहने वाले कुत्तों को बीमारी फैलाने वाला समझते हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं कि पप्पी को रखेंगे, लेकिन जैसे ही वे बड़े होते हैं या उन्हें कोई बीमारी आदि होती है, तो संभाल न पाने के कारण उसे सड़क पर छोड़ आते हैं, जहां वे अक्सर दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। तरुणिमा की मानें, तो देश में पशुओं की सुरक्षा के लिए बने कानून नाकाफी हैं। हमारे यहां प्रिवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टु एनिमल्स एक्ट 1960 में बना था, जिसमें कभी कोई संशोधन नहीं हुआ और न ही उसे सख्ती से लागू किया जा सका। जैसे, सड़क पर रहने वाले कुत्ते की किसी दुर्घटना में मौत का जुर्माना मात्र 50 रुपये है यानी उनकी जान की कोई कीमत नहीं है और इस कारण लोगों के मन में भय भी नहीं है। इसी तरह, एनिमल बर्थ कंट्रोल प्रोग्राम को भी सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका है। सबको साथ मिलकर काम करना होता है, तभी बदलाव आता है।
मनाते हैं ‘वर्ल्ड एनिमल डे’
वर्ष 1925 में जर्मनी के हेनरिक जिमरमैन ने पहली बार वर्ल्ड एनिमेल डे मनाया था। वे मैन ऐंड डॉग नाम से एक मैगजीन का प्रकाशन करते थे, ताकि पशुओं के प्रति समाज में जागरूकता लाई जा सके, उनके कल्याण के बारे में सोचा जा सके। 4 अक्टूबर को असीसी के सेंट फ्रांसिस का फीस्ट डे भी होता है। कैथोलिक सेंट फ्रांसिस को पशुओं से बेहद लगाव था। आगे चलकर वर्ष 2003 में ब्रिटेन स्थित चैरिटी संगठन नेचर वॉच फाउंडेशन ने विश्व भर के पशु प्रेमियों के लिए कार्यक्रम आयोजित करने शुरू किए। इस दिन पालतू के साथ-साथ जंगली एवं विलुप्तप्राय जानवरों के पक्ष में आवाज उठायी जाती है। लोगों को याद दिलाया जाता है कि सिर्फ घर में रहने वाले पशुओं का ही नहीं, बल्कि धरती पर रहने वाले हरेक पशु का सम्मान करना चाहिए।
पशु-पक्षियों के आश्रय की चिंता
सूरत की 17 वर्षीय खुशी चिंदालिया को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(टुंजा इको जेनरेशन) ने भारत में अपना ग्रीन एंबेसेडर बनाया है। पर्यावरण के प्रति विशेष रुचि रखने वाली खुशी भारत के उन 100 युवाओं में शामिल हैं, जिनके लेख को यूनेस्को की किताब-‘ईयर 1 एसी (आफ्टर कोरोनावायरस):एसेज बाय 100 यंग इंडियंस’ में शामिल किया जाएगा। खुशी की मानें,तो उनके घर के आसपास काफी हरियाली हुआ करती थी, जहां पेड़ों पर पक्षियों का बसेरा होता था। लेकिन धीरे-धीरे पेड़ कम होते गए, तो पशु-पक्षियों का आना-जाना भी कम हो गया। इसके बाद ही उन्होंने इस मुद्दे पर जागरूकता लाने का प्रयास शुरू किया।