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कूटनीतिक मान्‍यता को लेकर आखिर क्‍यों बेचैन है तालिबान, जानें क्‍या है इसके मायने, चीन ने दी हरी झंडी

ऐसे में यक्ष प्रश्‍न यह है कि क्‍या दुनिया के लोकतांत्रिक देश तालिबान हुकूमत को मान्‍यता देंगे। आखिर यह कूटनीतिक मान्‍यता क्‍या है। किसी देश के लिए इसका क्‍या महत्‍व है। इस मान्‍यता का तालिबान हुकूमत पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा।

By Ramesh MishraEdited By: Published: Sun, 22 Aug 2021 12:02 PM (IST)Updated: Sun, 22 Aug 2021 02:53 PM (IST)
कूटनीतिक मान्‍यता को लेकर आखिर क्‍यों बेचैन है तालिबान, जानें क्‍या है इसके मायने, चीन ने दी हरी झंडी
कूटनीतिक मान्‍यता को लेकर आखिर क्‍यों बेचैन है तालिबान। फाइल फोटो।

नई दिल्‍ली, ऑनलाइन डेस्‍क। अफगानिस्‍तान में तालिबान कब्‍जे के बाद यह सवाल उठने लगा है कि दुनिया में कौन से देश तालिबान शासन को कूटनीतिक मान्‍यता देंगे। दुनिया के मुल्‍कों के समक्ष अब तालिबान शासन को लेकर यह सवाल खड़े हो गए हैं। यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्‍योंकि अफगानिस्‍तान में एक लोकतांत्रिक सरकार पर तालिबान चरमप‍ंथ‍ियों ने बंदूक के बल पर कब्‍जा किया है। ऐसे में यक्ष प्रश्‍न यह है कि क्‍या दुनिया के लोकतांत्रिक देश तालिबान हुकूमत को मान्‍यता देंगे। आखिर यह कूटनीतिक मान्‍यता क्‍या है। किसी देश के लिए इसका क्‍या महत्‍व है। इस मान्‍यता का तालिबान हुकूमत पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा। 

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तालिबान को किन देशों ने दी मान्‍यता

  • तालिबान ने 15 अगस्त को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया है। राष्ट्रपति अशरफ गनी अफगानिस्तान छोड़ चुके हैं। इसके एक दिन बाद चीन ने औपचारिक तौर पर तालिबान शासन को मान्यता भी दे दी। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा कि चीन अफगान लोगों को अपना भाग्य तय करने के अधिकार का सम्मान करता है।
  • वर्ष 1996 में अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को पाकिस्तान, संयुक्‍त अरब अमीरात और सउदी अरब ने ही मान्यता दी थी। हालांकि, वर्ष 2021 में हालात बदले हुए हैं। इस बार कई देश तालिबान को मान्यता देने की तैयारी में हैं। चीन ने तो तालिबान शासन को मान्यता भी प्रदान कर दी है। उधर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अब तक अफगानिस्तान मसले पर दो बैठक हो चुकी है। दोनों ही बैठक में यह संकेत निकलकर आया कि ताकत के साथ जनता पर थोपी गई सरकार को मान्यता नहीं दी जाएगी। ब्रिटेन और नाइजर तो सीधे-सीधे यह बात कह चुके हैं। भारत ने अभी तक अपने पत्‍ते नहीं खोले हैं। हालांकि, भातर पूरे घटनाक्रम पर अपनी पैनी नजर बनाए हुए है।

तालिबान शासन और कूटनीतिक मान्‍यता

  • अंतरराष्‍ट्रीय जगत में कूटनीतिक मान्‍यता यानी दो देशों का एक दूसरे की आजादी को स्‍वीकार करना है। दरअसल, दो देशों के मध्‍य संबंधों का संचालन इसी के जरिए होता है। इसलिए अंतरराष्‍ट्रीय जगत में दो देशों के मध्‍य संबंधों में इसका खास महत्‍व है। मान्यता देना या न देना देशों की इच्छा पर निर्भर करता है।
  • यह एक तरह से यह कूटनीतिक संबंध बनाने का पहला पड़ाव है। एक स्वतंत्र देश जब किसी दूसरे देश को मान्यता देता है तो उन दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत होती है। मान्यता देना या न देना एक राजनीतिक निर्णय है। कूटनीतिक संबंध बनते हैं तो दोनों देश अतंरराष्‍ट्रीय कानून को मानने और उसका सम्मान करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
  • कूटनीतिक मान्यता का मतलब होता है कि दोनों देश विएना कन्वेंशन ऑन डिप्लोमेटिक रिलेशंस (1961) में तय किए गए विशेषाधिकारों और जिम्मेदारियों को स्वीकार करते हैं। इसके तहत दोनों देशों के अधिकारियों को एक-दूसरे के यहां कुछ विशेष अधिकार दिए जाते हैं। दूतावास या उच्चायोग की सुरक्षा करना उनकी जिम्मेदारी हो जाती है।
  • इसका अर्थ यह है कि मान्यता प्रदान करने वाले देश के मत से उक्त देश अंतरराष्ट्रीय अधिकारों और कर्तव्यों का सामान्य अधिकारी है और उसमें अंतरराष्ट्रीय विधान के अनुसार प्राप्त होने वाले दायित्वों को वहन करने की सामर्थ्यं है। अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर किसी देश को कूटनीतिक मान्‍यता मिलने पर ही कोई देश अंतरराष्‍ट्रीय संगठनों में या किसी समझौते में हिस्‍सा ले सकते हैं। मान्यता प्राप्त करने के उपरांत उक्त देश को या वहां की सरकार को यह क्षमता हासिल हो जाती है कि वह मान्यता प्रदान करने वाले राज्यों के साथ कोई संधि कर सके अथवा कूटनीतिक संबंध स्थापित कर ले।
  • किसी देश को कूटनीतिक मान्‍यता मिलने के बाद संयुक्‍त राष्‍ट्र के विएना कन्‍वेंशन के तहत राजनयिकों को अन्‍य देशों को विशेषाधिकार से छूट मिलती है। कूटनीतिक मान्‍यता नहीं मिलने पर इंटरनेशनल फोरम पर उस देश को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिलता।
  • दो देशों के बीच वैसे तो यह मान्यता स्‍थायी होती है, पर बदलते हालात में सरकारें इसमें बदलाव कर सकती हैं। अगर कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को मान्यता नहीं देता तो उस देश के साथ सभी तरह के कूटनीतिक रिश्तों को खत्म कर दिया जाता है, न तो उसके डिप्लोमेट्स उस देश में रहते हैं और न ही कोई बातचीत होती है।

मान्‍यता का क्‍या है अंतरराष्‍ट्रीय सिद्धांत

प्रो. हर्ष पंत का कहना है कि किसी देश के अध्यक्ष पद में सामान्य और वैधानिक पद्धति से परिवर्तन होता है, तो अन्य देशों को इसकी सूचना दे दी जाती है। वे मुल्‍क उक्त देश के नए अध्यक्ष को अपनी ओर से बधाई का संदेश भेजकर उसे अपनी मान्यता प्रदान करते हैं। उन्‍होंने कहा कि इसमें दिक्‍कत तब होती है, जब किसी देश में क्रांति के द्वारा अध्यक्ष के पद में अथवा सरकार में परिवर्तन होता है। इस असामान्‍य स्थिति में दो प्रकार के परीक्षण काम में लाए जाते हैं, पहला परीक्षण तो यह है कि क्या नई सरकार वास्तविक सरकार है। क्‍या इसका राज्य पर प्रभावकारी नियंत्रण है। दूसरे, क्या वह उक्त देश के पर्याप्त क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किए हुए है तथा उसका कोई प्रभावकारी विरोधी पक्ष नहीं है। जिन देशों से नए देश अथवा सरकार को मान्यता प्रदान करने के लिए कहा जाता है, वह ऐसे मामलों में वहीं अपना निर्णय स्थगित रखते हैं, जहां सरकार स्थायी नहीं होती अथवा जहां प्राय: ही क्रांतियां होती रहती हैं, जिनके कारण सरकार बदलती रहती हैं। परंतु किसी सरकार को मान्यता देने अथवा न देने से स्वयं देश की मान्यता का कोई संबंध नहीं है। राज्य को तो अंतरराष्ट्रीय इकाई के रूप में मान्यता प्राप्त ही रहती है।

ऐसे समाप्‍त हो जाती है मान्‍यता

समान्यत: कोई देश यदि किसी देश को मान्यता दे देता है तो वह किसी राजनीतिक उद्देश्य से उसकी मान्यता वापस नहीं ले सकता। हालांकि, कुछ विशेष परिस्थितियों में यह मान्यता वापस ली जा सकती है। उदाहरण के तहत यदि कोई देश अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है, अथवा उसकी सरकार प्रभावशून्य हो जाती है, अथवा गृहयुद्ध में कोई युध्यमान पक्ष पराजित हो जाता है तो ऐसी स्थिति में राज्य की मान्यता वापस ली जा सकती है।


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