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देश में सिर्फ 4 लाख रह गई गिद्धों की संख्या, प्राकृतिक सफाईकर्मी की विशेषता ही बन रही विलुप्ति का कारण

गिद्ध मृत जानवरों का भक्षण कर वातावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं लेकिन यही उनकी विलुप्ति का कारण बन रहा है। गिद्धों की इस सतत प्रक्रिया से वातावरण स्वच्छ होता है तथा इससे दूसरे जीवों को जीवनयापन करने में सहूलियत होती है।

By TilakrajEdited By: Published: Wed, 25 May 2022 08:52 AM (IST)Updated: Wed, 25 May 2022 08:52 AM (IST)
देश में सिर्फ 4 लाख रह गई गिद्धों की संख्या,  प्राकृतिक सफाईकर्मी की विशेषता ही बन रही विलुप्ति का कारण
गिद्धों के सरंक्षण के लिए दो साल पहले राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड द्वारा 2020-2025 के बीच एक कार्ययोजना को मंजूरी

सुधीर कुमार। जीव-जंतु एवं वनस्पतियों की कई प्रजातियों के विलुप्त होने से आज पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है। धरती पर प्राकृतिक सफाईकर्मी की भूमिका निभाने वाले गिद्धों की तादाद भी तेजी से कम हो रही है। पिछले तीन दशक में देश में गिद्धों की संख्या चार करोड़ से घटकर चार लाख से भी कम रह गई है। वातावरण की स्थिति को बेहतर बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले गिद्धों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। अत: दुर्लभ होते गिद्धों को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान देना होगा।

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गिद्ध मृत जानवरों की देह अवशेष का भक्षण कर वातावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं। गिद्धों की इस सतत प्रक्रिया से वातावरण स्वच्छ होता है तथा इससे दूसरे जीवों को जीवनयापन करने में सहूलियत होती है, लेकिन गिद्धों की यही विशेषता उनकी विलुप्ति का कारण भी बनती जा रही है। दरअसल, पशुओं में होने वाले सूजन, बुखार या घावों के उपचार के लिए प्रयोग की जाने वाली डाइक्लोफेनेक नामक दवा की पुष्टि गिद्धों की मौत के लिए एक कारक के रूप में हुई है। जब पशुओं की मृत्यु होती है, तो यही दवा जानवर के शरीर में बची रह जाती है, जिसका भक्षण करने से गिद्धों के गुर्दे और यकृत खराब हो जाते हैं, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है।

विशेषज्ञों के अनुसार, पशुओं के इलाज में प्रयुक्त उक्त दवा के विकल्प के रूप में मेलोक्सिकन का प्रयोग किया जा सकता है, जिसका गिद्धों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होता है, लेकिन इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। गिद्धों की संख्या में कमी आने की दूसरी बड़ी वजह-प्राकृतिक पर्यावास का विखंडन होना है। गिद्ध आमतौर पर अपने घोसले यूकेलिप्टस, शीशम, सेमल, इमली और पीपल जैसे पेड़ों पर बनाते हैं, लेकिन वनोन्मूलन के कारण न सिर्फ इन वृक्षों की संख्या में कमी आई है, बल्कि जंगलों से गुजरती विकास गतिविधियों ने गिद्धों को भयभीत कर दिया है। इसके अलावा बिजली के तारों से सटने और अवैध शिकार की वजह से भी गिद्धों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है।

आइयूसीएन यानी अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने अपनी लाल सूची (रेड लिस्ट) में 2002 में ही भारतीय गिद्ध (जिप्स इंडिकस) को ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ घोषित किया था, पर उसके दो दशक बाद भी गिद्धों को संरक्षित करने में ठोस कामयाबी नहीं मिल पाई है। गिद्धों के सरंक्षण के लिए दो साल पहले राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड द्वारा 2020-2025 के बीच एक कार्ययोजना को मंजूरी प्रदान की गई। इसके अनुसार, पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, त्रिपुरा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र तथा चार शहरों-गुवाहाटी, भोपाल, हैदराबाद और पिंजौर में बचाव केंद्रों की स्थापना की जानी है। गिद्ध जैव विविधता के महत्वपूर्ण अंग हैं। अत: इस प्रजाति के संरक्षण के प्रति सभी को संजीदा होना होगा।

(लेखक बीएचयू में शोधार्थी हैं)


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