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गौतम अदाणी व ममता बनर्जी: नेता-उद्योगपति के बीच सद्भावपूर्ण रिश्ता होना समय की मांग

सरकार और कारोबारी में रिश्ता होना बुरा नहीं है। बुरा है इसे सार्वजनिक होने से रोकना। युवाओं को नए अवसर उपलब्ध कराने के लिए हमें इसे समग्रता में समझना होगा। गौतम अदाणी व ममता बनर्जी कारोबार और राजनीति का रिश्ता होना समय की मांग। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 07 Dec 2021 09:49 AM (IST)Updated: Tue, 07 Dec 2021 09:49 AM (IST)
गौतम अदाणी व ममता बनर्जी: नेता-उद्योगपति के बीच सद्भावपूर्ण रिश्ता होना समय की मांग
कारोबार और राजनीति के बीच सद्भावपूर्ण रिश्ता होना समय की मांग।

हर्ष वर्धन त्रिपाठी। प्रतिभा के मामले में विश्व के किसी भी देश की तुलना में बेहतर खड़ा भारत उद्योग और आधुनिक तकनीक के मामले में अग्रिम पंक्ति में खड़े देशों के मुकाबले क्यों खड़ा नहीं हो पाता है, यह प्रश्न हम भारतीयों को खूब चुभता है। हाल में ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी के त्यागपत्र देने के बाद भारतीय पराग अग्रवाल ने यह कुर्सी संभाली तो यह प्रश्न विस्तार पा गया। इस बात की भी चर्चा खूब हुई कि हम भारतीय एक भारतीय के ट्विटर या गूगल का सीईओ बनने को तो बड़ी उपलब्धि बताते हैं, लेकिन ‘कू’ जैसा विशुद्ध स्वदेशी इंटरनेट मीडिया हमारी चर्चा, गर्वानुभूति का कारण नहीं बन पाता है।

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दरअसल हम भारतीय विदेशी मान्यता मिलने के बाद ही गर्वानुभूति कर पाते हैं, लेकिन यह अर्धसत्य है। इसका पूर्ण सत्य तब सामने आया जब देश के बड़े और तेजी से बढ़ते उद्योगपति गौतम अदाणी की बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हुई मुलाकात का चित्र सामने आया। चित्र में दोनों एक दूसरे को सम्मानपूर्वक हाथ जोड़े दिख रहे हैं। होना भी यही चाहिए। देश की नीति बनाने वालों और उस नीति के आधार पर उद्योग लगाने, रोजगार के अवसर तैयार करने वालों के बीच ऐसा ही सद्भाव का रिश्ता होना चाहिए और वह सार्वजनिक होना चाहिए। लेकिन देश का दुर्भाग्य रहा कि सार्वजनिक तौर पर नेता और कारोबारी के रिश्ते को गलत तरीके से स्थापित कर दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से 2014 तक देश के किसी भी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर कारोबारियों से अपने रिश्ते के बारे में जाहिर नहीं किया। 2014 में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा, ‘कारोबारियों से मेरा रिश्ता पर्दे के पीछे कुछ और सार्वजनिक तौर पर कुछ और नहीं रहेगा।’

कंपनी भी सरकारी ही सम्मान पाएगी, इस मानसिकता को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर बहुतायत प्रधानमंत्रियों ने पोषित किया। कल्पना कीजिए कि एयर इंडिया टाटा के ही पास रहती तो देश में उड्डयन के क्षेत्र में अगुआ हवाई कंपनी विश्व की अगुआ कंपनियों की कतार में खड़ी होती। भला हो देश की नीतियों में औद्योगिक सुधार के मामले में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का, जिससे भारतीय कंपनियों में विश्व की महत्वपूर्ण कंपनियों में शामिल होने का साहस जगा। उदारीकरण ने केवल विदेशी कंपनियों को ही भारतीय बाजार में आने का अवसर नहीं दिया, बल्कि इस वजह से भारतीय कंपनियां भी विश्व बाजार में मजबूती से खड़ी हुईं।

टाटा से लेकर अंबानी, अदाणी आज विश्व भर में अपना दम दिखा रहे हैं, इन सबके बावजूद भारत में अंबानी, अदाणी को लेकर राजनीतिक, सामाजिक चर्चा का स्तर बेहद खराब है। राहुल गांधी तक इस देश के उद्यमियों पर, उद्यमिता की भावना पर चोट कर रहे हैं। यही चोट अधिकांश विपक्षी नेता कर रहे हैं। यह अलग बात है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब की कांग्रेस सरकारें हों या फिर महाराष्ट्र की शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार हो, सभी को अंबानी, अदाणी का निवेश चाहिए। किसान आंदोलन की आड़ में इन कंपनियों को अनेक तरह से नुकसान भी पहुंचाया गया।

उद्योग व उद्योगपति विरोधी माहौल बनाने के अगुआ कम्युनिस्टों ने भारत में विकास की चर्चा को इतने खराब तरीके से प्रस्तुत और स्थापित कर दिया कि उद्योग, विकास, सड़क, पुल, बांध के पक्ष में खड़े लोगों को जन सरोकारों के विरुद्ध बता दिया गया। कांग्रेसी और समाजवादी मानसिकता के नेताओं ने उसे अपने राजनीतिक लाभ के लिए चलते रहने दिया। निजी कंपनियों को हेय दृष्टि से देखना और सरकारी कंपनियों को नेताओं की सुख-सुविधा के लिए दुरुपयोग करना, इसने भारत में उद्योगों, उद्योगपतियों को बड़ा होने से कितना रोका है, इसका आज तक ठीक-ठीक अध्ययन नहीं हुआ है।

अंबानी व अदाणी समूह की कंपनियों की बढ़ती शक्ति को विश्व पटल पर भारत की बढ़ती शक्ति के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन कम्युनिस्ट सलाहकारों से घिरे कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अंबानी, अदाणी पर हमला करके देश के हर उद्यमी को संदेह के घेरे में डालने की लगातार कोशिश की है। इसका दुष्प्रभाव कितना बड़ा हो गया है कि ममता जब गौतम अदाणी से मिलती हैं तो उद्यमिता विरोधी तंत्र के पत्रकार सक्रिय हो जाते हैं और लोगों से कहते हैं कि नजर रखिए कि किस नेता की आर्थिक नीतियां कैसी हैं।

कमाल की बात यह भी है कि यही तंत्र युवाओं के लिए नए अवसरों पर बड़ी-बड़ी बातें करता रहता है, लेकिन यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि युवाओं के लिए नए अवसर कैसे बनेंगे। सबको रोजगार चाहिए, उसके लिए उद्योग चाहिए और उद्यमी भी चाहिए। नेता न रोजगार दे सकता है, न उद्योग लगा सकता है। नेता अच्छी नीति बना सकता है, जिससे उद्यमी के लगाए उद्योग में खूब रोजगार मिले। दुर्भाग्य से इस बात को नेताओं ने देश को समझने नहीं दिया। उद्योगपति की साख उसके लगाए उद्योग से और नेता की साख उसकी लाई नीतियों से ही होनी चाहिए। नेता और उद्योगपति के बीच रिश्ता भी सार्वजनिक होना चाहिए। सार्वजनिक तौर पर उद्योगपति को चोर कहना और पर्दे के पीछे चंदा मांगने से बड़ी कंपनियां नहीं खड़ी होंगी और हम यही चर्चा करते रहेंगे कि भारतीय प्रतिभा, मेधा जब विश्व की बड़ी कंपनियों को चला सकती है तो भारत में बड़ी कंपनियां क्यों नहीं खड़ी होती हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]


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