जानिये- भारतीय मेट्रो शहर भारी बारिश के लिए क्यों नहीं हैं तैयार?
जल स्नोतों, झीलों के किनारों और ड्रेनेज चैनल्स के अंधाधुंध खात्मे और बढ़ते कंक्रीटीकरण ने बारिश के पानी की निकासी रोक दी है। यही वजह है कि हमारे शहर लगातार बाढ़ की गिरफ्त में आते जा रहे हैं।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। जल स्रोतों, झीलों के किनारों और ड्रेनेज चैनल्स के अंधाधुंध खात्मे और बढ़ते कंक्रीटीकरण ने बारिश के पानी की निकासी रोक दी है। यही वजह है कि हमारे शहर लगातार बाढ़ की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। दुर्भाग्य है कि हम पूर्व के अनुभवों से भी नहीं सीख ले पा रहे हैं। अपनी सुरम्य प्राकृतिक संपदा और जल संसाधनों के चलते केरल को ईश्वर का घर कहा जाता है। ऐसा क्या हो गया कि यह जमीन जलमग्न हो गई और पूरा केरल सौ साल की ऐतिहासिक बाढ़ की चपेट में आ गया है।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार मानसूनी सीजन में अब तक यहां 42 फीसद अधिक बारिश हुई है। हालांकि, पिछले आठ दिनों में यहां सामान्य से ढाई गुना ज्यादा बारिश हुई, लेकिन अगर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं हुई होती तो बारिश का पानी आराम से निकल सकता था। एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा के तहत भर गए वहां के बांधों को इतनी जबरदस्त बारिश के बीच खोल दिया गया। लिहाजा पानी आवासीय स्थानों में कहर बरपाने लगा।
मुंबई : जुलाई, 2005 में मुंबई को प्रकृति से छेड़छाड़ का बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा। 24 घंटे के भीतर शहर में 900 मिमी से अधिक बारिश हुई। 450 से अधिक लोग मारे गए। दरअसल 1925 में शहर का 60 फीसद रकबा कृषि और जंगलों के लिए था। 1990 में यह क्षेत्रफल आधा हो गया। मानसून की बारिश के पानी को बहाकर अपने साथ ले जाने वाली पूरे शहर में फैली छह धाराएं और उनके बेसिनों पर सड़कें, भवन और झुग्गियां खड़ी हो गईं। शहर में एक मीठी नदी हुआ करती थी, 2002-03 के पर्यावरण स्टेटस रिपोर्ट में इसका जिक्र बाढ़ के पानी को निकालने वाले नाले के रूप में किया गया है।
श्रीनगर : सितंबर, 2014 में आई जल प्रलय ने बड़ा सवाल खड़ा किया। एक अध्ययन के मुताबिक श्रीनगर में बाढ़ से हुई तबाही का प्रमुख कारण वहां की झीलों के खस्ताहाल हुए नेटवर्क के चलते प्राकृतिक ड्रेनेज सिस्टम का खत्म हो जाना है। कैग की एक रिपोर्ट के मुताबिक डल झील का कैचमेंट एरिया 314 वर्ग किमी है। इसमें से 148 वर्ग किमी का क्षेत्रफल भू कटाव के लिहाज से संवेदनशील है। झील का ओपन एरिया 24 वर्ग किमी से घटकर 12 वर्ग किमी हो चुका है और इसकी औसत गहराई भी कम होकर तीन मीटर रह गई है। वर्तमान में लगातार दो-तीन दिन की बारिश में श्रीनगर शहर झेलम के पानी से डूबने लगता है। कुछ दशक पहले ऐसा नहीं होता था। 50 फीसद जल निकाय खत्म हो चुके है।
बेंगलुरु : 1960 में इस शहर में 262 झीलें थीं लेकिन आज इनमें से केवल दस में पानी है। इस शहर में दोनों तरह की अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम झीलें थीं। अपस्ट्रीम झीलें डाउनस्ट्रीम झीलों को विभिन्न नालों द्वारा बाढ़ के पानी से समृद्ध करती थीं। अब अधिकांश नालों का अतिक्रमण हो चुका है।
हैदराबाद : यह शहर अपने जल निकायों को तेजी से खो रहा है। 1989 और 2001 के बीच जल निकायों का 3245 हेक्टेयर रकबा खत्म हो गया। यह क्षेत्रफल हुसैन सागर से दस गुना अधिक है। शहर की प्रमुख नदी मूसी का बाढ़ क्षेत्र अतिक्रमण का शिकार हो चला है।
गुवाहाटी : पहाड़ियों से आने वाला बारिश का पानी उनकी तलहटी में स्थित तालाबों में एकत्र होता है। तेजी से हो रहे अतिक्रमण ने ऐसे तालाबों और उन्हें भरने वाले रास्तों को नष्ट कर दिया। लिहाजा बाढ़ यहां की एक स्थायी समस्या हो चुकी है। 2000 के बाद शुरू हुए अनियोजित तेज शहरीकरण ने झीलों के आसपास की जमीन पर कॉलोनियां बसा दी हैं।
कमजोर कड़ी
विशेषज्ञों के अनुसार शहरों के जल निकाय जमीनी मालिकाना वाली कई एजेंसियों के अधीन होती हैं। इनमें राजस्व विभाग, मत्स्य विभाग, शहरी विकास विभाग, सार्वजनिक निर्माण विभाग, नगरपालिका और पंचायतें आदि शामिल होते हैं। ये विभाग इन जल निकायों को खा जाते हैं और अपने इस कारनामे को भू उपयोग में बदलाव लाकर अंजाम देते हैं। इसके अलावा जानकारों का यह भी मानना है कि चूंकि ज्यादातर जल निकाय सूखे होते हैं लिहाजा उनका अतिक्रमण ज्यादा आसान होता है। उनके सूखने के पीछे का मर्म यह है कि जल निकाय और उनका कैचमेंट एरिया दो विभागों के अधीन आता है। लिहाजा हितों के परस्पर टकराव के चलते जल निकाय का रखरखाव मुश्किल होता है और वे सूख जाते हैं। इस संदर्भ में विशेषज्ञ यह सुझाव भी देते हैं कि जल
निकाय किसी एक अलग विभाग के तहत आने चाहिए।