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अंडमान की सेल्युलर जेल की दीवारें हैं वामन नारायण जोशी के संघर्ष की गवाह

अंग्रेज कलेक्टर आर्थर एम. जैक्सन की हत्या की योजना बनाने व वध करने का प्रशिक्षण देने वाले वामन नारायण जोशी का नाम भले ही हमारे समाज ने भुला दिया मगर अंडमान की सेल्युलर जेल की दीवारें आज भी उनके संघर्ष की गवाह हैं।

By Neel RajputEdited By: Published: Sun, 05 Dec 2021 11:29 AM (IST)Updated: Sun, 05 Dec 2021 11:29 AM (IST)
अंडमान की सेल्युलर जेल की दीवारें हैं वामन नारायण जोशी के संघर्ष की गवाह
यातनाएं सहीं पर न खोली जुबां (फोटो : दैनिक जागरण)

अभय वसंत मराठे। यदि आप अंडमान द्वीप पर स्थित सेल्युलर जेल गए होंगे तो वहां राजबंदियों (क्रांतिकारियों) के नामों की एक सूची फलक (बोर्ड) पर लगी देखी होगी। यह सूची उन राजबंदियों की है, जिन्हें भारत की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के आरोप में बंदी बनाकर यहां कैद किया गया था। उसमें दूसरे क्रमांक पर एक नाम दर्ज है- वामन नारायण जोशी। यह वामन नारायण जोशी कौन थे? कहां के रहने वाले थे? भारत को स्वतंत्र करवाने में उनकी संघर्ष गाथा क्या थी? दुर्भाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर कहीं नहीं मिलते।

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भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात बनी तत्कालीन सरकारों की हमारे क्रांतिकारियों के प्रति उदासीनता के कारण वामन नारायण जोशी का नाम और संघर्ष कहीं विलोपित हो गया। सौभाग्य से वामन नारायण जोशी की भतीजी शरयु प्रकाश कुलकर्णी ने एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी, जिसमें महान क्रांतिकारी वामन नारायण जोशी के संघर्ष का उल्लेख है। इस पुस्तिका को वर्ष 2015 में श्रीमती कुलकर्णी ने अपने प्रयासों से प्रकाशित करवाया।

महाराष्ट्र के अहमदनगर की अकोले तहसील के समशेरपुर गांव में वर्ष 1889 को गरीब परिवार में जन्मे थे वामन नारायण जोशी। पिता के देहांत के बाद बालक वामन तथा उनके बड़े भाई ने गांव में भिक्षावृत्ति कर परिवार का बड़ी कठिनाइयों से लालन-पालन किया। वामन को भिक्षावृत्ति से घृणा थी, लेकिन जीवन-यापन का कोई विकल्प ही नहीं था। इन परिस्थितियों में भी उनके भीतर राष्ट्रभक्ति हिलोरे ले रही थी और वे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देना चाहते थे। वर्ष 1904 में 15 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संकल्प लिया, जो जीवन के अंतिम समय तक निभाया।

आगे की शिक्षा के लिए वर्ष 1907 में वामन नारायण जोशी नासिक आ गए। वहां वीर सावरकर व उनके बंधुओं द्वारा स्थापित क्रांतिदल ‘मित्र मेला’ तथा ‘अभिनव भारत’ में सक्रिय हो गए। उस दौर में नासिक का कलेक्टर अंग्रेज अधिकारी आर्थर एम. जैक्सन भारतीयों का कट्टर शत्रु था। उसी ने क्रांतिकारी गणेश दामोदर सावरकर को राष्ट्रीय कविताएं छपवाने पर आजीवन कारावास का दंड देकर अंडमान की सेल्युलर जेल भेजा था। क्रांतिमंत्र ‘वंदे मातरम’ कहने पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा कीर्तनकार तांबे शास्त्री को बंदी बनाया था। ऐसे क्रूर कलेक्टर जैक्सन का नासिक के एक नाट्यगृह में क्रांतिवीर अनंत लक्ष्मण कान्हेरे, विनायक देशपांडे और कृष्णाजी कर्वे ने वध कर दिया था।

यह ब्रिटिश सरकार को खुली चेतावनी थी कि क्रांतिकारी उन अंग्रेज अफसरों को जिंदा नहीं छोड़ेंगे, जो भारतीयों की अस्मिता को खंडित करने का प्रयास करेंगे। जैक्सन के वध में क्रांतिवीर वामन नारायण जोशी की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने ही अनंत कान्हेरे को पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण देते हुए जैक्सन की पहचान करवाई थी। जोशी ने ही वध की पूरी योजना एक पत्र में लिखकर कान्हेरे को उनके औरंगाबाद स्थित निवास पर भेजी थी। कान्हेरे ने जोशी के पत्र से योजना समझने के बाद पत्र के टुकड़े करके कमरे के एक कोने में फेंक दिया था। बाद में अंग्रेजों ने इसी पत्र के 28 टुकड़ों को जोड़कर वामन नारायण जोशी के विरुद्ध न्यायालय में इसे बतौर साक्ष्य प्रस्तुत किया था।

29 दिसंबर, 1909 को जैक्सन के वध के आरोप में वामन नारायण जोशी को बंदी बनाकर उनके पैतृक घर समशेरपुर ले जाया गया। वामन नारायण जोशी के हाथों में हथकड़ी और रस्सियां देख उनका परिवार बेहद दुखी हुआ। मकान की तलाशी ली गई, लेकिन वहां कोई अवांछनीय वस्तु नहीं मिली। अध्यापक रहे इस क्रांतिकारी को अंग्रेजों द्वारा जान-बूझकर जनता के सामने समशेरपुर से 40 किलोमीटर तक मारते हुए पैदल नासिक ले जाया गया, ताकि जनता में अंग्रेज सरकार का डर बैठे। नासिक जेल में वामन नारायण जोशी को अली खान नामक पुलिस जमादार ने कई दिनों तक अमानवीय यातनाएं दीं। वामन नारायण जोशी को अपराध स्वीकारने व अपने साथी क्रांतिकारियों, खासकर वीर विनायक दामोदर सावरकर का नाम लेने पर सजा माफ करने का लालच भी दिया गया, किंतु साहसी वामन नारायण जोशी ने सारी यातनाएं सहकर यही कहा कि ‘मुझे मौत स्वीकार है, लेकिन साथियों के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’

अंतत: जैक्सन की हत्या का मुकदमा ‘नासिक षड्यंत्र केस’ नाम से चला और 21 मार्च, 1910 को न्यायालय ने अनंत लक्ष्मण कान्हेरे, विनायक देशपांडे और कृष्णाजी कर्वे को मृत्युदंड दिया तथा वामन नारायण जोशी व शंकर सोमण को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। शंकर सोमण पर ठाणे की जेल में इतने अत्याचार हुए कि उनकी वहीं मृत्यु हो गई, जबकि वामन नारायण जोशी को अंडमान की सेल्युलर जेल में नारकीय यातनाएं दी गईं। उन्होंने अन्य राजबंदियों के साथ अन्न त्याग आंदोलन में भाग लिया। 1918 में उन्हें सेल्युलर जेल से निकालकर पुणे की यरवडा जेल में चार वर्ष तक रखा और यहां असहनीय यातनाएं देते हुए हाड़तोड़ काम करवाया गया। कारावास की यातनाओं से उनका शरीर सूखकर कंकाल हो गया था।

वर्ष 1922 में सजा काटकर जब क्रांतिवीर वामन नारायण जोशी अपने गांव पहुंचे तो पाया कि अंग्रेजों के कोप के चलते उनका पूरा परिवार बिखर चुका था। गिरफ्तारी के कुछ दिन बाद ही दुख में माता जी का देहांत हो गया था। बड़े भाई केशव ने घर की परिस्थितियों से निराश होकर जल समाधि ले ली थी। छोटे भाई अध्यापक की नौकरी करते हुए परिवार को कठिनाई से पाल रहे थे। गांव आकर वामन नारायण जोशी ने फिर से घर को संवारा। इधर, जेल से रिहाई के बावजूद अंग्रेज अफसर अक्सर जोशी के घर पहुंचते और नजर रखने के बहाने यातनाएं देते व अपमानित करते। इस बीच वह दिन भी आ गया जब देश को स्वतंत्रता मिली। उस दिन वामन नारायण जोशी ने घर पर भगवान सत्यनारायण की पूजा की और समशेरपुर के सरकारी भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। अंतत: 14 जनवरी, 1964 को मकर संक्रांति के दिन वे स्वर्गारोहण कर गए।

एक महान क्रांतिवीर का चुपचाप प्रयाण हो गया और न तो तत्कालीन सरकार ने कोई सुध ली, न ही प्रशासन ने। अंडमान की सेल्युलर जेल की कठोर दीवारों पर दर्ज उनका नाम आज भी भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान की गाथा बड़े गौरव से सुना रहा है।

(‘ओ उठो क्रांतिवीरों’ के लेखक)


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