सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता प्रणाली को विकसित करते हुए वायरस जनित बीमारियों पर हो सकता है नियंत्रण
पिछले लगभग पौने दो वर्षो से समूचा विश्व वायरस जनित कारणों से महामारी की चपेट में है। हालांकि हमारा देश अब धीरे-धीरे इससे उबरता हुआ दिख रहा है लेकिन कुछ अन्य वायरस भी हमलावर होते दिख रहे हैं।
बिनय ठाकुर। मच्छर की वजह से होने वाली बीमारियों ने दिल्ली समेत देश के कई अन्य राज्यों में लोगों को भयाक्रांत कर रखा है। कोरोना ने पहले ही स्वास्थ्य तंत्र व अर्थव्यवस्था की हालत पतली कर रखी थी, अब डेंगू व मलेरिया रही सही कसर पूरी करने में लगे हैं। कोरोना की गिरफ्त ढीली हुई नहीं कि मच्छरों ने अपनी आस्तीन चढ़ा ली है। आम लोगों की नजर में मच्छर की कोई हैसियत नहीं है। किसी को उसकी औकात बतानी हो तो लोग अक्सर मच्छर की तरह मसल दूंगा वाले जुमले का इस्तेमाल करते रहे हैं। पर सरकार, स्वास्थ्यकर्मी और बाजार तीनों को उसकी हैसियत मालूम है।
सघन आबादी व स्वास्थ्य सुविधा तक सीमित पहुंच वाले इलाकों में इसका असर काफी होता है। यही वजह है कि कई देशों ने मच्छरों को अपने देश में निमरूल करने की राह पकड़ ली। इनमें कई यूरोपीय देश शामिल हैं। यहां तक कि श्रीलंका जैसे देश ने भी इसे अपने यहां लागू किया। बाजार ने भी अपने लिए माकूल मौका पाकर मलेरिया और मच्छर जनित बीमारियों के लिए टीके के आविष्कार का प्रयास तेज कर दिया है।
तेजी से शहरीकरण वाले इलाकों में डेंगू के मामलों की संख्या बढ़ी है। यानी आबादी व मच्छरों के नजदीक आने से मच्छरों के काटने व उससे लोगों के बीमार होने की आशंका बढ़ी है। ऐसे में मच्छरों से पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले फायदे या उनको मिटा देने से होने वाले संभावित नुकसान की कोई बात ही नहीं होती है। कई कारणों से उसे गैर जरूरी माना जाता रहा है। सरकारें भी मच्छर से होने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए उनको खत्म कर देने के सरलीकृत उपाय को अपनाने के बारे में ही सोचती हैं।
मच्छरों के विरोधियो का मानना है कि वे कोई जरूरी इकोलाजिकल सर्विस प्रदान नहीं करते हैं, वे मानव को आहार प्रदान करने वाले पेड़-पौधों के परागण में कोई कारगर भूमिका नहीं निभाते हैं। न ही बायो फिल्टर या फिर बायोमास के रूप में कोई असरकारी योगदान देते हैं। उनका मानना है कि मच्छरों से होने वाला नुकसान उससे हासिल होने वाले लाभ की तुलना में बहुत बड़ा है। उससे होने वाली बीमारियां व समस्याएं दिनों-दिन विकराल रूप लेती जा रही हैं। जबकि इन बीमारियों के विकराल रूप लेने में हमारे दंभ, प्रकृति के बारे में अधूरी समझ व पालिटिकल इकोनामी की बड़ी भूमिका होती है। मच्छरों को जड़ से मिटाने के लिए पहले तो रसायनों का इस्तेमाल किया गया बिना इस बात को समङो कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। डीडीटी की कहानी इस बात की तस्दीक करती है। यही कहानी बायो कंट्रोल अप्रोच में भी देखने में आई जब मच्छरों को खत्म करने के लिए कई जल स्रोतों में इस पारिस्थितिकी तंत्र के बाहर से लाकर जीवों को प्रवेश करा दिया गया। इन बाहरी जीवों ने स्थानीय जीवों को खदेड़ उसके रहवास पर कब्जा किया व परिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाया।
मच्छर लगभग 10 करोड़ साल से धरती पर है। पर उसके अस्तित्व को लेकर इतनी बड़ी बहस शायद कभी नहीं हुई। मच्छरों की वजह से होने वाली बीमारियों से काफी संख्या में लोग बीमार पड़ते हैं। मच्छरों का मुख्य आहार पेड़-पौधों से हासिल शर्करा है। कुछ खास परिस्थिति में जब उन्हें अतिरिक्त पोषण की जरूरत होती है वे आदमी का खून चूसते हैं। मानव रक्त में आसानी से उपलब्ध होने वाला पोषक तत्व उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है। चाहे रासायनिक विधि हो या फिर जेनेटिक विधि, मच्छरों को मारने व भगाने के हिंसक तरीके की चपेट में हम भी आते हैं। देर सवेर हमें भी इसका नुकसान उठाना पड़ता है। इसलिए हमें प्रकृति व प्राकृतिक न्याय का सम्मान करते हुए मच्छरों से निपटने के लिए अहिंसक उपाय की ओर रुख करना चाहिए।
[वरिष्ठ पत्रकार]