Universal Basic Income जैसी योजना ने बदली 22 गांव की जिंदगी, मिसाल है इनकी कहानी
यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) योजना पर देश की नजर है। इसकी नींव वर्ष 2011-12 में मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में ही रखी गई थी।
महू [आदित्य सिंह]। आज जब मोदी सरकार अंतरिम बजट पेश कर रही है तो उसमें यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) जैसी योजना की बात भी हो सकती है। इधर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी घोषणा कर चुके हैं कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो इस योजना को लागू करेगी। आइये जानते हैं क्या है ये योजना, जिस पर टिकी हैं देश की निगाहें।
वर्ष 2011-12 में यूनिसेफ और सेवा की मध्य प्रदेश इकाई ने 22 गांवों में सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण का प्रयोग किया था। इस योजना की नींव मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में रखी गयी थी। इसमें लगभग बीस लाख रुपए खर्च किए थे। तीन चरणों में सर्वे किया गया था। 22 गांवों में प्रारंभिक सर्वे के बाद आठ गांवों में 6012 लोगों को डेढ़ साल तक बुनियादी सुरक्षा राशि दी गई। इनमें से राधा ने बकरियों और तुलसा ने मावे के जरिये अपनी जिंदगी संवार ली।
योजना का ग्रामीणों ने किस तरह उपयोग किया, इसे लेकर अंतिम सर्वे किया गया। इनमें से एक आदिवासी गांव महू के घोड़ाखुर्द से ग्राउंड रिपोर्ट-
इंदौर शहर से करीब 70 किमी दूर घोड़ाखुर्द गांव के 130 परिवारों को बुनियादी सुरक्षा राशि देने के लिए चुना गया था। यहां अधिकांश ग्रामीण खेतों में मजदूरी करते हैं। 12 माह तक हर वयस्क के खाते में दो सौ और बच्चों को सौ रुपए राशि प्रतिमाह दी जाती थी। बाद में छह माह तक यह राशि बढ़कार उन्हें दी गई। उल्लेखनीय है कि शुरुआत में 20 गांव चुने गए थे लेकिन मप्र सरकार की अनुशंसा पर इसमें दो आदिवासी गांवों को भी जोड़ा गया था। इसका उद्देश्य ग्रामीणों को संबल देने, उनकी सोच और जीवन स्तर में परिवर्तनों का अध्ययन करना था।
बकरियां खरीदी, मजदूरी छुड़ा बेटी को स्कूल भेजा
इस गांव में रहने वाली राधाबाई बताती हैं कि उनके परिवार में पांच सदस्यों को उस समय इस प्रयोग का लाभ मिला था। इस दौरान मिले पैसे से राधाबाई ने कुछ बकरियां खरीदी थीं। वे बताती हैं कि इसके पहले तक उनकी बेटी स्कूल के साथ खेतों पर मजदूरी करने भी जाती थी, लेकिन प्रतिमाह रुपए मिलने से उनकी बेटी ने कुछ समय के लिए मजदूरी छोड़ केवल स्कूल पर ध्यान देना ही शुरू कर दिया था। प्रयोग बंद होने के बाद बेटी को स्कूल के साथ दोबारा मजदूरी शुरू करना पड़ी। इसी तरह भैंस पालने वाली तुलसाबाई ने उस समय बचत कर दो और भैंसें खरीद ली थी। मावे का व्यापार चल पड़ा। रोजगार का रास्ता खुल गया। वहीं कुछ महिलाओं ने सिलाई मशीन खरीदी तो कुछ ने मछली पालन के लिए सहकारी संस्था बना ली।
अब फिर बदहाली
ग्रामीण शारदा बाई और भाव सिंह जैसे ग्रामीण बताते हैं कि जब पैसे मिलते थे तो डेढ़ साल तक जीवन आसान हो गया था, लेकिन अब उनके पास कुछ खास काम नहीं है। सिर्फ मजदूरी पर ही निर्भर हैं। हालांकि संस्था द्वारा अभी भी उन्हें छोटे कर्ज दिए जाते हैं। जिससे साहूकारों के पास कम जाना पड़ता है। युवा मनीष डाबर बताते हैं कि आज गांव की आबादी करीब सात सौ है। इनमें सौ से अधिक बेरोजगार हैं। इनमें आधे से अधिक युवा हैं।
शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च हो रहा था पैसा
- बाल मजदूरी में कमी आई थी
- महिलाएं इलाज ले रही थीं
- स्कूल का खर्च मिलने से बच्चों की स्कूलों में उपस्थिति बढ़ी थी
सर्वे के निष्कर्ष
- अनुदान प्राप्त गांवों में शिक्षा पर खर्च बढ़ा
- ग्रामीणों की घरेलू आय बढ़ी
- भोजन की पर्याप्तता हुई
- आदिवासी की साहूकारों पर निर्भरता घटी
- व्यावसायिक गतिविधियों में सकारात्मक परिवर्तन
- 54 फीसद लोगों में स्वास्थ्य खर्च वहन करने की क्षमता बढ़ी
पांच तथ्यों पर आधारित रहे
बेसिक इनकम अर्थ नेटवर्क के वाइस प्रेसिडेंट शरथ दावला ने बताया कि यदि यूनिवर्सल बेसिक इनकम शुरू की जाती है तो इसमें पांच तत्व होने जरूरी हैं। ये हैं- व्यापक, बिना शर्त, व्यक्तिगत, प्रतिमाह और नकद। यदि इनके आधार पर न्यूनतम आय दी जाती है तो यह सबसे बेहतर होगा। घोड़ाखुर्द इसका उदाहरण है।
जानिए क्या है यूबीआई?
यूबीआई एक निश्चित आय है जो देश के सभी नागरिकों को सरकार से मिलती है। इस आय के लिए किसी तरह का काम करने अथवा पात्रता होने की शर्त नहीं रहती और आदर्श स्थिति है कि समाज के प्रत्येक सदस्य को जीवन-यापन के लिए न्यूनतम आय का प्रावधान होना चाहिए।