तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, अब केरल का सुन्नी संगठन पहुंचा कोर्ट
केरल के सुन्नी मुस्लिम संगठन समस्त केरल जमीयतउल उलमा की ओर से याचिका दाखिल की गई है।
नई दिल्ली [जेएनएन]। एक साथ तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने वाले अध्यादेश की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। मुस्लिम महिला (वैवाहिक अधिकार का संरक्षण) अध्यादेश 19 सितंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के कुछ ही घंटे बाद अधिसूचित कर दिया गया। शीर्ष कोर्ट में केरल के एक संगठन ने याचिका दायर की है।
एक साथ तीन तलाक को तलाक-ए-बिद्दत के नाम से भी जाना जाता है। इसके तहत एक मुस्लिम पुरुष एक ही बार में तीन बार तलाक कहकर कानूनी रूप से अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। जारी की गई अधिसूचना के तहत एक ही बार में तीन तलाक को गैरकानूनी और अमान्य घोषित किया गया है। उल्लंघन करने पर पति को तीन साल कैद की सजा हो सकती है। कानून का दुरुपयोग होने की डर से सरकार ने बचाव के भी कुछ उपाय किए हैं। इसमें सुनवाई से पहले आरोपित के लिए जमानत का प्रावधान शामिल है।
केरल के मुस्लिम संगठन समस्त केरल जामियातुल उलेमा ने शीर्ष अदालत में दायर अपनी याचिका में कहा है कि केंद्र द्वारा लागू अध्यादेश एकतरफा और भेदभाव करने वाला है। यह संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 21 का उल्लंघन करता है इसलिए इसे खारिज किया जाय।
अधिवक्ता जुल्फिकार अली पीएस के माध्यम से याचिका दायर की गई है। याचिका में दंड के प्रावधान पर सवाल उठाया गया है और इसके साथ ही समाज में धु्रवीकरण और अविश्वास का माहौल पैदा होने की आशंका जताई गई है।
इस अध्यादेश पर पिछले गुरुवार को राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद तीन तलाक अपराध की श्रेणी में आ गया है। इसमें पति को तीन साल तक की कैद हो सकती है। हालांकि कानून का दुरुपयोग होने की आशंका के चलते कुछ उपाय भी किए गए हैं। जिसमें पति को जमानत देने का प्रावधान है।
इसलिए लाना पड़ा अध्यादेश
एक साथ तीन तलाक विधेयक को लोकसभा से आसानी से पारित करा लिया गया। यहां कांग्रेस ने भी इसे अपनी स्वीकृति दी थी। लेकिन राज्यसभा में कांग्रेस समेत कई और विपक्षी दलों ने कुछ संशोधनों की बात कहकर विधेयक को पारित होने का रास्ता रोक दिया। इसके चलते मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे एक साथ तीन तलाक के उत्पीड़न को रोकने के लिए केंद्र ने अध्यादेश का रास्ता अपनाया।
कानून में किए तीन संशोधन
1. आरोपित पति मजिस्ट्रेट से मांग सकता है जमानत प्रस्तावित कानून में 'गैर जमानती' शब्द बना रहेगा, लेकिन आरोपित पति मामले की सुनवाई से पहले मजिस्ट्रेट से जमानत मांग सकता है। हालांकि पुलिस थाने में जमानत नहीं दी जा सकती है। यह प्रावधान इसलिए जोड़ा गया है, ताकि मजिस्ट्रेट पत्नी का पक्ष सुनने के बाद जमानत दे सके।
2. पीड़िता या करीबी की शिकायत पर ही प्राथमिकी एक साथ तीन तलाक की पीडि़ता या उसके करीबी की शिकायत पर ही प्राथमिकी दर्ज की जा सकेगी। प्रसाद ने बताया कि पत्नी के किसी नजदीकी संबंधी या शादी के बाद बने रिश्तेदार जिससे खून का रिश्ता होगा, उसे करीबी मानकर पुलिस उसकी शिकायत दर्ज कर सकती है।
3. पत्नी की सहमति से विवाद सुलझा सकते हैं मजिस्ट्रेट मजिस्ट्रेट विवाद को सुलझा सकते हैं, जिसमें पत्नी की सहमति जरूरी होगी। यह संशोधन तीन तलाक के अपराध को 'समझौते के योग्य' बनाता है। मजिस्ट्रेट अपनी वैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं। इससे दोनों पक्षों को मामले को वापस लेने की आजादी मिल जाएगी।
चिंताओं को दूर करने का प्रयास
सरकार ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक- 2017 में तीन संशोधनों को मंजूरी दी है। सरकार ने अपने इस कदम से उन चिंताओं को दूर करने का प्रयास किया है, जिसमें एक साथ तीन तलाक की परंपरा को अवैध घोषित करने और पति को तीन साल की सजा के कानून के दुरुपयोग की बात उठाई जा रही है। खासतौर से विपक्षी पार्टियों ने इन मुद्दों के बहाने विधेयक को राज्यसभा में रोक दिया था।