दांपत्य संबंधों की पुनर्स्थापना कानून पर सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ करेगी सुनवाई
यह कानून पुरुष प्रधान व्यवस्था का प्रतीक है इसलिए संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन करता है।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में एक नयी याचिका दाखिल हुई है जिसमें पति या पत्नी को एक दूसरे के खिलाफ दांपत्य संबंध बनाने को बाध्य करने वाले कानून दांपत्य संबंधों की पुनर्स्थापना अधिकार (रेस्टीट्यूशन आफ कंजंगल राइट) को चुनौती दी गई है। याचिका में कानून को व्यक्तिगत गरिमा और स्वायत्तता के खिलाफ और समानता व स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद करने की मांग की गई है। इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ विचार करेगी क्योंकि 1984 में सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ इस कानून को संवैधानिक ठहरा चुकी है।
मंगलवार को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई व संजीव खन्ना की पीठ ने कानून को चुनौती देने वाली इस नयी याचिका को अगले सप्ताह तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष विचार के लिए लगाए जाने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट मे यह नयी याचिका कानून के दो छात्रों ओजस्व पाठक और मयंक गुप्ता ने दाखिल की है। मंगलवार को याचिका पर बहस करते हुए वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 9, और स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 की धारा 22 तथा दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 32 और 33 को व्यक्ति की गरिमा और स्वायत्ता तथा निजता के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद करने की मांग की।
याचिका में कहा गया है कि ये कानूनी प्रावधान पति या पत्नी को एक दूसरे के खिलाफ दांपत्य संबंध स्थापित करने की डिक्री प्राप्त करने का अधिकार देते हैं और डिक्री आदेश का उल्लंघन करना दंडनीय है।
याचिका में सुप्रीम कोर्ट के निजता का अधिकार, व्याभिचार और संमलैेंगिकता के मामले में दिये गए हाल के फैसलों को आधार बनाते हुए कहा गया है कि पुराना पड़ चुका यह कानून ठीक नहीं है। याचिकाकर्ता का कहना है कि किसी को किसी से बिना मर्जी के संबंध बनाने को बाध्य नहीं किया जा सकता।
याचिका में सुप्रीम कोर्ट के 1984 के दो न्यायाधीशों की पीठ के सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार फैसले पर सवाल उठाया गया है। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दांपत्य संबंधों की पुनर्स्थापना के कानून को सही ठहराया था।
सबसे पहले 1983 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक घोषित किया था, लेकिन 1984 में दिल्ली हाईकोर्ट ने हरिविन्दर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी के केस में कानून को संवैधानिक ठहराया था। इसके बाद 1984 में सुप्रीम कोर्ट ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चढ्डा के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए कानून को संवैधानिक करार दिया था।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल नयी याचिका में संविधान पीठ के हालिया फैसलों में व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्ता और गरिमा के अधिकार की व्याख्या करने वाले अंशों का हवाला देते हुए कानून को रद करने की मांग की गई है।
कहा गया है कि दांपत्य संबंधों की पुनर्स्थापना की अवधारणा को भारत के किसी भी पर्सनल ला में मान्यता नहीं दी गई है। यह कानून सामंती सोच के अग्रेजी कानून पर आधारित है जिसमें उस वक्त पत्नी को पति की संपत्ति समझा जाता था।
यह कानून पुरुष प्रधान व्यवस्था का प्रतीक है इसलिए संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन करता है। इंग्लैंड ने 1970 में ही इस कानून को निरस्त कर दिया था। यह कानून स्त्री पुरुष दोनों की स्वायत्ता, गरिमा और निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है।