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कारगिल युद्ध में आधा पांव गवां कर भी डटकर खड़ा रहा यह शिष्य, शिक्षक से मिली फर्ज निभाने की प्रेरणा

नाम, नमक और निशान को हमेशा याद रखना। नाम मतलब देश, नमक उसके प्रति विश्वास और निशान आप किस परिवार से, कुल से हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Tue, 04 Sep 2018 06:20 PM (IST)Updated: Tue, 04 Sep 2018 07:39 PM (IST)
कारगिल युद्ध में आधा पांव गवां कर भी डटकर खड़ा रहा यह शिष्य, शिक्षक से मिली फर्ज निभाने की प्रेरणा
कारगिल युद्ध में आधा पांव गवां कर भी डटकर खड़ा रहा यह शिष्य, शिक्षक से मिली फर्ज निभाने की प्रेरणा

मनु त्यागी, नई दिल्ली। 1999 के कारगिल युद्ध में आधा पांव गवां कर भी सीमा पर डटकर खड़ा था। मेरी टुकड़ी सबसे पहली थी और उसे सलामत रखने की जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। बेहोश होने की फुर्सत मेरे पास नहीं थी। एक पांव से खड़ा रहा और 10 घंटे तक डिगा नहीं, ऐसा अपने गुरु से मिले संस्कारों की शक्ति और प्रेरणा के बूते ही कर पाया। मेरे स्कूली दिनों में मेरे शिक्षक और प्राचार्य ने कर्तव्यनिष्ठा का यह संस्कार मेरे चरित्र में गढ़ा था।

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मुझे जब बेस कैंप में नीचे लाया गया और डॉक्टर ने पहला दर्द निवारक इंजेक्शन देकर ऑपरेशन किया, उसके दो दिन बाद सीधे दिल्ली के कैंट अस्पताल में मेरी आंखें खुलीं थीं। चेहरे पर पड़ी सूरज की किरणें मेरे जीवित होने की गवाही दे रही थीं।

कैप्टन सत्येंद्र सांगवान आगे बताते हैं, जब दिल्ली कैंट के अस्पताल के कमरे में आंखें खुलीं तो आश्चर्यचकित मैं भी था कि आखिर मैं ये सब कैसे कर पाया? इतनी प्रेरणा, शक्ति कहां से मेरे भीतर जगी। अचानक मन की छटपटाहट वहीं रखे एक कागज-कलम तक पहुंची और मैंने 1999 से दस साल पहले यानी 1989 में जिस स्कूल से 12वीं की थी, वहां के प्राचार्य जी को चिट्ठी लिख भेजी। स्कूल का नाम था हलवासिया विद्या विहार, भिवानी, हरियाणा। बीते 10 साल में गुरु जी से कोई संपर्क भी नहीं था। बस उनसे मिले संस्कार मेरी रीढ़ बन गए थे।

जब गुरु जी लाए कविता लिख कर

दिल्ली कैंट के अस्पताल में ही चार दिन बाद भोर में बेड के पास खड़े मेरे गुरु नरेंद्र जीत सिंह रावल मेरा सिर सहला रहे थे। वे अकेले न थे, उनके साथ स्कूल के अन्य शिक्षक व छात्र भी थे। मेरा रोम-रोम गौरवान्वित हो उठा था। गुरु जी ने मेरी चिट्ठी मिलने के बाद मेरे लिए कविता लिखी उसे वो फ्रेम कराकर लेकर आए थे। उसे मुझे पढ़कर सुनाया और बार-बार गले से लगाया।

लिखा था- तुम्हारा पत्र आज आया है। सीमा के सच को तुमने शब्दों में दर्शाया है। तुमको पढ़कर आज कंठ रुध जाना स्वाभाविक है, वक्ष फूल जाना आंखें भर आना स्वाभाविक है। क्षत-विक्षत है टांग, रुग्ण शैया पर आज पड़े हो, मुझको तो लगता है सबसे ऊंचे तुम्ही खड़े हो.. भारतीय सैनिक का तुमने सही प्रमाण दिया..। कैप्टन कहते हैं आज यहां तक इसी भरोसे और विश्वास की बदौलत पहुंचा हूं। एक पैर से ही माउंट एवरेस्ट तक की चढ़ाई 15 माह में कर सका हूं।

निभाया फर्ज

कारगिल युद्ध सबसे पहली टुकड़ी में था। मेरे साथ बहुत सारे जवान थे। हमारी टुकड़ी पाकिस्तान पर हमला करने के बाद आगे बढ़ रही थी। हम अलग-अलग हिस्सों में थे। मैंने जवानों को पीछे ही रोक दिया था, जैसे ही वहां से 10 मीटर आगे बढ़ा था तो तभी वहां ब्लास्ट हुआ। उसके बाद दर्द महसूस हुआ, तो देखा एक पैर गायब था।

मैं उसके बाद भी डटा रहा क्योंकि पाकिस्तान की आदत है वो काउंटर अटैक बहुत जल्दी करता है। उसी हालत में अपनी टुकड़ी व देश को सुरक्षित रखा। हम आर्मी में भी गुरु-शिष्य का फर्ज निभाते हैं तभी तो हमारे यहां कैप्टन आगे और सैनिक पीछे चलते हैं। लेकिन पकिस्तान में सैनिक आगे और कैप्टन जंग की जगह से काफी दूरी पर रहते हैं।

गुरु जी की सीख से बना हौसला

फिलहाल ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी) में मानव संसाधन विभाग में कार्यरत कैप्टन सांगवान बताते हैं हमारे प्राचार्य जी सुबह को प्रार्थना में हमेशा एक बात जरूर कहते थे- जो जड़ों से जुड़ा है वही तो बढ़ा है..। मुझे खेलने का बहुत शौक रहा तो स्कूल में गुरु जी हमेशा यही कहते थे कि जीवन की किसी भी प्रतियोगिता में ऐसे जी-जान से पूरे समर्पित होकर खेलो, मानो तुम्हारे कंधों पर माता-पिता का, गुरु का मान टिका है। नाम, नमक और निशान को हमेशा याद रखना। नाम मतलब देश, नमक उसके प्रति विश्वास और निशान आप किस परिवार से, कुल से हैं। 


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