सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘हिंदू पुनरुत्थान कार्य’ कहकर किया था विरोध!
प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा भारत के राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के हाथों हुई थी। इसके निर्माण कार्य को भारतीयों की चिरविजयी अस्मिता और गौरव का प्रतीक माना था
मनमोहन वैद्य। अयोध्या में रामजन्मभूमि पर करोड़ों भारतीयों की आस्था और आकांक्षा के प्रतीक भव्य श्रीराम मंदिर के निर्माण का शुभारंभ 5 अगस्त, 2020 को होने जा रहा है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में यह पर्व स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। 1951 में सौराष्ट्र (गुजरात) के वेरावल में सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा स्वतंत्र भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के हाथों हुई थी, वैसा ही यह प्रसंग है। उस समय सरदार पटेल, केएम मुंशी, महात्मा गांधी, वीपी मेनन, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे मूर्धन्य नेताओं ने सोमनाथ मंदिर के निर्माण कार्य को भारतीयों की चिरविजयी अस्मिता और गौरव का प्रतीक माना था।
हालांकि पंडित नेहरू जैसे नेता ने इस घटना का ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद’ कहकर विरोध भी किया। उस समय नेहरू से हुई बहस को कन्हैयालाल मुंशी ने अपनी पुस्तक पिलग्रिमेज ऑफ फ्रीडम में दर्ज किया है। सवाल यह है कि आखिर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे ‘हिंदू पुनरुत्थान कार्य’ कहकर विरोध क्यों किया था। जबकि केएम मुंशी ने इसे ‘भारत की सामूहिक अंत:चेतना’ का नाम दिया और इस प्रयास को लेकर आम लोगों में खुशी की लहर का संकेत दिया। एक ही मुद्दे पर दो अलग-अलग विरोधी दृष्टिकोण क्यों बन जाते हैं?
मूलत: यह भारत के दो अलगअलग विचार हैं। पंडित नेहरू भारत विरोधी नहीं थे, लेकिन भारत के संबंध में उनका नजरिया यूरोपीय विचारधारा पर केंद्रित था जो भारतीयता से अलग था, अभारतीय था, वहीं सरदार पटेल, डॉ राजेंद्र प्रसाद, केएम मुंशी और अन्य लोगों के भारत संबंधी विचार भारतीयता की मिट्टी से जुड़े थे जिसमें भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा का सार निहित था। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी इसे स्वीकृति दी थी, उन्होंने केवल यह शर्त रखी कि मंदिर के पुर्निनर्माण के लिए धनराशि जनता के सहयोग से इकट्ठी की जाए।
आक्रांता केवल किसी राष्ट्र को पद आक्रांत नहीं करते बल्कि विजित समाज के गौरव और आत्माभिमान को गहरे कुचलते हैं। प्रश्न यह है कि क्या वह ढांचा जिसे बाद में मस्जिद कहा गया, वास्तव में इबादत के लिए ही बना था? नहीं, बाबर के सिपहसालार मीर बाकी को अयोध्या जीतने के बाद यदि नमाज ही अदा करनी थी, तो वह कहीं खुले मैदान में नई मस्जिद बनवाकर कर सकता था। इस्लामिक विद्वानों ने सुप्रीम कोर्ट में माना कि जबरदस्ती कब्जा की गई जमीन या भवन में की हुई नमाज अल्लाह को कुबूल नहीं होती है। इसलिए मीर बाकी ने श्रीराम मंदिर को ध्वस्त कर वहां मस्जिद बनाने का कृत्य, ना उसकी धार्मिक आवश्यकता थी और ना ही उसे इस्लाम की मान्यता थी। फिर उसने यह क्यों किया! क्योंकि उसे केवल भारतीय आस्था, अस्मिता और गौरव पर आघात करना था।
60 साल से एक ही दल के निरंतर शासन ने इस अनुदार धारणा का ही संरक्षण, पोषण और समर्थन किया। इससे बौद्धिक जगत, शिक्षा संस्थानों और मीडिया में भारत की यही अभारतीय अवधारणा प्रतिष्ठित कर दी गई है।इसलिए अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के विरोध में उभरने वाली आवाजें मीडिया और बौद्धिक जगत में ज्यादा तेज सुनाई देती हैं। लेकिन करोड़ों भारतीय ऐसे हैं जो भारत की भारतीय अवधारणा को अंत:करण से मानते हैं, जो भारत की एकात्म और समग्र आध्यात्मिक परंपरा के साथ गहराई से जुड़े हैं और भारत की सामूहिक अंत:चेतना के अनुरूप हैं। भारत की यह अंत:चेतना वह है जिसे सरदार पटेल, केएम मुंशी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, महात्मा गांधी, डॉ राधाकृष्णन, पंडित मदन मोहन मालवीय और आधुनिक स्वतंत्र भारत के कई दिग्गज राष्ट्र निर्माताओं ने अपनी वाणी और आचरण से अभिव्यक्त किया है।
इसलिए, अयोध्या का राम मंदिर महज एक मंदिर नहीं है। वह करोड़ों भारतीयों की कालजयी आस्था और गौरव का प्रतीक है। इसलिए उसका पुर्निनर्माण भारत के सांस्कृतिक गौरव की पुन: स्थापना है। आगामी पांच अगस्त, 2020 को इस राष्ट्रीय और सांस्कृतिक गौरव स्थान समान राम मंदिर निर्माण के शुभ कार्य का शुभारंभ होने जा रहा है। भारत के ही नहीं दुनिया भर के करोड़ों भारतीय मूल के लोग दूरदर्शन के द्वारा इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी होंगे।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)