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गरीब मजदूरों की समस्‍या का यूं हो सकता है निदान, वर्तमान की समस्‍या में ही छिपा है समाधान

कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन का सबसे बुरा दौर हमारा मजदूर वर्ग झेल रहा है। कोरोना के बाद इन्‍हें खपाना हर किसी के लिए बड़ी चुनौती है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 03 May 2020 11:28 AM (IST)Updated: Sun, 03 May 2020 11:28 AM (IST)
गरीब मजदूरों की समस्‍या का यूं हो सकता है निदान, वर्तमान की समस्‍या में ही छिपा है समाधान
गरीब मजदूरों की समस्‍या का यूं हो सकता है निदान, वर्तमान की समस्‍या में ही छिपा है समाधान

अनिल सिंह। आज महानगरों की चौहद्दियों से लेकर राज्यों की सीमाओं और गांवों के ब्लॉक व पाठशालाओं तक लाखों मजदूर अटके पड़े हैं। ये प्रवासी मजदूर अपने गांवों को कूच कर चुके हैं। जो नहीं निकल पाए हैं, वे माकूल मौके व साधन के इंतजार में हैं। उन्हें अपने मुलुक पहुंचने की बेचैनी है। एक बार गांव पहुंच गए तो शायद कोरोना का कहर खत्म होने के बाद भी वापस शहरों का रुख न करें। कोरोना महामारी के चलते पांच करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर गांव वापसी कर रहे हैं। कठिन चुनौती है कि जो कृषि देश की अर्थव्यवस्था में 16.5 प्रतिशत योगदान के बावजूद लगभग 45 प्रतिशत श्रम-शक्ति को खपाए हुए हो, वह बाहर से लौटे इन मजदूरों को कैसे जज्ब कर पाएगी? फिर भी 10.07 करोड़ परिवारों के 49.51 करोड़ लोगों का भार ढो रही कृषि को कम से कम और पांच करोड़ लोगों को टिकाने लायक बनाना होगा। नहीं तो देश भयंकर सामाजिक अशांति का शिकार हो सकता है।

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समस्या अभी की नहीं है कि खेतों से गेहूं की खड़ी फसल को घर लाना है या फल-सब्जियां बरबाद चली जा रही हैं और दो-तीन महीने पहले तक 50 रुपये किग्रा में बिकते दूध को अब  20-25 रुपये किग्रा में निकालना पड़ रहा है। यह सब मुश्किल तो कोरोना की विदाई के बाद मांग बढ़ने पर दूर हो जाएगी। समस्या बाद की है। गांवों में लौटे मजदूर अभी तक बाहर से धन भेजकर खेती-किसानी के लिए कैश का इंतजाम कर देते थे। लेकिन अब यह स्नोत सूख गया है।

दूसरे, इन मजदूरों के भरण-पोषण का बोझ भी अब खेती पर आ गया है। इसलिए समस्या का तात्कालिक नहीं, स्थायी समाधान निकालना होगा। क्या हो सकता है यह समाधान? सीधा समाधान यही है कि ग्रामीण इलाकों में कृषि आधारित छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं और खेती को गेहूं-धान, चना-मटर व गन्ने जैसी पारंपरिक फसलों के दायरे से निकालकर व्यापक बनाया जाए। किसान हेल्थफूड माने जा रहे अलसी या सावां-कोदो की खेती फिर से क्यों नहीं शुरू कर सकता? समग्र समाधान के लिए ग्रामीण इलाकों में जरूरी इंफास्ट्रक्चर व मार्केटिंग तंत्र पर भारी निवेश करना पड़ेगा। यह निवेश सरकार को ही करना होगा। इसे लगातार मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में लगे निजी क्षेत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता।

आखिर इसके लिए धन कहां से आएगा तो इसका सीधा-सा जवाब है कि इस समय सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर एफसीआइ को सालाना लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है। यह वो निगम है जहां टनों अनाज खुले में भीगने से सड़ या सड़ा दिया जाता है तो उसे औने-पौने दाम पर शराब निर्माता इकाइयों को दे दिया जाता है। इस सब्सिडी को तर्कसंगत बनाकर ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बड़ी रकम निकाली जा सकती है। साथ ही केंद्र से ग्रामीण विकास विभाग को सालाना मिल रहे लगभग 1.20 लाख करोड़ रुपये का सही लेखा-जोखा किया जाना चाहिए।

अगर ब्लॉक नहीं तो तहसील स्तर पर स्पेशल इकोनॉमिक जोन की तरह फूड प्रोसेगिंग जोन बना दिए जाएं। इनमें इकाइयां लगाने के लिए किसानों के फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशंस (एफपीओ), सहकारी समितियों और कंपनियों को  प्रोत्साहित किया जाए। देश में इस वक्त भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 102 संस्थान, 71 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और 716 कृषि विज्ञान केंद्र हैं। इनके जरिए किसानों तक अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी पहुंचाई जाए।

असल में सरकार गांवों से शहरो में पलायन करते मजदूरों की समस्या से सालों-साल से वाकिफ है। इसीलिए पहले 100 स्मार्ट शहर बनाने का मिशन बनाया गया ताकि मजदूरों को नजदीक में ही काम मिल जाए। बाद में इस मिशन का लक्ष्य 4000 शहरों का कर दिया गया। दिक्कत यह है कि अभी तक स्मार्ट सिटी के नाम पर पुराने शहरों को ही रंगरोगन किया जा रहा है। जरूरत है कि हर तहसील या जि़ला मुख्यालय को स्मार्ट शहर के रूप में विकसित किया जाए ताकि गांव लौट चुके मजदूर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में योगदान कर सकें।

ऐसी परिस्थिति में उल्लेखनीय बात यह है कि अगर जिला प्रशासन को अत्यधिक संवेदनशील बना दिया जाए तो वह ग्रामीण अंचलों में स्वत:स्फूर्त तरीके से उभर रही उद्यमशीलता को मॉडल बनाकर विकसित कर सकता है। मसलन, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में कुछ साल पहले एक किसान ने केला प्रोसेसिंग यूनिट लगा ली। आज उस यूनिट में तमिलनाडु तक से केले प्रोसेस होने के लिए गाड़ी में भरकर आते और चले जाते हैं। मध्य प्रदेश में सागर जिले में एक नौजवान तीन एकड़ खेती से मल्टी-लेयर फार्मिंग से साल भर में 15 लाख रुपए बना रहा है, वो भी बिना किसी रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल के। हर ग्रामीण इलाके में इतने औषधीय पौधे झाड़-झंखाड़ के रूप में उगते हैं कि उनकी प्रोसेसिंग से सारा इलाका आबाद हो सकता है। कहने का मतलब यह कि समाधान हर तरफ बिखरे पड़े हैं। बस, जरूरत है तो खोजने की सही नीयत और साफ नजर की।

(लेखक संपादक-अर्थकाम.कॉम हैं)

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