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छत्तीसगढ़ में कोंडागांव कैंप के जवान पहले बच्चों को पढ़ाते हैं, फिर उनसे सीखते हैं हल्बी बोली

कोंडागांव में स्कूल के बाद पेड़ों के नीचे ब्लैकबोर्ड रखकर जवानों को हल्बी बोली सिखाता छात्र। इससे जवानों के ग्रामीणों के साथ तालमेल बिठाने में काफी मदद मिल रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 09 Feb 2019 12:27 PM (IST)Updated: Sat, 09 Feb 2019 12:27 PM (IST)
छत्तीसगढ़ में कोंडागांव कैंप के जवान पहले बच्चों को पढ़ाते हैं, फिर उनसे सीखते हैं हल्बी बोली
छत्तीसगढ़ में कोंडागांव कैंप के जवान पहले बच्चों को पढ़ाते हैं, फिर उनसे सीखते हैं हल्बी बोली

पूनमदास मानिकपुरी, कोंडागांव। छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सल मोर्चे पर तैनात जवान गोली के साथ बोली से भी इस समस्या के समाधान की राह पर चल रहे हैं। स्थानीय बोली हल्बी नहीं समझ पाने के कारण होने वाली संवादहीनता को खत्म करने के लिए वे कई बार प्रशिक्षण की मांग कर चुके हैं, लेकिन कोई खास पहल नहीं हो पाई। ऐसे में कोंडागांव के हडेली आइटीबीपी कैंप में तैनात जवानों ने इसका हल निकाल लिया है। सर्चिंग के बाद वह स्थानीय स्कूल में जाकर बच्चों को गणित, विज्ञान आदि विषय पढ़ाते हैं। बदले में स्कूल के बच्चों से हल्बी सीखते हैं यानी स्कूल समय में जवान शिक्षक की भूमिका में रहते हैं और छुट्टी होने के बाद जवान विद्यार्थी व विद्यार्थी शिक्षक की भूमिका में आ जाते हैं।

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जिला मुख्यालय कोंडागांव से 45 किलोमीटर दूर मर्दापाल का वनांचल ग्राम हड़ेली नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ से सटा हुआ धुर नक्सल प्रभावित इलाका है। करीब सालभर पहले यहां आइटीबीपी 41वीं वाहिनी का कैंप खोला गया। मकसद इलाके में शांति लाना, नक्सलियों को खदेड़ना था। लेकिन इस राह में बोली सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आई, क्योंकि नक्सलियों का सामना ग्रामीणों की मदद के बिना संभव न था। दूसरी ओर तत्कालीन हालात यह थे कि ग्रामीण वर्दीधारी जवानों को देखते ही घरों में दुबक जाते थे। जवान न तो ग्रामीणों की बात समझ पाते थे, न ही अपनी बात समझा पाते थे। इससे उनका भरोसा जीतना मुश्किल हो रहा था।

बच्चों के रास्ते पालकों का जीता भरोसा

डिप्टी कमांडेंट दीपक भट्ट बताते हैं कि हमारे जवानों ने कुछ ही दिनों में समझ लिया था कि केवल बंदूक के सहारे नक्सल मोर्चा जीता नहीं जा सकता। स्थानीय लोगों से संवाद जरूरी है। आखिरकार उन्होंने रास्ता खोज निकाला। सर्चिंग से लौटने के बाद जवान गांव के मिडिल स्कूल पहुंच जाते हैं। एमएड-बीएड शिक्षित जवान वहां बच्चों को पढ़ाते हैं। स्कूल में शिक्षक की कमी होने के कारण इससे बच्चों को पढ़ाई में मदद मिलने लगी। धीरे-धीरे बच्चे उनके करीब आते गए। इससे ग्रामीणों का भी भरोसा बढ़ता गया। उन्हें लगने लगा कि हम उनके और उनके बच्चों के हितैषी हैं, दुश्मन नहीं। बच्चों ने जवानों को हल्बी बोलना और लिखना सिखाना शुरू कर दिया।

भट्ट बताते हैं कि ग्रामीण छोटी-मोटी समस्याओं के लिए प्रशासन के पास जाने के बजाय उनके पास आते हैं। बीमार होने पर कैंप में आकर इलाज कराते हैं। कैंप के भीतर स्थित बोरवेल से उन्हें स्वच्छ पानी उपलब्ध कराया जाता है। कैंप के सामने बाजार शुरू करा दिया गया है। इससे व्यापारी व ग्रामीण दोनों को लाभ हो रहा है। सिविक एक्शन प्रोग्राम में ग्रामीणों को जरूरत का सामान वितरित करते हैं। अब तक कई नक्सली समर्पण कर चुके हैं।

बड़ा काम कर रहे जवान

प्राचार्य स्कूल के प्राचार्य बंशीलाल कश्यप कहते हैं कि जवान मानवता के नाते ही सही, बच्चों को पढ़ाकर बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। नक्सल क्षेत्र में बच्चे भटकने से बच जाएं, इसके लिए उन्हें रास्ता दिखा रहे हैं। स्कूल में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। जवानों की पहल से मदद मिल रही है।


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