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बैंकों का बढ़ता NPA देश की बैंकिंग व्यवस्था के अस्तित्व के लिए है खतरा

देश में अभी माइक्रो फाइनेंस एवं स्व-सहायता समूहों द्वारा लिए जाने वाले कर्ज की अदायगी का आंकड़ा करीब सौ फीसद है तो फिर बड़े-बड़े उद्योगों द्वारा लिए जाने वाले कर्ज इस कदर असुरक्षित क्यों हैं? बैंकों का बढ़ता एनपीए देश की बैंकिंग व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 02 Dec 2021 09:52 AM (IST)Updated: Thu, 02 Dec 2021 09:52 AM (IST)
बैंकों का बढ़ता NPA देश की बैंकिंग व्यवस्था के अस्तित्व के लिए है खतरा
सरकार द्वारा देश के सभी बैंक डिफाल्टर पर शिकंजा जरूरी। प्रतीकात्मक

मनोहर मनोज। हाल में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकार द्वारा देश के सभी बैंक डिफाल्टर्स के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई किए जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि देश में बैंकों के साथ धोखाधड़ी करके या उनसे लिए गए कर्ज की रकम पचाने वाले तमाम डिफाल्टर देश के अंदर हैं और कई विदेश भाग चुके हैं। इन सभी के खिलाफ सरकार सख्ती बरतने की अपनी नीति पर काम कर रही है। कहना न होगा कि पिछले एक दशक में बैंकों की अनुत्पादक परिसंपत्ति (एनपीए) बढ़कर छह लाख करोड़ रुपये से करीब दोगुनी हो गई है। यह स्थिति देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद गंभीर है।

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देश के आर्थिक भ्रष्टाचारियों के लिए बैंक आसान शिकार बने हुए हैं। कर्ज लेकर लापता होने और इन्हें नहीं चुकाने वालों की एक लंबी सूची है। सच बात तो यह है कि बैंकिंग सेक्टर की यह एक लाइलाज बीमारी बन चुकी है। ऐसे में वित्त मंत्री का यह संकल्प बेहद सराहनीय है। यह बताना जरूरी है कि देश में अभी विभिन्न बुनियादी समस्याओं और मूलभूत राष्ट्रीय लक्ष्यों के मार्ग में जो कुछ बड़े अवरोध हैं, उनमें एक एनपीए भी है। गौरतलब है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार का सर्वप्रमुख स्वरूप यानी मौद्रिक भ्रष्टाचार अलग-अलग दौर में अलग-अलग रूपों में अवतरित होता रहा है। 1990 में देश में नान बैंकिंग कंपनियों का दौर आया, जिन्होंने लोगों को असामान्य रूप से ज्यादा ब्याज का लालच देकर उनसे अरबों रुपये जमा करा लिए और फिर इनमें से अधिकतर कंपनियां भूमिगत हो गईं। इससे लाखों लोगों को नुकसान हुआ। इसके बाद देश ने 2000 में रियल एस्टेट कंपनियों के फ्राड को देखा। कई रियल एस्टेट कंपनियों ने अपने प्री-लांच हाउसिंग स्कीमों के जरिये लाखों निवेशकों को ठगा। साल 2010 में सस्ती मुद्रा नीति एवं रियायती कर्ज नीति का फायदा उठाकर देश के तमाम छोटे-बड़े कारपोरेट कारोबारियों ने बैंकों से जमकर कर्ज लिया और फिर उसके बाद सभी को मालूम ही है कि कहानी क्या हुई?

जब इन सभी बैंकों के कर्ज घोटाले उजागर हो रहे थे, तब हमारे देश में बैंकों की कर्ज नीति को लेकर भी लोगों का गुस्सा चरम पर पहुंच रहा था। कहा गया कि जो बैंक एक छोटे कर्ज की रकम लेने के लिए कर्जदार को नाकों चने चबवा देते हैं, वे बड़े कजर्दारों के प्रति आखिर इतनी ढिलाई एवं लापरवाही क्यों बरतते हैं? साथ ही यह सवाल भी खूब सुर्खियों में रहा कि देश के बैंकों ने अब तक अपनी कर्जनीति को बिल्कुल नीतिसम्मत और पारदर्शी क्यों नहीं बनाया है? वास्तव में जब लोगों को दिए जाने वाले कर्जे की संस्तुति बैंकरों के विवेक पर छोड़ दी जाएगी तो उसमें भ्रष्टाचार तो होगा ही। साथ-साथ निवेश और कर्ज की असुरक्षा भी चरम पर होगी। हमारे कई बैंकरों ने बड़े कर्जदारों के साथ एक तरह से साझा भ्रष्टाचार की मिसालें पेश की हैं। यही वजह है कि अब बैंकों के सर्वोच्च पदाधिकारियों के कठघरे में जाने की खबरें आने लगी हैं।

बहरहाल केंद्रीय वित्त मंत्री ने बैंक की फंसी पूंजी की वसूली के लिए चार सूत्रों की बात कही है। पहला कर्जदारों की पहचान, दूसरा सुलह-समाधान, तीसरा पुन:पूंजीकरण और चौथा सुधार। वित्त मंत्री के इस संकल्प की एक झलक पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देश के बड़े बैंकरों के साथ हुई एक बैठक में मिली। इसमें प्रधानमंत्री द्वारा कहा गया कि पिछले सात सालों के दौरान देश के बैंकों ने कुल करीब पांच लाख करोड़ रुपये के फंसे कर्ज को वसूला है। प्रधानमंत्री ने यह भी उल्लेख किया कि उनकी सरकार राष्ट्रीय बैंकिंग परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कोष योजना के जरिये करीब दो लाख करोड़ रुपये की फंसी परिसंपत्तियों की और रिकवरी करेगी। प्रधानमंत्री का यह बयान मौजूदा बैकिंग परिदृश्य के लिए एक बेहद आशाजनक तस्वीर पेश करता है। इसके इतर अभी केंद्रीय प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से एक सूचना जारी की गई है, जिसमें यह बताया गया कि निदेशालय अभी तक विजय माल्या, मेहुल चौकसी और नीरव मोदी की भारत स्थित करीब 9,300 करोड़ रुपये मूल्य की परिसंपत्तियां उनके कर्जदाता सार्वजनिक बैकों को स्थानांतरित कर चुका है।

कहना न होगा कि देश में ऐसी मानसिकता वाले भ्रष्टाचारियों का एक बड़ा तबका है, जो बैंकों से बड़े-बड़े कर्ज लेकर उन्हें डकारने की जुगत में लगा रहता है। इस मानसिकता को तभी बदला जा सकता है, जब देश में एक फूलप्रूफ नई कर्ज और निवेश संस्कृति स्थापित की जाए। कोई भी कर्ज किसी भी सूरत में न डूबे इसे लेकर हर तरह के नीतिगत एवं तकनीकगत उपाय सुनिश्चित किए जाएं। मजे की बात यह है कि देश में अभी माइक्रो फाइनेंस एवं स्व-सहायता समूहों द्वारा लिए जाने वाले कर्ज की अदायगी का आंकड़ा करीब सौ फीसद है तो फिर बड़े-बड़े उद्योगों द्वारा लिए जाने वाले कर्ज इस कदर असुरक्षित क्यों हैं? वास्तव में बैंकों का बढ़ता एनपीए देश की बैंकिंग व्यवस्था के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर रहा है। जिसका समाधान एक व्यापक, पारदर्शी तथा स्वत: सुरक्षित जमानत के प्रविधानों के जरिये किया जा सकता है। -आइआरसी

[आर्थिक मामलों के जानकार]

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