वीर सपूत : मास्टर सूर्यसेन से खौफ खाते थे अंग्रेज, जानिए उनकी वीरता की ये मिसालें
बंगाल के चटगांव (अब बांग्लादेश में) में 22 मार्च1894 को जन्मे सुरज्या उर्फ सूर्यसेन की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए।
नई दिल्ली, फीचर डेस्क। दोस्तो, चटगांव विद्रोह का नाम आपने जरूर सुना होगा। 1930 में जब अंग्रेजी शासन प्रशासन की क्रूरता अपने चरम पर थी, ऐसे में चटगांव शस्त्रागार कांड के नायक मास्टर सूर्यसेन ने अंग्रेज सरकार को सीधी चुनौती दी थी। क्रूर अंग्रेज अधिकारी सूर्यसेन के नाम से इतना खौफ खाते थे कि उन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले उन्हें अचेत कर दिया गया। फांसी के ठीक पहले उनके नाखून और दांत उखाड़ लिए गए ताकि फांसी के वक्त वे 'वंदेमातरम' का उद्घोष न कर सकें।
बंगाल के चटगांव (अब बांग्लादेश में) में 22 मार्च,1894 को जन्मे सुरज्या उर्फ सूर्यसेन की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए। स्नातक करने वह बहरामपुर चले गए। वहां वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन युगांतर से जुड़े। 1918 में चटगांव वापस आकर उन्होंने स्थानीय युवाओं को संगठित कर युगांतर पार्टी बनाई। शिक्षक बनने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की चटगांव शाखा के अध्यक्ष चुने गए और उन्हें मास्टर सूर्यसेन कहा जाने लगा।
मास्टर सूर्यसेन ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खुद की सेना तैयार की- इंडियन रिपब्लिक आर्मी। इससे 500 क्रांतिकारी जुड़ गए थे। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत थी, तब सूर्यसेन ने 18 अप्रैल, 1930 की रात चटगांव के दो शस्त्रागारों को लूटने की योजना बनाई। सभी क्रांतिकारी सैनिकों के वेश में एकत्र हुए। फिर दो टुकड़ियों में बंट गए। इनमें से एक ने पुलिस और दूसरी टुकड़ी ने सैन्य शस्त्रागार लूटा। इसके पहले ही उन्होंने रेल की पटरियां उखाड़ दी थीं और संचार व्यवस्था नष्ट कर दी थी। शस्त्र लूटने के दौरान जिसने भी विरोध किया,उसे गोली मार दी। शस्त्रागार लूटने के बाद सारे क्रांतिकारी जलालाबाद की पहाड़ी जा पहुंचे। संचार व्यवस्था ठप रहने के चलते अगले चार दिन चटगांव का प्रशासन सूर्यसेन की आर्मी के हाथ में ही रहा।
22 अप्रैल को अंग्रेजों ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। दोनों ओर से गोलियां चलीं। संघर्ष में 11 क्रांतिकारी और 160 ब्रिटिश सैनिक मारे गए। कई क्रांतिकारी पकड़े भी गए, लेकिन सूर्यसेन समेत अन्य शीर्ष साथी वहां से सुरक्षित निकलने में कामयाब रहे। अंग्रेजों ने सूर्यसेन को पकड़ने के लिए इनाम रखा। लेकिन वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। लेकिन तीन साल बाद 16 फरवरी, 1933 को उनके एक जानने वाले ने ही उन्हें धोखे से गिरफ्तार करवा दिया। सूर्यसेन पर मुकदमा चला और 12 जनवरी, 1934 को फांसी की तारीख तय हुई। उन्हें मेदिनीपुर जेल में फांसी दे दी गई।
मास्टर सूर्यसेन ने फांसी के एक दिन पूर्व 11 जनवरी को अपने एक मित्र को पत्र लिखा था। जिसका अंश है -'मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मैं सिर्फ एक चीज छोड़कर जा रहा हूं- अपना स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रो, आगे बढ़ो और अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी।'