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साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी से किसी नतीजे पर पहुंचना काफी मुश्किल, जांच के बिंदु का कर सकती है इशारा

सुशांत सिंह राजपूत के मामले में साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी जांच में केवल एक इशारा मात्र ही साबित होगी। इसमें कोई फिजिकल एविडेंस नहीं होता है। इसलिए नतीजे पर पहुंचना काफी मुश्किल होगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 27 Aug 2020 04:02 PM (IST)Updated: Fri, 28 Aug 2020 09:47 AM (IST)
साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी से किसी नतीजे पर पहुंचना काफी मुश्किल, जांच के बिंदु का कर सकती है इशारा
साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी से किसी नतीजे पर पहुंचना काफी मुश्किल, जांच के बिंदु का कर सकती है इशारा

नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत आत्‍महत्‍या मामले में हर रोज कुछ न कुछ नया हो रहा है। आत्‍महत्‍या से शुरू हुए इस मामले में लगातार नए मोड़ आते चले गए और इसमें नई कडि़यां और नए नाम भी जुड़ते चले गए। सुशांत के परिजन उनके करीबी माने जाने वाले कई लोगों पर गंभीर आरोप लगा चुके हैं। पुलिस, ईडी, सीबीआई, एनसीबी सभी इसमें अपने एंगल पर जांच कर रही हैं। सीबीआई ने इस मामले में सुशांत की आत्‍महत्‍या के पीछे की वजहों को जानने के लिए साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी कराने का फैसला लिया है।

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आपको बता दें कि साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी फिजिकल ऑटोप्‍सी से बिल्‍कुल अलग होती है। फिजिकल ऑटोप्‍सी में शरीर के ऊपर या शरीर के अंदर मौजूद निशानों, घाव, और मृत व्‍यक्ति के पेट में मौजूद चीजों को देखा जाता है। यही वजह है कि इसका एक फिजिकल एविडेंस होता है। हत्‍या आत्‍महत्‍या के मामले में पुलिस को ये करवाना जरूरी भी होता है। ये उसकी एक प्रक्रिया का हिस्‍सा भी है, जिसके माध्‍यम से वो किसी नतीजे पर पहुंचती है। लेकिन इसके उलट साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी में ऐसी कोई कवायद नहीं होती है।

इस प्रक्रिया में मृतक के परिजन और उनके सभी करीबी लोगों से पूछताछ की जाती है। इसके बाद जांच एजेंसी किसी नतीजे पर पहुंचती हैं। फिजिकल एविडेंस को जहां कोर्ट में पूरी तरह से मान्‍यता मिली हुई है वहीं साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी की रिपोर्ट या इसके जरिए सामने आने वाले तथ्‍यों को कोर्ट में मान्‍यता नहीं मिली है। यही वजह है कि इससे बनने वाली रिपोर्ट की कोर्ट में कोई वैल्‍यू नहीं मानी जाती है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के कमला नेहरू कॉलेज की असिसटेंट प्रोफेसर डॉक्‍टर इतिशा नागर का कहना है कि ये फि‍जीकल एविडेंस नहीं होता है। इस प्रक्रिया में मरने वाले के परिजनों, उनके दोस्‍तों से अलग-अलग बात की जाती है। इस बातचीत में साइक्‍लोजिस्‍ट ये समझने की कोशिश करता है कि मृतक के आखिरी दिन में उसके आस-पास क्‍या कुछ घटा और वो क्‍या सोच रहा था। इस दौरान ये भी देखा जाता है कि मृतक के आखिरी दिनों में क्‍या उसके व्‍यवहार मे कोई भी बदलाव किसी ने देखा था। उनका कहना है कि सुसाइड करने वाला कोई भी व्‍यक्ति पूरी तरह से सामान्‍य व्‍यवहार नहीं करता है। अधिकतर मामलों में उसके रोजाना के व्‍यवहार में बदलाव आता है। वहीं सुसाइड की 90 फीसद वजह का कारण तनाव या कोई दूसरी दिमागी बीमारी होती है।

साइक्‍लोजिकल ऑटोप्‍सी के दौरान मृतक के बिताए गए आखिरी कुछ दिनों से लेकर कुछ महीनों तक के पन्‍ने पलटकर देखने की कोशिश की जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में केवल साइक्‍लोजिस्‍ट ही सवाल पूछता है और अपनी एक डिटेल रिपोर्ट तैयार करता है। उनके मुताबिक इस प्रक्रिया का मकसद उन वजहों को तलाशना होता है जिसकी वजह से कोई व्‍यक्ति ऐसा खौफनाक कदम उठाता है। डॉक्‍टर नागर ने बताया कि इससे किसी नतीजे पर पहुंचना थोड़ा मुश्किल है। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि ये एक रिसर्च का टूल है। यहां पर फिजिकल एविडेंस जैसा कुछ नहीं होता है। इससे सामने आने वाले नतीजे इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि अपने आखिरी दिनों में मृ‍तक के कौन सबसे अधिक करीब रहा है जिससे उसने अपनी कुछ ऐसी बातें शेयर की हैं जो अब से पहले किसी से नहीं की थी।

कुछ मामलों में ये भी देखा जाता है कि मृतक किसी से कुछ नहीं कहता है और इस तरह का कदम उठा लेता है। कई बार ऐसा भी सामने आया है कि जब मरीज तनाव से उबरने लगता है तब इस तरह के खतरनाक कदम उठा लेता है। उनका कहना है कि इस पूरी प्रक्रिया की कवायद के बाद सामने आने वाली रिपोर्ट जांच के किसी बिंदु की तरफ केवल एक इशारा ही कर सकती है।


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