सुप्रीम कोर्ट की दो-टूक, शिक्षण संस्थाओं का सरकारी सहायता प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं, जानें पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में स्पष्ट किया है कि सहायता प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं है और सरकार को शिक्षण संस्थानों को मदद देने के बारे में फैसला करने के लिए वित्तीय बाधाओं और कमियों जैसे कारकों को भी संज्ञान में लेना चाहिए।
नई दिल्ली, पीटीआइ। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि सहायता प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं है और सरकार को शिक्षण संस्थानों को मदद देने के बारे में फैसला करने के लिए वित्तीय बाधाओं और कमियों जैसे कारकों को संज्ञान में लेना चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा कि जब सहायता प्राप्त संस्थानों की बात आती है तो अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक संस्थान के बीच कोई अंतर नहीं हो सकता।
जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा, सहायता प्राप्त करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। इसलिए किसी मामले में अगर सहायता रोकने का नीतिगत फैसला लिया जाता है तो कोई संस्थान इसे अधिकार का विषय बताकर प्रश्न नहीं खड़ा कर सकता।
शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर कोई संस्थान इस तरह की सहायता संबंधी शर्तों को स्वीकार नहीं करना चाहता और उनका पालन नहीं करना चाहता तो अनुदान से इन्कार करने और अपने ढंग से काम करने का फैसला लेने का अधिकार उसे है। पीठ ने कहा कि इसके विपरीत, किसी संस्थान को यह कहने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि सहायता अनुदान अपनी शर्तो पर होना चाहिए।
शीर्ष अदालत की टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली उत्तर प्रदेश की अपील को स्वीकार करते हुए आई है, जिसमें कहा गया है कि इंटरमीडिएट शिक्षा अधिनियम, 1921 के तहत बनाए गए विनियमन 101 असंवैधानिक हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि सहायता प्राप्त करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। इसे लागू करने में किए गए निर्णय को चुनौती केवल प्रतिबंधित आधार पर होगी।
इसलिए, ऐसे मामले में भी जहां सहायता वापस लेने के लिए एक नीतिगत निर्णय लिया जाता है, कोई संस्था इसे अधिकार मानते हुए सवाल नहीं कर सकती है। सहायता के अनुदान के साथ, शर्तें आती हैं। अगर कोई संस्था इस तरह की सहायता से जुड़ी शर्तों को स्वीकार और उनका पालन नहीं करना चाहती है, तो वह अनुदान को अस्वीकार करने और अपने तरीके से आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र है।
पीठ ने कहा कि एक नीतिगत निर्णय को जनहित में माना जाता है, और एक बार किया गया ऐसा निर्णय चुनौती देने योग्य नहीं है, जब तक कि निर्णय लेने में अत्यधिक मनमानी न हुई हो। इस तरह के मामलों में एक संवैधानिक अदालत से दूर रहने की उम्मीद की जाती है।