सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा- एक-दूसरे की आस्था में न दें दखल
कोर्ट ने कहा कि मुस्लिमों को वहां घुसने और नमाज पढ़ने से रोकने की घटना 22/23 दिसंबर 1949 को हुई जब वहां पर मूर्तियां रख दी गईं।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर अपने फैसले में कहा है कि यह एक ऐसा मामला है जो पुरातात्विक आधार के संदभरें से भरा हुआ है। इसके बारे में हमें यह याद रखना जरूरी है कि कानून ही हमारे बहु सांस्कृतिक समाज की इमारत तैयार करता है। कानून वह आधार तैयार करता है जिस पर इतिहास, विचारधारा और धर्म के अनेक आयाम प्रतिस्पर्धा करते हैं। इनकी सीमाओं का निर्धारण कर इस अदालत को अंतिम पंच के तौर पर संतुलन के भाव की रक्षा करनी है, जिसके तहत एक आस्था के नागरिक दूसरी आस्था के नागरिकों के क्रियाकलापों में दखल न दें और न ही एक दूसरे पर दबदबा कायम करें।
संविधान धर्म और आस्था में भेदभाव नहीं करता
अदालत ने कहा है कि 15 अगस्त 1947 को देश ने आत्मनिर्णय की धारणा को साकार किया था। 26 जनवरी 1950 को हमने दृढ़निष्ठा के साथ खुद को भारत का संविधान दिया जो हमारे समाज को परिभाषित करता है। संविधान के हृदय में समानता की प्रतिबद्धता कानून के जरिये सुनिश्चित की गई है। संविधान में सभी धर्म, आस्था, विश्वास के लोग समान हैं। इस अदालत का हर न्यायाधीश सिर्फ जिम्मेदार नहीं है बल्कि संविधान और इसके मूल्यों से बंधा हुआ है। संविधान धर्म और आस्था में कोई भेदभाव नहीं करता। उसकी नजर में सभी पूजा पद्धतियां और प्रार्थनाएं समान हैं। जिन लोगों पर समाज की व्याख्या करने, इसे लागू करने और इसके मुताबिक चलने की जिम्मेदारी है, वे समाज या राष्ट्र पर जोखिम की हालत में ही इसे नजरअंदाज कर सकते हैं।
अदालत साक्ष्य के निर्धारित सिद्धांतों पर अमल करती है
कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में इस अदालत पर अद्वितीय पहलू के तथ्यों की छानबीन की जिम्मेदारी है। विवाद एक अचल संपत्ति पर है। यह अदालत मालिकाना हक का फैसला। आस्था और विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि प्रमाणों के आधार पर कर रही है। कानून में मालिकाना हक और सुपुर्दगी के व्यापक मानदंड तय किए गए हैं। विवादित संपत्ति में हक का फैसला करते वक्त अदालत साक्ष्य के निर्धारित सिद्धांतों पर अमल करती है।
हिंदू लगातार और बेरोकटोक बाहरी अहाते में पूजा करते रहे
संभावनाओं के संतुलन को देखा जाए तो साक्ष्य साफ संकेत करते हैं कि 1857 में ग्रिल और ईंट की दीवार बनने के बावजूद हिंदू लगातार और बेरोकटोक बाहरी अहाते में पूजा करते रहे। यहां हिंदुओं के अधिकार का दावा उनके कब्जे की घटनाओं को देखते हुए स्थापित सा लगता है। कोर्ट ने कहा जहां तक अंदर के कोटे की बात है तो यह स्थापित करने के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि अंग्रेजों द्वारा 1857 में अवध प्रांत बनाने से पहले भी यहां हिंदू पूजा करते रहे। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पक्ष ने इस बात के कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध कराए कि 1857 से पहले से लेकर 16वीं शताब्दी तक जब विवादित ढांचा बना, यह जगह उनके पूर्ण स्वामित्व में थी।
जुमे की आखिरी नमाज 16 दिसंबर 1949 को पढ़ी गई
कोर्ट ने कहा है कि ग्रिल और ईंट की दीवार बनने के बाद मस्जिद परिसर में नमाज पढ़ने के संकेत मिले। वक्फ निरीक्षक की दिसंबर 1949 की रिपोर्ट ये संकेत देती है कि वहां मुस्लिमों को नमाज पढ़ने के लिए निर्बाध प्रवेश करने से रोका गया। हालांकि इस बात के साक्ष्य हैं कि वहां नमाज होती रही और वहां जुमे की आखिरी नमाज 16 दिसंबर 1949 को पढ़ी गई।
मूर्तियां रखने के बाद मुस्लिमों के प्रवेश पर लगी रोक
कोर्ट ने कहा कि मुस्लिमों को वहां घुसने और नमाज पढ़ने से रोकने की घटना 22/23 दिसंबर 1949 को हुई जब वहां पर मूर्तियां रख दी गईं। मुस्लिमों को तब वहां से किसी कानूनी प्राधिकार के तहत नहीं बल्कि नमाज पढ़ने से रोकने के सोचे-समझे इरादे के तहत बेदखल किया गया। सीआरपीसी की धारा 145 के तहत अंदरूनी पर कोटे को अटैच करने के बाद वहां एक रिसीवर तैनात किया गया और मूर्तियों की पूजा की अनुमति दी गई। कोर्ट ने कहा कि मुकदमा लंबित रहने के दौरान सोची समझी चाल के तहत एक सार्वजनिक पूजा स्थल यानी मस्जिद को गिरा दिया गया। मुस्लिमों को गलत तरीके से उस मस्जिद से वंचित कर दिया गया जिसका निर्माण 450 साल से भी पहले हुआ था।