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सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना मामले में छह साल की देरी माफ कर आरोपी पति की सजा घटाई

जेल में उसके अच्छे आचरण को दर्ज करते हुए सजा उम्रकैद से घटा कर दस साल की कैद कर दी।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sun, 02 Dec 2018 08:42 PM (IST)Updated: Sun, 02 Dec 2018 08:42 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना मामले में छह साल की देरी माफ कर आरोपी पति की सजा घटाई
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना मामले में छह साल की देरी माफ कर आरोपी पति की सजा घटाई

माला दीक्षित, नई दिल्ली। सामान्य तौर पर ऐसा नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिका दाखिल करने में वर्षो की देरी माफ कर दे, लेकिन दहेज प्रताड़ना से जुड़े एक मामले में ऐसा देखने को मिला है। पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पति की पुनर्विचार याचिका दाखिल करने में छह साल की देरी माफ कर दी है। इतना ही नहीं कोर्ट ने दोषी पति की उम्रकैद की सजा भी घटा कर दस साल का कारावास कर दी है। दोषी पति पहले ही साढ़े नौ साल का कारावास भुगत चुका है।

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छह साल बाद दाखिल की गई थी पुनर्विचार याचिका

सुप्रीम कोर्ट का नियम कहता है कि किसी भी फैसले के खिलाफ 30 दिन के भीतर ही पुनर्विचार याचिका दाखिल हो सकती है। इसके बाद दाखिल करने पर कोर्ट को देरी का कारण बताना पड़ता है और देरी माफ करना कोर्ट का विवेकाधिकार होता है। कोर्ट के संतुष्ट न होने पर याचिका सिर्फ देरी पर ही खारिज हो सकती है।

न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर व न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की पीठ ने गत 28 नवंबर को यह फैसला दिया। मामला उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के गांव गंगदासपुर का है। जिसमें निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक से पत्नी को दहेज के लिए प्रताडि़त करने और आत्महत्या के लिए उकसाने के जुर्म में कैलाश को आईपीसी की धारा 304बी में उम्रकैद की सजा हुई थी। 1997 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 16 अप्रैल 2012 को कैलाश की याचिका खारिज करते हुए उम्रकैद पर मुहर लगाई थी।

जेल में बंद कैलाश ने उस फैसले के छह साल बाद गत 7 जुलाई को पुनर्विचार याचिका दाखिल की और सजा पर पुनर्विचार की गुहार लगाई। कोर्ट ने नियम के मुताबिक पहले याचिका पर चैम्बर में सुनवाई की और सिर्फ सजा के मुद्दे पर पुनर्विचार के लिए नोटिस जारी करते हुए मामले को खुली अदालत में बहस के लिए लगाया।

गत बुधवार को कैलाश की ओर से पेश वकील डीके गर्ग ने उम्रकैद की सजा का विरोध करते हुए कहा कि धारा 304बी के तहत दी गई यह सजा इस कानून में दी जाने वाली अधिकतम सजा है जबकि यह मामला ऐसा नहीं है जिसमें अधिकतम सजा दी जाए। उन्होंने कहा कि इस धारा में सजा के मुद्दे पर कोर्ट के विरोधाभासी फैसले हैं। ज्यादातर मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल का कारावास दिया है।

गर्ग ने कहा कि हेमचंद के मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा है कि धारा 304 बी का मामला अनुमान पर आधारित होता है जिसमें न्यूनतम सात साल और अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। कोर्ट ने कहा था कि अधिकतम सजा विरले मामलों में दी जानी चाहिए, हर मामले में नहीं दी जानी चाहिए। जबकि इस मामले में कोर्ट ने प्रारंभिक सुनवाई में ही याचिका खारिज कर उम्रकैद की सजा सही ठहरा दी थी।

गर्ग ने कहा कि घटना के समय अभियुक्त 20-21 वर्ष का युवक था। बाद में उसकी दूसरी शादी हुई और दो छोटे बच्चे हैं। अभियुक्त 2009 में सत्र अदालत से सजा होने के बाद से जेल में है। कोर्ट ने दलीलें सुनने और अभियुक्त की परिस्थितियां और जेल में उसके अच्छे आचरण को दर्ज करते हुए सजा उम्रकैद से घटा कर दस साल की कैद कर दी।


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