तीन तलाक अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिका SC से खारिज
सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने से साफ इनकार कर दिया है।
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को तीन तलाक अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करने से इन्कार कर दिया। याचिकाओं में गत 19 सितंबर के एक साथ तीन तलाक को दंडनीय अपराध घोषित करने के अध्यादेश को चुनौती दी गई थी।
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, केएम जोसेफ और हेमंत गुप्ता की पीठ ने याचिकाओं पर विचार करने से इन्कार करते हुए कहा कि अध्यादेश की समयसीमा छह माह की होती है। इस अध्यादेश को करीब दो महीने पूरे होने वाले हैं। इसके अलावा संसद का शीत सत्र शुरू होने वाला है उसका इंतजार कीजिये। कोर्ट ने कहा कि वह याचिकाओं पर विचार करने का इच्छुक नहीं है। कोर्ट के नकारात्मक रुख को देखते हुए याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिकाएं वापस लेने की इजाजत मांगी जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। हालांकि एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने अध्यादेश को संविधान के साथ धोखा कहा जिस पर पीठ ने कहा कि वह ऐसा न कहें।
मालूम हो कि अध्यादेश सिर्फ छह महीने तक ही लागू रह सकता है और इस बीच अगर संसद का सत्र आता है तो अध्यादेश को संसद से पारित कराना पड़ता है ताकि वह कानून की शल्क ले सके।
सुप्रीम कोर्ट से एक बार में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किये जाने के फैसले के बाद भी जब तीन तलाक का प्रचलन नहीं रुका तो सरकार इसे रोकने के लिए तीन तलाक को अपराध घोषित करने का विधेयक संसद में लायी थी। लोकसभा में विधेयक पास भी हो गया था लेकिन राज्यसभा में पास नहीं हुआ। संसद में मामला लटका देखते हुए सरकार मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से तत्काल निजात दिलाने के लिए अध्यादेश लायी थी। इस अध्यादेश में एक साथ तीन तलाक यानि तलाक ए बिद्दत को दंडनीय अपराध घोषित कर तीन साल तक की कैद का प्रावधान किया गया है। हालांकि तीन तलाक बिल पर हो रहे विरोध और दुरुपयोग की आशंकाओं पर विचार करते हुए सरकार ने अध्यादेश में कुछ संशोधन किये थे जैसे कि आरोपित को मजिस्ट्रेट से जमानत मिल सकती है। साथ ही तीन तलाक का मामला पीडि़ता या उसके करीबी रिश्तेदार की शिकायत पर ही दर्ज हो सकता है।
केरल की संस्था समस्थ केरला जमीएतुल उलेमा व दो अन्य याचिकाकर्ता ने कुल तीन याचिकाएं दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक अध्यादेश को चुनौती दी थी। याचिकाओं में अध्यादेश को असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला बताया गया था।