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राज्य सरकारों द्वारा जनहित में लिए गए कई फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनाया सख्त रवैया

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लिया गया कांवड़ यात्रा से जुड़े फैसले का मामला हो या फिर केरल में बकरीद के मौके पर कोविड प्रोटोकॉल के तहत लागू प्रतिबंधों में ढील देने का मामला हो इन सभी में जनहित को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 27 Jul 2021 10:29 AM (IST)Updated: Tue, 27 Jul 2021 10:29 AM (IST)
राज्य सरकारों द्वारा जनहित में लिए गए कई फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनाया सख्त रवैया
कार्यपालिका ने कुछ ऐसे निर्णय लिए, जिसमें बदलाव के लिए न्यायपालिका यानी अदालतों को हस्तक्षेप करना पड़ा है। फाइल

लालजी जायसवाल। पिछले दिनों एक मामले पर टिप्पणी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि वह इस तथ्य की समीक्षा करेगा कि कार्यपालिका के दायरे में आने वाले कोविड प्रबंधन से जुड़े मामलों में अदालतें किस सीमा तक हस्तक्षेप कर सकती हैं। बहरहाल, संविधान में भाग चार के अनुच्छेद 50 में कार्यपालिका से न्यायपालिका को पृथक करते हुए दोनों के बीच के फर्क को विश्लेषित किया गया है। यानी कार्यपालिका और न्यायपालिका, दोनों ही एक-दूसरे की सीमाओं का सम्मान करेंगे और उसमें हस्तक्षेप से बचेंगे। लेकिन यह मामला नीति निदेशक तत्व में आता है, इसलिए इसका पालन करना कर्तव्य तो है, परंतु बाध्यकारी नहीं है।

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दरअसल पिछले दिनों कोविड प्रबंधन से संबंधित मामलों पर उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जानकारी दी थी कि प्रदेश में कांवड़ यात्रा पर पूरी तरह से रोक नहीं रहेगी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने दखल देते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को उसके इस फैसले पर फिर से विचार करने की बात कही थी। खैर, कांवड़ यात्रा को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया, जिसमें कांवड़ संघों की तरफ से यात्र स्थगित करने की आधिकारिक जानकारी दी गई।

इसी तरह पिछले ही दिनों सुप्रीम कोर्ट ने बकरीद के मौके पर कोविड प्रोटोकॉल के तहत लागू प्रतिबंधों में ढील देने के लिए केरल सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि यह चौंकाने वाली स्थिति है कि केरल सरकार ने लॉकडाउन के मानदंडों में ढील देने की व्यापारियों की मांग को मान लिया। राज्य को ध्यान देना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 21 में लोगों को जीवन का अधिकार प्राप्त है और लॉकडाउन में ढील देने से जीवन का संकट उत्पन्न हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार की ओर से दी गई ढील के चलते कोरोना का संक्रमण फैलता है, तो कोर्ट उचित कार्रवाई करेगी।

खैर, इसे न्यायिक सक्रियता के तौर पर नहीं देखा जा सकता। न्यायिक सक्रियता, न्यायिक अतिवाद और न्यायपालिका का कार्यपालिकीय उपयोग, ये तीनों बातें अलग-अलग हैं। न्यायिक सक्रियता का मतलब न्यायालय द्वारा कार्यपालिका के कार्यो में हस्तक्षेप है। न्यायिक सक्रियता सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम देती है। कभी न्यायालयों की सक्रियता लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तो कभी यह किसी दूसरे अंग में हस्तक्षेप प्रतीत होते हुए संवैधानिक संकट की स्थिति भी पैदा करती है। लेकिन न्यायिक अतिवाद को हम एक उदाहरण से बेहतर रूप से समझ सकते हैं।

उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे एसएन श्रीवास्तव ने कुछ वर्षो पूर्व यह कहा था कि श्रीमद्भगवद्गीता को भारत का धर्मग्रंथ माना जाए। यह निर्णय संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करता है, क्योंकि भारत में अनेक जाति व मत के लोग रहते हैं। सबको अपने-अपने मत को मानने की आजादी प्राप्त है। इसलिए ऐसे निर्णय न्यायिक अतिवाद की श्रेणी में आते हैं। लेकिन न्यायपालिका का कार्यपालिकीय उपयोग का मतलब ऐसा लगता है कि कार्यपालिका स्वयं ऐसा आमंत्रित करती है कि न्यायपालिका उसके कार्यो में हस्तक्षेप करे।

लोकतंत्र में सरकारें अपने वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती हैं। केरल और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जैसे हालिया निर्णय देखने को मिले हैं, उनमें सरकारें अक्सर ऐसा चाहती हैं कि न्यायालय हस्तक्षेप करे, ताकि यह साबित हो सके कि अमुक प्रतिबंध सरकार ने नहीं, बल्कि न्यायालय ने लगाएं हैं। पिछले दशकों के दौरान यह देखा गया है कि आरक्षण जैसे व्यापक परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य वाले मुद्दे न्यायालय में जाते रहे हैं। इसका प्रमुख कारण यह होता है कि सरकारें अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए आरक्षण की सीमा इस प्रकार तय करती हैं, जो 50 प्रतिशत को पार कर जाता है और ऐसे मामले न्यायालय पहुंच ही जाते हैं, फिर उसे निरस्त किया जाता है। इन सभी बातों के माध्यम से जनता को यही समझाने का प्रयास किया जाता है कि सरकार तो जनहित में ही निर्णय लेती है, लेकिन न्यायालय ने उसे असंवैधानिक करार दिया।

ध्यातव्य है कि तीन नए कृषि कानूनों के विरोध स्वरूप किए जा रहे आंदोलन के समय जब 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली निकालने का आंदोलनकारियों ने निर्णय लिया था तो सरकार ने स्वयं न्यायालय में जाकर उससे ट्रैक्टर रैली नहीं निकालने के बाबत आदेश जारी करने की बात कही थी, जो कार्य सरकार का अपना था। न्यायालय ने उस समय यह कहा था कि कार्यपालिका को देखना है कि विधि और व्यवस्था बनी रहे, क्योंकि यह कार्य न्यायपालिका का नहीं है। लिहाजा, न्यायालय ने इस संबंध में कोई आदेश देने से इनकार कर दिया और कहा कि अगर ऐसे मामलों पर आदेश जारी किया गया तो यह कार्यपालिका के कार्यो में दखल के समान होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कैसे न्यायापालिका का कार्यपालिकीय उपयोग किया जाता है, जिसे लोकतंत्र में किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसे में न्यायपालिका का समय बर्बाद होता है और भविष्य में न्यायिक अतिवाद की आशंका ज्यादा बढ़ जाती है। यहां पर सुप्रीम कोर्ट के पिछले दिनों का एक वक्तव्य सटीक बैठता है कि ‘हमें समीक्षा करनी होगी कि कार्यपालिका के मामलों में संवैधानिक अदालतें किस सीमा तक हस्तक्षेप कर सकती हैं।’

उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र शक्ति के संतुलन पर चलता है और वह तीन स्तंभों पर आधारित है। हर स्तंभ की भूमिका परिभाषित है। यदि तीनों स्तंभ- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने दायरे में काम करें तो एक स्वस्थ लोकतंत्र दिखता है। यदि कोई भी एक क्षेत्र दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण करने की कोशिश करे, तो उससे असंतुलन पैदा होता है। न्यायालयों की कुछ टिप्पणियों में उत्तेजना दिख सकती है, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में यह बताया था कि न्यायालयों में सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियां न्याय का भाग नहीं, बल्कि त्वरित प्रतिक्रिया मानी जाती है, जिसका रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालयों को संयमित रूप से वक्तव्य देना चाहिए, जिसमें अतिवाद की झलक न दिखे। पिछले ही माह मद्रास हाई कोर्ट ने कहा था कि चुनाव आयोग देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार है और उसके अधिकारियों पर कोविड मानकों का पालन किए बिना रैलियों की अनुमति देने के लिए संभवत: हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। बाद में, आयोग ने कहा कि यह मामला उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, यह कार्य प्रशासन का है। वहीं, दिल्ली हाई कोर्ट ने मेडिकल आक्सीजन की कमी के मामले पर दिल्ली सरकार को नोटिस जारी करते हुए कहा था कि आप शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर डाल सकते हैं, हम नहीं। इन बातों से यह जाहिर होता है कि इसे हम सीधे तौर पर न्यायिक सक्रियता नहीं कह सकते भले न्यायालय की बातों में कठोरता दिखती है।

जीवन का अधिकार मूल अधिकार है। कोई भी व्यक्ति इस मसले पर न्यायालय जा सकता है, क्योंकि मूल अधिकारों की रक्षा का दायित्व न्यायालय का है। अत: न्यायालय को हस्तक्षेप करना आवश्यक हो जाता है। सवाल उठता है कि कार्यपालिका का क्या दायित्व बनता है? हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना संक्रमण की वजह से न्यायालय भी प्रभावित हुए हैं। वर्तमान में देश की अदालतों में करीब 3.84 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। ऐसे में अगर न्यायपालिका का कार्यपालिकीय इस्तेमाल बढ़ता रहा तो न्याय मिलना आम लोगों को कठिन हो जाएगा। ध्यान रखना चाहिए कि न्यायालय के समय का स्वहित में बर्बाद करना उचित नहीं है, यह एक प्रकार से अपराध है। इस पर न्यायालय कठोर कार्रवाई भी कर चुकी है। पिछले महीने दो ऐसी ही घटनाएं सामने आई थीं जिनमें जनहित के बजाय स्वहित के तहत न्यायालय का समय बर्बाद किया गया था और दिल्ली हाई कोर्ट ने फिल्म अभिनेत्री जूही चावला और दो अन्य को 5जी नेटवर्क प्रौद्योगिकी को चुनौती देने के मामले में कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने पर 20 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। इसी प्रकार दिल्ली हाई कोर्ट में एक और याचिका दाखिल कर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर रोक लगाने की मांग की गई थी। हाईकोर्ट ने इसे खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया था, क्योंकि यह राजनीति प्रेरित याचिका थी।

विधायिका और कार्यपालिका को अब गहन मंथन की आवश्यकता है कि आखिर चूक कहां हो रही है कि न्यायालय को सक्रिय होना पड़ रहा है। खासकर कोरोना काल में ऐसे अति सक्रियता के मामले तेजी से बढ़े हैं। यह भी देखा गया है कि न्यायपालिका का कार्यपालिकीय उपयोग भी बढ़ रहा है। ध्यान देना होगा कि जब राज्य के सभी अंग अपना-अपना कार्य संविधान के अनुरूप करें तो कोई विपरीत हालात उत्पन्न ही न हो। कानून बनाना और कानूनों के बीच अंतर को भरना विधायिका का कर्तव्य है और इसे उचित तरीके से लागू करना कार्यपालिका का कार्य है। बहरहाल, यह देखने में आ रहा है कि अदालतें सरकार को नीति बनाने के लिए कह रही हैं, जबकि संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। यह विधायिका का काम है, उसे ही करने दिया जाना चाहिए।

संविधान में न्यायपालिका के दो काम बताए गए हैं, एक यह कि वह देखे कि किसी के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है और दूसरा दो पक्षों के बीच विवाद सुलझाना और देखना कि दोषी कौन है? न्यायिक सक्रियता संविधान द्वारा समíथत नहीं है, यह न्यायिक अधिकारियों द्वारा पूरी तरह तैयार एक उत्पाद है। जब न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के नाम पर दी गई शक्तियों की सीमा रेखा पर कदम उठाती है, तो न्यायपालिका तब संविधान में निíदष्ट शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा को समाप्त करने लगती है। रोजमर्रा के और छोटे-छोटे कार्यो के लिए न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया जाना अथवा कार्यपालिका के द्वारा हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित करना लोकतंत्र में जनहित के विरुद्ध होगा। इसलिए न्यायपालिका का कार्यपालिकीय उपयोग से बचना ही स्वस्थ लोकतंत्र की जरूरत है।

[अध्येता, इलाहाबाद विश्वविद्यालय]


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