Move to Jagran APP

पलायन का दंश झेलने वाले मप्र के टीकमगढ़ जिले की कहानी, सूने पड़े गांव-घर आबाद

COVID-19 Lockdown India कोरोना के खतरे और लॉकडाउन ने टीकमगढ़ जिले के लोग पर ऐसा वज्रपात किया कि रोजगार तो गया ही जान के भी लाले पड़ गए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 15 May 2020 10:48 AM (IST)Updated: Fri, 15 May 2020 10:52 AM (IST)
पलायन का दंश झेलने वाले मप्र के टीकमगढ़ जिले की कहानी, सूने पड़े गांव-घर आबाद
पलायन का दंश झेलने वाले मप्र के टीकमगढ़ जिले की कहानी, सूने पड़े गांव-घर आबाद

मनीष असाटी, टीकमगढ़। COVID-19 Lockdown India: मप्र के टीकमगढ़ जिले की कहानी, जहां पलायन की दर सर्वाधिक थी, सूने गांवकस्बे, घरों पर ताले लटकते और चंद बुजुर्ग ही नजर आते, अब समय का पहिया घूमा है। ताले खुल गए हैं। मकान अब घर बन गए हैं। गांव आबाद हो चले हैं। जिले के 60 हजार प्रवासी श्रमिक लौट आए हैं। भविष्य पर लटका ताला कैसे खुले, जुगत भिड़ाई जा रही है।

loksabha election banner

कुड़ीला गांव ने अरसे बाद एकसाथ इतने लोगों को देखा है। इस गांव से पलायन इस कदर हुआ कि लंबे समय बाद अधिकांश मकानों के ताले खुले हैं। कुछ मकान जो टूट-फूट गए थे, उन्हें जोड़ा- बटोरा जा रहा है। घर लौटे बेटे बूढ़े पिता से खूब बतिया रहे हैं। इस आस में कि पिता अपने अनुभव से कोई दिलासा देंगे, कोई उपाय सुझाएंगे। जिन जोखिमों से जूझते हुए घर तक पहुंचे हैं, वह बातें सुनते ही बूढ़ी मां साफ कह देती है कि चाहे कुछ हो जाए, अब नहीं जाना कहीं। यहीं जीएंगे- मरेंगे...।

टीकमगढ़ के कुड़ीला गांव में घर के बाहर बैठा दशरथ अहिरवार का परिवार। नई दुनिया

यही हाल अन्य गांवों कहा है। टीकमगढ़ जिले के लोग बड़ी संख्या में महानगरों में रोजी-रोटी की तलाश में जाते रहे हैं। कोरोना के खतरे और लॉकडाउन ने उन पर ऐसा वज्रपात किया कि रोजगार तो गया ही, जान के भी लाले पड़ गए। ऐसे में गांव का टूटा-फूटा ही सही पर अपनों के बीच वही घर सुरक्षित आश्रय नजर आया। कोई पैदल तो कोई वाहनों से लौट आया।

बल्देवगढ़ जनपद पंचायत के अंतर्गत कुड़ीला गांव की जनसंख्या वैसे तो 5000 है, पर यहां अधिकांश घरों के ताले कभीकभार ही खुलते थे। गांव वालों की मानें तो गांव में 200 से ज्यादा परिवार दिल्ली और हरियाणा से लौटे हैं। कुड़ीला से सटे सौंरया गांव में करीब 700 लोग रहते हैं। जंगली क्षेत्र होने के कारण यहां के अधिकांश लोग भूमिहीन हैं। बुजुर्गों को छोड़कर सभी दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान की ओर रोजीरोटी की तलाश में जाते हैं। लंबे समय बाद लौटे हैं तो इनके मकान टूटे-फूटे पड़े हैं। भागबाई आदिवासी भी इनमें से एक हैं, जो दिल्ली में मजदूरी करती थीं। लॉकडाउन की वजह से धक्के खाते हुए वह घर तो पहुंच गईं, लेकिन अब गांव में आशियाना भी उजड़ गया है। मिट्टी को घोलकर बिखरे पड़े ईंट-पत्थरों को जोड़ने में लगीं हुईं हैं। उनका कहना है कि बड़ा परिवार है, अब कितनी भी मुश्किल आए सब मिलकर यहीं कुछ करेंगे।

बुजुर्ग ग्रामीण जस्सू अहिरवार ने बताया, मेरे तीन बेटे हैं, जिनमें विजय, रामअवतार और रमेश दिल्ली जाकर मजदूरी करते थे। त्योहारों पर ही उनका आना होता था। मैं और पत्नी ही यहां रहते थे। अब सब घर आ गए हैं। हमारे पास डेढ़ एकड़ जमीन है। उसमें नई तकनीक और वैज्ञानिकों की सलाह से खेती करेंगे। अब तक बंटाई पर देते थे, लेकिन अब सब मिलकर यहीं रहेंगे। बेटे और बहू मेरे पास हैं, इससे ज्यादा संतोष और कुछ नहीं हो सकता। बुजुर्ग मां भंगुती अहिरवार ने बताया, दिल्ली में मेरा बेटा मकान बनाने का काम करता था। मैं बुजुर्ग यहीं रहती थी, लेकिन बेटा बड़ी विपदा से निकलकर गांव पहुंचा है। अब जिले में ही काम करेगा। अधिक कमाने के चक्कर में बाहर जाने की जरूरत नहीं है।

पत्नी और बच्चों के साथ अब तक दिल्ली और हरियाणा में मजदूरी कर जीवन यापन करता था। लॉकडाउन के बाद पैदल ही घर आया हूं। फिलहाल घर पर ही बीड़ी बनाने का काम कर रहा हूं। इससे कुछ तो कमाई होगी। मनरेगा से काम मिलने की आस है। पंचायत में जानकारी दे दी है। आसपास के गांवों में भी मजदूरी कर लेंगे। कभी सोचा नहीं था कि महानगर में जिंदगी इस तरह बेबस हो जाएगी। जान बच गई, इतना काफी है।

-दशरथ कुमार, ग्रामीण


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.