'आतंक की दहशत' में कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा, उपन्यास के नायक की डायरी में सिमटी कहानी
19 जनवरी को कश्मीरी पंडितों की व्यथा और दुख की शुरुआत के 31 साल पूरे हो जाएंगे। 1990 की जनवरी माह के 19 तारीख की रात लाउडस्पीकर पर पंडितों को स्पष्ट संदेश दे दिया गया कि घाटी में अब उनके दिन लद गए हैं
नई दिल्ली, अरुण सिंह। करीब तीन दशक पहले कश्मीरी पंडितों को बड़ी संख्या में कश्मीर घाटी से पलायन करना पड़ा था। अपनी जान बचाने के लिए कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए थे। हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘आतंक की दहशत’ देश के इतिहास के लगभग भुला दिए गए इस स्याह अध्याय पर रोशनी डालता है। कश्मीर में जन्मे सेवानिवृत्त प्रोफेसर तेज एन. धर ने डायरी शैली में लिखे इस उपन्यास में कश्मीरी पंडितों की बेबसी और मजबूरी को बहुत ही सटीक और मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है। इसमें वर्ष 1989-90 के कश्मीर को दर्शाया गया है, जब घाटी में आतंकी हिंसा चरम पर थी। पंडितों को लगातार कश्मीर से चले जाने की चेतावनी दी जा रही थी। उन्हें भयभीत करने के लिए रोज कत्ल किए जा रहे थे। उनकी बहन-बेटियों को दुष्कर्म का शिकार बनाया जा रहा था।
डायरी का गुमनाम लेखक है उपन्यास का नायक
उपन्यास का नायक डायरी का गुमनाम लेखक है, जो अकेला व मानसिक तनाव से ग्रस्त है। अपनी हिफाजत के लिए उसके बीवी-बच्चे भी रिश्तेदारों के साथ घाटी से बाहर चले गए हैं। खौफ के माहौल में वह अंत तक इसी द्वंद्व में रहता है कि उसे घाटी में रहना चाहिए या अन्य लोगों की तरह पलायन कर जाना चाहिए। अपनी जिंदगी के पन्ने पलटते हुए वह याद करता है कि कभी यहां हिंदुओं और मुसलमानों में कितना भाईचारा था। उसे बताया गया था कि कैसे पड़ोसी मुस्लिम परिवार की बहू नूरा ने ही उसकी मां का प्रसव कराया था और एक तरह से उसे इस दुनिया में आने में मदद की थी, लेकिन अब हालात बदल गए थे।
पंडितों को सुनियोजित तरीके से निशाना बनाया जा रहा था। आतंकियों की गोली का शिकार बनने वालों की सूची लंबी होती जा रही थी। रोज नई कहानियां सुनने को मिलती हैं। युवा शिक्षिका संजना, भोली-भाली शीला और अपनी ही सहेली के हाथों छली गई सरला की दर्दभरी कहानियां उसे बेचैन कर देती हैं। ऐसा नहीं है कि बढ़ती आतंकी वारदातों की चपेट में सिर्फ अल्पसंख्यक हिंदू ही आ रहे थे। कई मुस्लिम परिवारों को भी इसकी भारी
कीमत चुकानी पड़ी थी, लेकिन पंडितों पर जुल्म के दौरान मूकदर्शक बने रहने के लिए वह राज्य और केंद्र सरकार के साथ मुस्लिमों को भी कसूरवार मानता है। अक्सर उसके जेहन में सवाल उठता है कि उसे अन्य कश्मीरियों की तरह अपने घर में रहने का हक क्यों नहीं है? इसी उधेड़बुन में उसका भी अंत हो जाता है।
एक अज्ञात कश्मीरी की यह डायरी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले सियासी दलों और नेताओं को भी कठघरे में खड़ा करती है। सूबे के हालात दिन-ब-दिन बिगड़ रहे थे, लेकिन मुख्यमंत्री गोल्फ खेलने में व्यस्त थे। केंद्र व राज्य सरकारों की गलत नीतियां समस्या को बढ़ा रही थीं। बिगड़ते हालात के बीच देश के तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबिया के अपहरण की घटना ने सूबे में आतंकवाद को हवा दी। रूबिया की सुरक्षित वापसी के बदले आतंकियों ने जेल में बंद अपने पांच साथी रिहा करवा लिए।
उपन्यास के नायक ने अपहरण की इस घटना के पीछे अलगाववादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक का हाथ होने की आशंका जताई। यह आशंका गलत नहीं थी। हाल में स्थानीय अदालत में दाखिल आरोप-पत्र में यासीन मलिक को ही इसका मुख्य साजिशकर्ता बताया गया है। रूबिया के अपहरण की घटना से निपटने में राज्य व केंद्र सरकार के रवैये ने सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ दिया, जबकि आतंकियों के हौसले बुलंद कर दिए। वे मनमानी पर उतर आए थे।
19 जनवरी को इस व्यथा के 31 साल पूरे
वर्ष 1990 की 18-19 जनवरी की रात 12 बजे मस्जिदों के लाउड स्पीकर गरज उठे, ‘हम क्या चाहते, आजादी।’
इसके जरिये एक तरह से पंडितों को स्पष्ट संदेश दे दिया गया कि घाटी में अब उनके दिन लद गए। डायरी शैली में लिखे गए इस उपन्यास में अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों की बेबसी को सटीक और मार्मिक तरीके से व्यक्त किया गया है, जिस घटना के आगामी 19 जनवरी को 31 वर्ष पूरे हो जाएंगे।
पुस्तक : आतंक की दहशत
लेखक : तेज एन. धर
प्रकाशक : साहित्य प्रकाशन
मूल्य : 350 रुपये