आजादी की कहानी, साक्षी रहे लोगों की जुबानी
क्या हम आजादी की खुशबू को 66 साल बाद भी बरकरार रख पाए हैं? इस सवाल का उत्तर जानने के लिए हमने उन्नीस सौ सैंतालीस में आजाद होने के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण को सुनने पहुंचे कुछ लोगों से बातचीत की। आजादी के साक्षी रहे लोगों ने इस पर मिलीजुली प्रतिक्रि
नई दिल्ली। क्या हम आजादी की खुशबू को 66 साल बाद भी बरकरार रख पाए हैं? इस सवाल का उत्तर जानने के लिए हमने उन्नीस सौ सैंतालीस में आजाद होने के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण को सुनने पहुंचे कुछ लोगों से बातचीत की। आजादी के साक्षी रहे लोगों ने इस पर मिलीजुली प्रतिक्रियाएं दी। आजादी के दौरान और वर्तमान अनुभवों की कहानी, पेश है इन लोगों की जुबानी।
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बेमानी हो गया है लोकतंत्र:
'अंग्रेजी राज के जाने से सब काफी खुश थे, लेकिन मन के कोने में दुख भी बैठा था। बंटवारे के दौरान सांप्रदायिक तनाव का असर दिल्ली में व्याप्त था। 15 अगस्त में एक ओर जहां चांदनी चौक स्थित लालकिले में आजादी के जश्न को लेकर चहल पहल थी, वहीं तुर्कमान गेट पहाड़गंज में काफी तनाव था। आजादी के जश्न में हिस्सा लेने के लिए लालकिला जाते थे तो वहां प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल भाषण के रूप में देश की मौजूदा स्थिति से आम लोगों को रूबरू कराते थे, उन्हें सुनना अच्छा लगता था। आज की बात करें तो लालकिले के प्राचीर से जो बातें की जाती हैं, वे आम लोगों के पल्ले ही नहीं पड़तीं। स्वतंत्रता के बाद जिस लोकतंत्र की लोगों ने कल्पना की थी वह आज बेमानी दिखाई देता है।'
-पूरन सिंह चौहान (87) दिल्ली गेट
घट रही है दिलचस्पी
'1947 में महज 10 साल का था:
स्वतंत्रता दिवस के दिन नए कपड़े पहनकर लालकिले गया था। बच्चे और बड़े सभी पैदल ही लालकिले पहुंचे थे। लोग बड़े बेसब्र थे कि कब नेहरू झंडा फहराएंगे। जैसे ही नेहरू जी ने तिरंगा फहराया, लोग राष्ट्रगान के बाद देशभक्ति के गीत गाने लगे। घर आने पर सभी महिलाओं ने तब तक चैन से नहीं बैठने दिया, जब तक कि उन्होंने लालकिले का पूरा वाकया नहीं सुन लिया। उस दिन के चर्चे कई दिनों तक लोगों की जुबां पर रहे। आज तो इसमें किसी की दिलचस्पी ही नहीं रह गई है। सुरक्षा के नाम पर स्वतंत्रता दिवस से पहले लोगों को जगह-जगह जांच व अन्य कारणों से इतनी परेशानी होती है कि 15 अगस्त को वे कहीं आने-जाने में परहेज करने लगे हैं।'
-उदय सिंह (77), गांधी हिंदुस्तानी
साहित्य सभा
औपचारिकता रह गया यह पर्व:
'हम सब पूरे परिवार के साथ गांधी जी के आंदोलन में शामिल थे। आजादी के समय अच्छा लगा। वर्षो तक स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने के लिए लालकिले जाते रहे। उस समय देश के नेताओं में कुछ करने का जज्बा था। समारोह में शिरकत करने के लिए दूर-दूर से लोग लालकिले आते थे और प्रधानमंत्री को तिरंगा फहराते हुए बड़े नजदीक से देखते थे। कतार में पहली व दूसरी पंक्ति में बैठे लोगों से आकर वह मुलाकात करते थे तो ऐसा लगता था जैसे घर के सदस्य हों। मगर आज तो माहौल कर्फ्यू जैसा हो जाता है। भ्रष्टाचार व महंगाई से लोग इस कदर परेशान हैं कि जश्न-ए-आजादी महज औपचारिकता बनकर रह गया है। हमने खुशहाल देश की कल्पना की थी पर अब तो केवल कुर्सी का रोना है। देश की असुरक्षा, भ्रष्टाचार के बारे में सुनकर दुख होता है। अब तो नेता गांधी के नाम को बदनाम कर रहे हैं।
- लक्ष्मी गौतम (78), चांदनी चौक
असुरक्षा का भाव बढ़ा है:
'बंटवारे के बाद आजादी मिली और हम अपना घर-द्वार छोड़कर दिल्ली चले आए। तब हमें लगा था कि यह सब अस्थायी है। पर हमें धीरे-धीरे विश्वास करना पड़ा कि हमें हमेशा के लिए सब छोड़ कर यहां रहना होगा। तब स्वतंत्रता दिवस को ईद, दीवाली की तरह हर देशवासी मनाता था। आज मुल्क के लोग तरक्की कर रहे हैं लेकिन समय के साथ-साथ देश के नेताओं ने लोगों के साथ धोखा और षड्यंत्र करना शुरू कर दिया। नतीजा है देश हर तरफ असुरक्षित है। देश की नई पीढ़ी में जोश तो है लेकिन सब में असुरक्षित होने का भाव है। इस कारण चेहरे पर खुशी देखने को नहीं मिलती।'
- हरवंश सिंह (76) दरियागंज निवासी
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