राम संज्ञा के रूप में वे भारतीय राष्ट्र के नायक हैं और विशेषण के रूप हैं इच्छित आदर्श
राम संज्ञा भी हैं और विशेषण भी। संज्ञा के रूप में वे भारतीय राष्ट्र के नायक हैं और विशेषण के रूप में इच्छित आदर्श हैं जो संवेदना सत्याचरण और भातृत्व पैदा करते हैं।
प्रो. राकेश सिन्हा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अयोध्या में भूमि पूजन पर कुछ लोगों ने आपत्ति प्रकट की है। आपत्ति का आधार भारतीय संविधान के सेक्युलर चरित्र को बनाया गया है। ऐसी आपत्तियों और आलोचनाओं से असहज नहीं होना चाहिए। राष्ट्र के जीवन में ऐसे अवसर आते हैं, जब कुछ बुनियादी प्रश्नों पर लंबी बहस चलती है और वही तार्किक रूप से हमें सही स्थिति तक ले जाने का काम करती है। प्रधानमंत्री द्वारा भूमि पूजन ने नए सवाल को जन्म दिया है। क्या राम भारतीय समाज के एक हिस्से के ही प्रतिनिधि पुरुष या आदर्श हैं या वे भारत की लंबी सभ्यता एवं संस्कृति में सर्वस्पर्शी आदर्श राष्ट्रीय या सभ्यताई चरित्र के प्रतीक और प्रेरणा दोनों थे, हैं और रहेंगे?
सभ्यता व संस्कृति को अवचेतन से चेतन मन में लाने के लिए विमर्श की आवश्यता होती है। यह विमर्श बौद्धिक शिथिलता को समाप्त करता है और सांस्कृतिक इतिहास को समझने का अवसर देता है। उक्त आपत्ति का एक आधार है। मुगलों और अंग्रेजों ने भारत की सांस्कृतिक चेतना को मारने का प्रयास किया। अंग्रेजों के काल खंड में जो एक बड़ा कुलीन वर्ग पैदा हुआ और जो राजनीति से लेकर महानगरीय जीवन पर आधिपत्य बनाने में सफल रहा उसका चिंतन, उसकी बुद्धि, उसकी अभिव्यक्ति यूरोप की राजनीतिक समझ और विचारों से तय होती रही।
इसीलिए यह बात सत्य है कि भारत की वैचारिक संप्रभुता यूरोप के विचारकों के अधीन आजादी के बाद भी बनी रही। उनके अनुभवों को हमारे विचारकों ने उधार लेकर भारत को वैचारिक नेतृत्व देना चाहा। पर उनकी कई पीढ़ियां इसमें खप गई, भारत का मूल चरित्र अपरिर्वितत रहा। इस मूल चरित्र का प्रतिनिधित्व करोड़ों लोग करते हैं, जिनका जीवन मूल्य, जीवन दर्शन और जीवन की आकांक्षा अपनी परंपराओं, आदर्शों और नायकों से निर्धारित होता रहा है। तभी तो सेकुलरवाद की रट लगाने वाले विचारक आज खारिज किए गए महसूस कर रहे हैं। जब राज्य की ताकत से छद्म विचारक सामान्य लोगों के विवेक, जीवन आदर्श, प्रगतिशील परंपराओं और नायकों पर सवाल खड़ा करते हैं तब आम लोग उसका प्रतिउत्तर देने सड़कों पर उतरते हैं। अयोध्या आंदोलन इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यह आंदोलन एक मंदिर निर्माण की ही कहानी नहीं है, बल्कि संस्कृति के स्वराज की आधारशिला रखने वाला एक ऐतिहासिक विमर्श है। जो ‘भारत क्या है?’ प्रश्न का समाधान ढू़ढता है।
भारत का संविधान जिस विविधता, बहुलतावाद, धर्म की स्वतंत्रता की बात करता है, वह भारत की विरासत पर ही आधारित है। उस सभ्यता या संस्कृति की विरासत से अलग हटकर संविधान की पृष्ठभूमि और परिणामकारी मूल भाव को नहीं समझ सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भूमि पूजन पर आपत्ति करने वाले संविधान को अक्षरों में पढ़ रहे हैं। कोई भी समाज अपने आदर्श चरित्र के बिना आगे नहीं बढ़ता है। वह चरित्र जितना ही सार्वभौमिक मूल्यों वाला, उदार और उदात्त होता है, उसमें उसी अनुपात में प्रभावी क्षमता विद्यमान होती है। राम भारतीय समाज के उसी आदर्श के प्रतीक और प्रेरणा दोनों हैं। उनका चरित्र उन प्रश्नों को संबोधित करता है, जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राजकार्य से जुड़ा है।
वाल्मीकि और तुलसी के साथ-साथ सैंकड़ों स्थापित लेखकों कवियों ने राम चरित्र के राष्ट्रीय, सभ्यताई और मानवीय आदर्शों को परोसा है। सवाल करने वालों का समाधान दो बुनियादी बातों में निहित है। पहला, वामपंथी संस्कृति के भारतीय पक्ष से अपनी हार मानते हैं अत: सच जानते हुए भी वे सच का दमन करते रहे हैं। उनका भौतिकवाद आदर्श का शत्रु है। राम से उपजी सामाजिक चेतना उनके दर्शन को अनुपजाऊ बना देती है। इसलिए वे राम से जुड़े सभी पक्षों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक आइने में देखते हैं। उनके सार्वभौमिक आदर्श की कोई जाति या धर्म नहीं है। इस आदर्श से वे भयभीत हैं और भारतीयता के भीतर उप भारतीयताओं को बनाए रखना चाहते हैं।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)